ललित गर्ग
पश्चिम बंगाल इन दिनों धार्मिक और राजनीतिक उफान का केंद्र बना हुआ है। बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर मुस्लिम संगठनों और राजनीतिक समूहों की सक्रियता के बीच हिन्दू धर्मगुरुओं एवं संगठनों की मोर्चाबंदी ने क्या हिंदू क्रांति का शंखनाद किया है? क्या यह आगामी विधानसभा चुनावों में हिंदू वोटों को एकत्र करने का नया एजेंडा है, या पश्चिम बंगाल में लगातार हिन्दुओं पर हो रहे हमलों, उनको कुचलने की कुचेष्टाओं एवं मुस्लिम तुष्टीकरण का माकुल जबाव है। बाबा बागेश्वर धाम-धीरेन्द्र शास्त्री सहित अनेक हिंदू धर्मगुरुओं के प्रवचनीय हस्तक्षेप, लाखों लोगों द्वारा सामूहिक गीता पाठ और संतों की हुंकार से एक नई चेतना आकार लेती दिखाई दे रही है। यह उभार महज आस्था का नहीं, बल्कि पहचान, सुरक्षा और गौरव के भावों का उभार है।
पश्चिम बंगाल में बाबरी मस्जिद पुनर्निर्माण का मुद्दा उठाना मानो एक सोए हुए राक्षस को जगाने जैसा है, क्योंकि यह केवल एक मस्जिद का प्रश्न नहीं बल्कि देश की एकता, अखंडता और सांप्रदायिक सौहार्द की कसौटी है। सदियों से चला आ रहा बाबरी विवाद भारत की सामाजिक चेतना पर गहरे जख्म छोड़ चुका है-जिसने राजनीति को उग्र बनाया, समुदायों को बाँटा और नफरत व हिंसा के बीज बोए। ऐसे समय में जब राष्ट्र विभिन्न संकटों से जूझ रहा है, इस विवाद को नए भूगोल में स्थानांतरित कर हवा देना सामाजिक सामंजस्य एवं राष्ट्रीय एकता के लिए घातक हो सकता है। सद्भाव और शांति की बुनियाद पर खड़े भारत को ऐसे मुद्दों की आवश्यकता है जो एकता को मजबूत करें, न कि पुराने घाव कुरेदकर समाज में तनाव और अविश्वास पैदा करें। अतः आवश्यक है कि नेतृत्व इस संवेदनशील विषय को विवेक, संवाद और राष्ट्रहित को सर्वाेपरि रखकर संभाले, ताकि भारत का बहुलतावादी चरित्र और साझा सभ्यता सुरक्षित रह सके।
निश्चित ही बाबरी मस्जिद विवाद को हवा देकर कुछ मुस्लिम संगठनों और राजनीतिक वर्गों ने तनाव का वातावरण खड़ा किया है। इन दो समानांतर धाराओं की टकराहट ने बंगाल को विमर्श के केंद्र में ला दिया है कि क्या राज्य में हिंदू संगठित होकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की हिन्दू-विरोधी साजिशों एवं षडयंत्रों का अंत चाहते हैं? बंगाल परंपरा से बौद्धिक और सांस्कृतिक बहुलता का प्रदेश रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में हिंदू सामाजिक मानस में एक बदलाव दिख रहा है। “गजवा हिंद” के प्रलापों के प्रतिकार में “भगवा हिंद” का संकल्प उभर रहा है। पांच लाख से अधिक हिंदुओं द्वारा एक साथ गीता पाठ करना इसी उभार का संकेत है, जिसमें धर्म प्रदर्शन शक्ति और अस्मिता के रूप में सामने आता है। साध्वी ऋतंभरा के वक्तव्यों ने इस उभार को एक नया स्वर दिया है। उनका स्पष्ट कथन कि “यह धरती प्रभु श्रीराम की है और श्रीराम की ही रहेगी” बंगाल सहित पूरे देश के हिंदू मानस में गूंज रहा है। यह कथन सिर्फ आस्था की घोषणा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अधिकार और आधिपत्य की अनुभूति का उद्घोष है। उनके भाषणों में उभरती चेतावनी है कि यदि हिंदू अपनी संस्कृति, परंपरा और मंदिरों की रक्षा के लिए नहीं उठे तो इतिहास स्वयं उनसे जवाब मांगेगा।
इस पृष्ठभूमि में बाबरी विवाद का पुनर्स्मरण राजनीति का साधन भी प्रतीत होता है। मुस्लिम संगठनों द्वारा इसकी मांगों को आगे बढ़ाना और नेताओं द्वारा इसे मुद्दा बनाना निश्चित ही सामाजिक भावना को चुनौती देता है। इसका प्रतिउत्तर धार्मिक मंचों से आया है, जहां प्रवचनों और सभाओं ने इसे हिंदू गौरव और अस्तित्व के प्रश्न के रूप में चित्रित किया है। ऐसे में यह कहना असंगत नहीं कि बंगाल की जमीन पर हिंदू पहचान की राजनीति तेजी से आकार ले रही है और हिन्दू धर्मगुरुओं के स्वर इसे वैचारिक ऊर्जा प्रदान कर रहे हैं। उनका यह कथन कि “राम का नाम अनंत है, पर पुरुषार्थ के बिना सिर्फ नाम से रामराज्य नहीं आएगा” एक सीधा संकेत है कि हिंदू समाज को संगठित, सक्रिय और आत्मनिर्भर होना होगा।
