डॉ मनोज कुमार मिश्रा
राजनीतिक पार्टियां सत्ता पाने की लालसा में मुफ्त रेवड़ी की संस्कृति को अपनाने की ओर अग्रसर होती जा रही है। मुफ्त रेवड़ी से तात्पर्य है कि जनकल्याण की आड़ में देश की जनता को मुफ्त में कुछ देना या बांटना। चुनाव के समय राजनीतिक दलों की ओर से मतदाताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं, इन्हीं हथकंडों में मुफ्त की रेवढ़िया बांटना, राजनीतिक दलों की वर्तमान में सबसे प्रिय व आसान तरीका है। यह एक चुनावी बीमा की तरह है जिसका लाभ पार्टी को मिलना ही मिलना है। चुनाव के पूर्व सभी पार्टियां अपना घोषणा पत्र जारी करती है, इस घोषणापत्र में ऐसे वादे किए जाते हैं जिससे चुनाव जीतना आसान बन सके। घोषणा पत्र मे राजनीतिक पार्टियों में एक होड़ सी मच जाती है कि वह अपनी सरकार बनने के बाद देश की जनता को यह मुफ्त में देंगे वह मुफ्त में देंगे।
मुफ्त की घोषणाएं करना कोई नई अवधारणा नहीं है, ऐसा पहले भी होता रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2013 के एक अहम फैसले में चुनाव आयोग से कहा था, कि वह राजनीतिक दलों से बात करें तथा घोषणा पत्रों के संबंध में एक कानूनी गाइडलाइन तैयार करें। तब तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त ने राजनीतिक दलों की एक बैठक की, परंतु 6 राष्ट्रीय दलों के साथ 24 क्षेत्रीय दलों में से सभी ने घोषणा पत्र पर अंकुश संबंधी योजना का विरोध किया था। मुफ्त रेवड़ी का एक सकारात्मक पहलू यह हो सकता है कि सरकारें जो भी मुफ्त में बांटती हैं वह हमारा आप का दिया हुआ टेक्स ही होता है, और लोक कल्याण के लिए इसका एक हिस्सा यदि देश के लोगों पर खर्च किया जाता है तो वह क्या गलत है? यहां पर थोड़ा रुक कर यह समझने की आवश्यकता है कि आखिर लोक कल्याण के अंतर्गत क्या- क्या शामिल है? और मुफ्त रेवड़ी की संस्कृति में क्या -क्या शामिल है? लोक कल्याण के अंतर्गत स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, गरीबों को सस्ता अनाज, असहाय की सहायता, बुजुर्गों की सहायता, विकलांगों की सहायता, आदि को शामिल किया जाना चाहिए। किंतु मुफ्त में साइकिल, स्कूटी, मोबाइल, टीवी, जैसी वस्तुएं देकर तथा कर्ज माफ करके हम देश की जनता को नाकारा, कामचोर, आलसी व अपव्ययी तो नहीं बना रहे हैं। यह सोचने की आवश्यकता है । राजनीतिक स्वार्थ के लिए ऐसा करना बिल्कुल न्यायोचित नहीं है। देश के जनप्रतिनिधि जो लोकसभा -राज्यसभा -विधानसभा में जाते हैं, उनके लिए भी मुफ्त की रेवड़ी लेना उचित नहीं है। यह सवाल भी लगातार उठते रहते हैं और चर्चा का विषय बनते हैं, कि जनप्रतिनिधियों को मुफ्त की सुविधाएं क्यों मिल रहीं है ? जनता के यह सवाल लगातार बने रहते हैं।
मुफ्त देने की परिपाटी चूँकि चुनाव से पूर्व अधिक दिखाई देती है, अतः यह एक रिश्वत की पेशकश के रूप में पनप रही है जो कि वोट देने के बदले मे दी जा रही है। ऐसा लगता है कि राजा महाराजाओ या बादशाहों की तरह जनता को खैरात बांटी जा रही है। हमारे देश में गरीबी का लाभ उठाते हुए चुनावों से पहले मुफ्त की सौगात देने की वादों की शुरुआत लगभग चार दशक पूर्व हुई थी। सन 1982 में आंध्र प्रदेश राज्य मे तेलुगू देशम पार्टी के उभरने के बाद महिलाओं को मुफ्त धोती देने से लेकर दो रुपए किलो चावल देने के वादे किए गए थे। वास्तव में यह गरीब जनता का मजाक उड़ाने से ज्यादा कुछ नहीं है।
लोकतंत्र में सरकारों की जिम्मेदारी है कि वह गरीबों के आर्थिक स्तर को सुधारने का प्रयास करें ना कि उन्हें दया का पात्र बनाए रखने के तरीके खोजे। चुनाव के दौरान रेवड़ी मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है। कोर्ट को यह सूचित किया गया है कि सभी भारतीय राज्यों पर संयुक्त रूप से 70 लाख करोड़ से अधिक का कर्ज है। पंजाब में तीन करोड़ का कर्ज है। पंजाब की पूरी आबादी 3 करोड़ के आसपास है, इसका मतलब हर नागरिक पर करोड़ों का कर्ज है। अगर यही कल्चर चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे देश की अर्थव्यवस्था भी श्रीलंका की अर्थव्यवस्था की तरह ध्वस्त हो जाएगी। अतः अब आवश्यकता इस बात की है कि देश में पनप रहे इस प्रकार के कल्चर को रोका जाए तथा आवश्यक जनकल्याणकारी योजनाओं को छोड़कर मुफ्त की रेवड़ी बांटने की परंपरा को यहीं समाप्त किया जाए, तभी हमारी सुखी समृद्ध भारत की कल्पना पूर्ण होगी।
डॉ मनोज कुमार मिश्रा
असिस्टेंट प्रोफेसर,
शिक्षक शिक्षा विभाग( एम.एड)
एस.एस कॉलेज शाहजहांपुर।