ललित गर्ग
अंतरराष्ट्रीय संसदीय दिवस हर साल 30 जून को विश्व स्तर पर मनाया जाता है। यह दिवस लोकतांत्रिक सदनों की उन प्रक्रियों को सशक्त बनाने के लिए मनाया जाता है जिनके द्वारा सरकारें दुनिया भर के लोगों के रोजमर्रा के जीवन को बेहतर बनाती हैं, नवीन योजनाएं बनाती और उन्हें लागू करती है, राष्ट्र विकास, सुरक्षा एवं सुशासन को सुनिश्चित करती है। इस दिवस की शुरुआत वर्ष 2018 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव के माध्यम से की गई थी। भारतीय लोकतंत्र में संसद जनता की सर्वाेच्च संस्था है। इसी के माध्यम से आम लोगों की संप्रभुता को अभिव्यक्ति मिलती है। संसद ही इस बात का प्रमाण है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था में जनता सबसे ऊपर है, जनमत सर्वाेपरि है। संसदीय शब्द का अर्थ ही ऐसी लोकतंत्रात्मक राजनीतिक व्यवस्था है जहां सर्वाेच्च शक्ति जनता के प्रतिनिधियों के उस निकाय में निहित है जिसे हम संसद कहते हैं।
भारत की संसदीय प्रणाली दुनिया में लोकप्रिय एवं आदर्श है, बावजूद इसके सत्ता की आकांक्षा एवं राजनीतिक मतभेदों के चलते लगातार संसदीय प्रणाली को धुंधलाने की घटनाएं होते रहना दुर्भाग्यपूर्ण है। अब संसद की कार्रवाई को बाधित करना एवं संसदीय गतिरोध आमबात हो गयी है। संसद एक ऐसा मंच है जहां विरोधी पक्ष के सांसद आलोचना एवं विरोध प्रकट करने के लिये स्वतंत्र होते हैं, विरोध प्रकट करने का असंसदीय एवं आक्रामक तरीका, सत्तापक्ष एवं विपक्ष के बीच तकरार और इन स्थितियों से उत्पन्न संसदीय गतिरोध लोकतंत्र की गरिमा को धुंधलाने वाले हैं। अपने विरोध को विराट बनाने के लिये सार्थक बहस की बजाय शोर-शराबा और नारेबाजी की स्थितियां कैसे लोकतांत्रिक कही जा सकती है?
कितना दुखद प्रतीत होता है जब कई-कई दिन संसद में ढंग से काम नहीं हो पाता है। विवादों का ऐसा सिलसिला खड़ा कर दिया जाता है कि संसद में सारी शालीनता एवं मर्यादा को ताक पर रख दिया जाता है। विवाद तो संसद मंे भी होती हैं और सड़क पर भी। लेकिन संसद को सड़क तो नहीं बनने दिया जा सकता? वैसे, भारतीय संसदीय इतिहास में ऐसे अवसर बार-बार आते हैं, जब परस्पर संघर्ष के तत्व ज्यादा और समन्वय एवं सौहार्द की कोशिशें बहुत कम नजर आती है। स्पष्ट है कि यदि दोनों पक्ष अपने-अपने रवैये पर अडिग रहते हैं तो संसद का चलना मुश्किल ही होगा। संसद में हुड़दंग मचाने, अभद्रता प्रदर्शित करने एवं हिंसक घटनाओं को बल देने के परिदृश्य बार-बार उपस्थित होते रहना भारतीय लोकतंत्र की गरिमा से खिलवाड़ ही माना जायेगा। सफल लोकतंत्र के लिए सत्ता पक्ष के साथ ही मजबूत विपक्ष की भी जरूरत होती है। इस संसदीय सत्र में महिलाओं का संसद में प्रतिनिधित्व बढा है और 17वीं लोकसभा में 78 महिला जनप्रतिनिधि सांसद के तौर पर चुन कर संसद पहुंची हैं जो भारत में अब तक की सबसे बड़ी संख्या है, हालांकि पुरी दुनिया के संसदों में महिला सांसदों का हिस्सा 25 प्रतिशत है। इस लिहाज से भारत की संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी दुनिया के औसत से अभी भी कम है।
भारत के संदर्भ में अगर बात की जाए तो संसदीय लोकतंत्र काफी मजबूती से बीते 75 सालों में दुनिया के सामने आया है। साल 1889 में सांसदों के एक छोटे समूह के रूप में शुरू हुआ अंतर-संसदीय संघ आज संसदीय कूटनीति और संवाद के माध्यम से विश्वशांति को बढ़ावा देने के लिए समर्पित है। अंतर-संसदीय संघ का नारा ‘लोकतंत्र के लिए- सभी के लिए’ और लक्ष्य ‘लोकतंत्र और संसद द्वारा लोगों की शांति और विकास के लिए दुनिया की हर आवाज को सुना जाए’ है। वर्तमान परिदृश्य में संसदीय लोकतंत्र के लिहाज से अंतरराष्ट्रीय संसदीय दिवस का आयोजन काफी महत्वपूर्ण हो जाता है, जब लोग राजनीतिक संस्थानों में से विश्वास खोते जा रहे हैं। हम दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र के ऊपर नस्लीय, धार्मिक उन्माद, आतंकवाद और तानाशाही के खतरे को मंडराते देख रहे हैं। ऐसे में अगर दुनिया में लोकतंत्र को मजबूती से पनपाना है तो दुनिया भर की संसदों को लोकतंत्र की आधारशिला के रूप में मजबूत, पारदर्शी और जवाबदेह होने की जरूरत है।