इस व्यापक परिदृश्य का मुख्य केंद्रबिंदु राजनीति है। क्या यह सब आगामी विधानसभा चुनावों का संकेत है? बंगाल की राजनीति लंबे समय से मुस्लिम मतदाताओं की निर्णायक भूमिका के आसपास घूमती रही है और ममता बनर्जी ने मुस्लिम समाज के भरोसे को अपने समर्थन की नींव बनाया है। परंतु यदि हिंदू मतदाता नए सांस्कृतिक उभार से प्रेरित होकर एकजुट होते हैं, तो पहली बार बंगाल की सत्ता-समीकरण बदल सकते हैं। भाजपा और संघ परिवार का प्रयास भी इसी दिशा में है कि धार्मिक सम्मेलनों को राजनीतिक चेतना का मंच बनाकर हिंदू अस्मिता को वैचारिक शक्ति प्रदान करना। भाजपा, आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद और धार्मिक प्रवचनीय हस्तक्षेपों द्वारा बंगाल में हिंदू एकता और पहचान को जागृत करने की रणनीति अपनाई जा रही है। इस राजनीतिक परिपाटी में बाबा बागेश्वर जैसे मंच प्रभावी भूमिका निभा रहे हैं, धर्म-सम्मेलनों को राजनीतिक चेतना की पाठशाला में बदला जा रहा है। साध्वी ऋतंभरा का बंगाल में सक्रिय होना उसी रणनीति की कड़ी है, क्योंकि उनका सशक्त भाषण हिंदू भावनाओं को झकझोरता है। बंगाल जिसकी पहचान बौद्धिक विनम्रता, कविता, महात्म्य और सहिष्णुता से जुड़ी रही है, वह अब टकराव, ध्रूवीकरण और प्रतिआक्रामकता की ओर बढ़ता दिख रहा है। हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों में भावनात्मक आवेश बढ़ रहा है और नेताओं द्वारा इस माहौल को चुनावी लाभ के लिए साधने की त्रासद कोशिशें तेज हैं। यह परिस्थिति बंगाल के सामाजिक ताने-बाने के लिए चुनौतीपूर्ण है।
फिर भी एक बात निर्विवाद है-बंगाल में एक नई चेतना, एक नई आकांक्षा जन्म ले रही है। यह पूर्ण क्रांति है या क्रांति का शंखनाद, यह कहना अभी जल्दबाजी होगा, परन्तु प्रारंभिक संकेत स्पष्ट हैं। हिंदू पहचान की राजनीति बंगाल में निर्णायक होती जा रही है, मुस्लिम वोट-बैंक की राजनीति पहली बार चुनौती में दिखाई दे रही है और ममता बनर्जी की सत्ता को सांस्कृतिक विरोध का नया मोर्चा मिला है। अब यह समय बताएगा कि यह उभार सत्ता बदलता है या सामाजिक संवाद को बदलता है। लेकिन इतना तो तय है कि बंगाल की राजनीति अब केवल विकास, योजनाओं और नेतृत्व की नहीं, बल्कि पहचान, इतिहास और प्रभुत्व की राजनीति बन चुकी है। यही कारण है कि धार्मिक मंचों की आवाज़ें चुनावी मैदान की धड़कन बन रही हैं। बंगाल अपने निर्णायक मोड़ पर खड़ा है-जहाँ राम का दावा और राम की भूमि का संकल्प राजनीति, समाज और भविष्य तीनों को प्रभावित करने वाला तत्व बन चुका है।
न केवल मुस्लिम तुष्टिकरण बल्कि भ्रष्टाचार से लेकर मनमर्जी एवं तानाशाही का शासन चलाना मुख्यमंत्री ममता बनर्जी प्रक्रिया बन गयी है। ममता वोट बैंक की राजनीति के लिये कानून की धज्जियां बार-बार उड़ाती रही है। ममता बनर्जी का एकमात्र लक्ष्य मुसलमानों के वोट बैंक को बरकरार रखना रह गया है। मुद्दा चाहे रोहिंग्या मुसलामानों के अवैध प्रवेश का हो या फिर बांग्लादेशियों का या अब बाबरी मस्जिद का। इसके लिए ममता ने देश की एकता-अखंडता और सुरक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों को नजरअंदाज किया है, कानून से खिलवाड़ जितना पश्चिमी बंगाल में हुआ है उतना शायद ही देश के किसी दूसरे राज्यों में हुआ हो। तृणमूल कांग्रेस हिन्दुओं को पश्चिम बंगाल में सेकेंड क्लास सिटिज़न एवं अल्पसंख्यक बनाना चाहती है। मुस्लिम तुष्टीकरण की उसकी सोच एवं नीति न केवल उनके घोषणा-पत्रों में बल्कि उनके बयानों में स्पष्ट झलकती रही है। ममता ने मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति की है, तृणमूल कांग्रेस का एकतरफा रवैया हमेशा से समाज को दो वर्गों में बांटता रहा है एवं सामाजिक असंतुलन तथा रोष का कारण रहा है। बदले हुए राजनीतिक हालात इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि किसी भी एक वर्ग की अनदेखी कर कोई भी दल राजसत्ता का आनंद नहीं उठा सकता। पश्चिम बंगाल में जो चल रहा है वह महज ‘बागेश्वर बनाम बाबरी विवाद’ नहीं है, यह सांस्कृतिक-धार्मिक पुनर्स्थापन की कोशिश बनाम राजनीतिक मुस्लिम केंद्रवाद की प्रतिस्पर्धा है। अभी के लिए, बंगाल की जमीन पर धर्म, राजनीति और पहचान का नया त्रिकोण उभर चुका है और वही आने वाले समय में बंगाल की राजनीतिक दिशा, सामाजिक संबंधों और सत्ता के समीकरणों को आकार देगा।





