जातीय नफरत की सर्कस : विवेकहीन समाज की एक त्रासदी

The circus of racial hatred: A tragedy of a society without reason

सदियों से भारतीय समाज जातीय भेदभाव की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। यह नफरत केवल सामाजिक संरचना को नहीं, बल्कि इंसान के विवेक और संवेदना को भी कुंद कर चुकी है। हर निर्णय, हर दृष्टिकोण, हर न्याय आज जाति के तराज़ू पर तोला जाता है। जब तक समाज जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर न्याय-अन्याय के बीच अंतर करना नहीं सीखेगा, तब तक कुछ स्वार्थी और धूर्त लोग इस विभाजन की साज़िश में हमें अपनी सर्कस बनाते रहेंगे।

डॉ प्रियंका सौरभ

भारतीय समाज की जड़ें हजारों वर्षों पुरानी हैं। पर इन जड़ों में कई ऐसी गांठें भी हैं, जिन्होंने इंसानियत को बाँट दिया है। जाति का विचार शुरुआत में शायद एक सामाजिक संगठन का ढांचा था, पर समय के साथ यह व्यवस्था अन्याय, भेदभाव और शोषण का औजार बन गई। ऊँच-नीच की मानसिकता ने समाज को वर्गों में बाँट दिया और इस बंटवारे ने इंसान की पहचान को उसके कर्म से हटाकर उसकी जाति से जोड़ दिया।

जब कोई समाज अपने नैतिक विवेक को खो देता है, तब वह अन्याय को सामान्य मानने लगता है। यही आज की सबसे बड़ी समस्या है। जातीय सोच इतनी गहराई से हमारी मानसिकता में समा गई है कि लोग अन्याय को भी “अपनों के पक्ष में” देखकर सही ठहराने लगते हैं। किसी अपराधी की जाति अगर अपनी है, तो लोग उसे निर्दोष मान लेते हैं; और अगर पीड़ित किसी अन्य जाति का है, तो उसके दर्द के प्रति संवेदना गायब हो जाती है। यह वह बिंदु है जहां इंसानियत मर जाती है और जातिवाद जीत जाता है।

राजनीति ने जातिवाद को जीवित रखा है, बल्कि उसे हवा दी है। हर चुनाव में उम्मीदवारों की योग्यता नहीं, उनकी जातीय पहचान का हिसाब लगाया जाता है। नेता जानते हैं कि जातीय गोलबंदी उनकी सत्ता की नींव है, इसलिए वे समाज को एकजुट करने के बजाय बांटे रखना चाहते हैं। वोट के लिए जाति को हथियार बनाना सबसे खतरनाक प्रवृत्ति है, क्योंकि यह विभाजन न केवल लोकतंत्र की भावना को कमजोर करता है, बल्कि पीढ़ियों के मन में अविश्वास और घृणा बो देता है।

जातीय पूर्वाग्रहों से बाहर निकलने का सबसे सशक्त माध्यम शिक्षा है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शिक्षा का प्रसार भी कई बार समान अवसरों के बिना अधूरा रह जाता है। जब तक हर वर्ग को समान अवसर, समान मंच और समान सम्मान नहीं मिलेगा, तब तक जातीय सोच का अंत संभव नहीं है। सच्ची शिक्षा वही है जो मनुष्य को स्वतंत्र सोचने और दूसरों के दुःख को समझने की क्षमता दे।

मीडिया समाज का दर्पण होता है। पर जब दर्पण ही धुंधला हो जाए, तो सच्चाई कैसे दिखाई देगी? जातीय हिंसा या भेदभाव की खबरें अक्सर राजनीतिक दृष्टिकोण से तो दिखाई जाती हैं, पर उनमें इंसानियत की करुणा का अभाव होता है। जरूरत है कि मीडिया समाज में संवाद का माध्यम बने, न कि विभाजन का। पत्रकारिता का मूल धर्म है सत्य को सामने लाना — चाहे वह किसी जाति, वर्ग या धर्म के विरुद्ध क्यों न हो।

हर युग में कुछ ऐसे चालाक और धूर्त लोग रहे हैं जो समाज की कमजोरियों को भुनाते हैं। कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर — वे हमें बाँटकर अपनी कुर्सी और शक्ति को सुरक्षित करते हैं। हम वही जनता हैं जो उनके शो में दर्शक बन बैठे हैं। वे खेल दिखाते हैं, हम ताली बजाते हैं — और हर बार यह सर्कस चलता रहता है। अगर हम सच में बदलाव चाहते हैं, तो हमें दर्शक नहीं, निर्णायक बनना होगा।

न्याय का अर्थ तभी पूरा होता है जब वह बिना किसी पूर्वाग्रह के किया जाए। न्याय का कोई रंग, धर्म या जाति नहीं होती। समाज को चाहिए कि वह “हम बनाम वे” की मानसिकता से बाहर निकलकर “सबके लिए न्याय” की भावना को अपनाए। यही लोकतंत्र का आधार है। अगर हर व्यक्ति अपने स्तर पर जाति से ऊपर उठकर सोचने लगे, तो यह बदलाव किसी क्रांति से कम नहीं होगा।

जातिवाद केवल एक सामाजिक समस्या नहीं, बल्कि एक मानसिक गुलामी है। यह हमें विवेकहीन, असंवेदनशील और विभाजित बनाता है। आज समय की सबसे बड़ी मांग यही है कि हम अपने भीतर झाँकें और समझें कि असली पहचान हमारी जाति नहीं, बल्कि हमारा कर्म और हमारा चरित्र है। सदियों से जो दीवारें हमें बाँटती आई हैं, उन्हें तोड़ने की शुरुआत हमें खुद से करनी होगी। जब समाज न्याय के पक्ष में खड़ा होना सीख लेगा — बिना यह देखे कि पीड़ित या अपराधी किस जाति का है — तभी हम कह सकेंगे कि हमने सच्चे अर्थों में सभ्यता की ओर कदम बढ़ाया है। अन्यथा यह जातीय सर्कस यूँ ही चलता रहेगा, और हम अनजाने में उसके दर्शक बने रहेंगे।