अंतर-संसदीय संघ अपने इसी लक्ष्य की प्राप्त करने के लिए सभी देशों की संसद तथा सांसदों के बीच समन्वय और अनुभवों के आदान प्रदान को प्रोत्साहित करता है। अंतर-संसदीय संघ मानवाधिकारों की रक्षा और संवर्धन में योगदान देने के साथ ही प्रतिनिधि संस्थाओं के सुदृढ़ीकरण तथा विकास में भी अपना योगदान देता रहता है। दुनिया के सभी देशों के चुने हुए जनप्रतिनिधियों को एक ही छत के नीचे लाने की पहल 1870-1880 के दशक में शुरू हुई। अंतर-संसदीय संघ का मुख्यालय जिनेवा में है जो स्विट्जरलैंड में स्थित है। अंतर-संसदीय संघ सभी देशों के संसदों का वैश्विक संगठन है। भारत के आजादी के अमृतकाल की शुरुआत में नये संसद भवन का बनना एक ऐतिहासिक घटना है।
भारत के संविधान के अनुसार संघीय विधानमंडल को संसद कहा गया है। भारतीय संसद राष्ट्रपति और दोनों सदनों राज्यसभा और लोकसभा से मिलकर बनी है। संसद ही वह धुरी है, जो देश के शासन की नींव है। देश का भविष्य संसद के चेहरे पर लिखा होता है। यही से देश की समस्याओं का समाधान होता है। लेकिन वहां भी शालीनता एवं सभ्यता का भंग होता है तो समस्या सुलझने की बजाय उलझती जाती है। छोटी-छोटी बातों पर अभद्र शब्दों का व्यवहार, हो-हल्ला, छींटाकशी, हंगामा और बहिर्गमन आदि ऐसी घटनाएं हैं, जिनसे संसद जैसी प्रतिनिधि संस्था का गौरव घटता है। देश में नैतिकता के आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले आचार्य तुलसी ने संसद के गौरव को कायम रखने के लिये अणुव्रत संसदीय मंच बनाया, जो आजादी से अब तक निरन्तर अपना कार्य कर रहा है, चुने हुए सांसदों में से नैतिक निष्ठा वाले सांसद इस मंच से सक्रिय रूप से जुड़कर संसद में नैतिक मूल्यों को बल देते है एवं देश को नैतिक दृष्टि से सुदृढ़ बनाने के लिये संसद में समय-समय पर आवाज उठाते हैं। वर्तमान में इस मंच के संयोजक कानून मंत्री श्री अर्जुनराम मेघवाल है।
आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह- भारतीय राजनीति में ऐसे लोग गिनती के मिलेंगे जो इन तीनों स्थितियांे से बाहर निकलकर जी रहे हैं। पर जब हम आज राष्ट्र की विधायी संचालन में लगे अगुओं को देखते हैं तो किसी को इनसे मुक्त नहीं पाते। आजादी के अमृतकाल तक पहुंचने के बावजूद लोकतंत्र के सारथियों में परिपक्वता नहीं पनप पा रही हैं, साफ चरित्र जन्म नहीं ले पाया है, लोकतंत्र को हांकने के लिये हम प्रशिक्षित नहीं हो पाये हैं। उसका बीजवपन नहीं हुआ या खाद-पानी का सिंचन नहीं हुआ। आज आग्रह पल रहे हैं-पूर्वाग्रहित के बिना कोई विचार अभिव्यक्ति नहीं और कभी निजी और कभी दलगत स्वार्थ के लिए दुराग्रही हो जाते हैं। कल्पना सभी रामराज्य की करते हैं पर रचा रहे हैं महाभारत। महाभारत भी ऐसा जहां न श्रीकृष्ण है, न युधिष्ठिर और न अर्जुन। न भीष्म पितामह हैं, न कर्ण। सब धृतराष्ट्र, दुर्योधन और शकुनि बने हुए हैं। न गीता सुनाने वाला है, न सुनने वाला।
विपक्षी दल अनावश्यक आक्रामकता का परिचय देंगे तो सरकार उन्हें उसी की भाषा में जवाब देगी- कैसे संसदीय गरिमा कायम हो सकेगी। इसका सीधा मतलब है कि संसद में विधायी कामकाज कम, हल्ला-गुल्ला ज्यादा होता है। कायदे से इस अप्रिय स्थिति से बचा जाना चाहिए। यह एक बड़ा सच है कि संसदीय प्रक्रिया एक जटिल व्यवस्था है और इसे बार-बार परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। लोकतंत्र पहले भी बड़ी परीक्षाओं से गुजरकर निखरा है और लोगों को यही उम्मीद है कि अमृतकाल में भारतीय लोकतंत्र को हांकने वाले लोग परिवक्व होंगे, भारतीय लोकतंत्र इन दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण त्रासदियों से बाहर आयेगा। संसदीय लोकतंत्र की अपनी मर्यादाएं हैं, वह पक्ष-विपक्ष की शर्तांे से नहीं, आपसी समझबूझ, मूल्यों एवं आपसी सहमति की राजनीति से चलता है। एक तरह से साबित हो गया, भारतीय राजनीति में परस्पर विरोध कितना जड़ एवं अव्यावहारिक है। राजनीति की रफ्तार तेज है, लेकिन कहीं ठहरकर सोचना भी चाहिए कि लोकसभा, राज्यसभा में थोड़ा सा समय विरोध-प्रतिरोध के लिए हो और ज्यादा से ज्यादा समय देश के तेज विकास एवं देश निर्माण की चर्चाओं एवं योजनाओं में लगें। इसके लिये अंतरराष्ट्रीय संसदीय दिवस पर नये संकल्पों से प्रतिबद्ध होने की अपेक्षा है।