
“हर लापता बेटी के साथ हमारी सोच की परीक्षा होती है — अफ़वाह नहीं, संवेदनशीलता ज़रूरी है”
हर लापता लड़की के साथ हमारी संवेदनशीलता और सिस्टम की परीक्षा होती है। अफ़वाहें, ताने और लापरवाह पुलिस जाँच अपराधियों के लिए सबसे बड़ी मददगार बन जाती हैं। जब तक पुलिस हर गुमशुदगी को गंभीर अपराध मानकर तुरंत कार्रवाई नहीं करेगी और समाज हर बेटी को सहानुभूति की नज़र से नहीं देखेगा, तब तक ऐसी त्रासदियाँ दोहराई जाती रहेंगी। सरकार को दिखावटी सुरक्षा छोड़कर थानों की मजबूती पर ध्यान देना होगा। लड़की की मौत एक चेतावनी है—अब धारणाएँ बदलनी ही होंगी।
डॉ. प्रियंका सौरभ
“लड़की अगर घर से लापता हुई है तो वह भागी ही होगी” — यह सोच केवल पुलिस की नहीं, बल्कि पूरे समाज की है। यही सोच एक लड़की की जान ले गई। जिस पुलिस को तुरंत उसकी तलाश करनी चाहिए थी, उसने मान लिया कि वह कहीं प्रेम प्रसंग के चलते भाग गई होगी। परिणाम यह हुआ कि अपराधियों को मौका मिल गया और एक मासूम ज़िंदगी समाप्त कर दी गई।
आज सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि बेटियों के लापता होने की शिकायत पर पुलिस की पहली प्रतिक्रिया “भाग गई होगी” और समाज की पहली प्रतिक्रिया “किसके साथ भागी होगी” होती है। दोनों ही स्थितियाँ अपराधियों के लिए ढाल बन जाती हैं। पुलिस थानों में गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवाने वाले परिवारों को अक्सर यही सुनने को मिलता है कि “थोड़ा इंतज़ार कीजिए, लड़की खुद लौट आएगी।” यानी शुरुआत से ही मामले को हल्का समझा जाता है। जब तक पुलिस सक्रिय होती है, तब तक कई बार अपराधी अपने मंसूबे पूरे कर चुके होते हैं। यह रवैया केवल लापरवाही नहीं, बल्कि जीवन के साथ खिलवाड़ है।
यह मान लेना कि हर लापता लड़की प्रेम-प्रसंग में भागी है, पुलिस की सोच का सबसे खतरनाक पहलू है। इससे अपराधियों को समय मिल जाता है और पीड़ित परिवार अपने ही समाज की तानों और शक की निगाहों का शिकार बनता है। हमारे गाँव, कस्बों और शहरों में जब भी कोई लड़की लापता होती है, तो अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो जाता है। लोग यह सोचने की बजाय कि वह कहीं अपराध की शिकार न हो गई हो, यह अनुमान लगाने लगते हैं कि वह किसके साथ भागी होगी। इस सोच से दोहरी चोट लगती है। एक ओर लड़की की इज़्ज़त को बेवजह बदनाम किया जाता है और दूसरी ओर परिवार सामाजिक कलंक से टूटने लगता है।
समाज को यह समझना होगा कि हर लड़की की सुरक्षा पूरे समुदाय की ज़िम्मेदारी है। किसी की अनुपस्थिति पर अफ़वाह फैलाना या दोषारोपण करना न केवल अमानवीय है, बल्कि अपराध को बढ़ावा देने वाला भी है। एक लड़की की मौत केवल एक परिवार का दुख नहीं है, बल्कि पूरे सिस्टम की विफलता का आईना है। पुलिस ने समय रहते खोजबीन की होती तो शायद वह आज ज़िंदा होती। समाज ने अफ़वाहों की बजाय संवेदनशीलता दिखाई होती तो परिवार को न्याय की लड़ाई में अकेला न रहना पड़ता। अब वह लड़की वापस नहीं आ सकती। लेकिन यह ज़रूरी है कि उसके हत्यारों को सख़्त सज़ा मिले और आने वाले समय में ऐसी त्रासदियाँ दोहराई न जाएँ।
आज पुलिस बल की सबसे बड़ी समस्या संसाधनों की कमी और प्राथमिकताओं की गड़बड़ी है। नेताओं की सुरक्षा में सैकड़ों जवान तैनात रहते हैं, जबकि थानों और चौकियों में फोर्स की कमी है। नतीजा यह होता है कि आम जनता की शिकायतों पर या तो देर से कार्रवाई होती है या बिल्कुल ही उपेक्षा कर दी जाती है। ज़रूरत है कि सरकार नेताओं को दिखावटी सुरक्षा देना बंद करे और हर थाने को पर्याप्त पुलिस बल मुहैया कराए। बेटियों से जुड़े मामलों में फास्ट रिस्पॉन्स सिस्टम लागू हो और जिलों के एसपी से मुख्यमंत्री रोज़ाना सुरक्षा व्यवस्था का फ़ीडबैक लें। जब तक सरकार प्राथमिकताओं में बदलाव नहीं लाएगी, तब तक बेटियाँ असुरक्षित रहेंगी और अपराधियों के हौसले बुलंद रहेंगे।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताज़ा रिपोर्ट इस संकट की गम्भीरता को और भी स्पष्ट करती है। वर्ष 2023 के आँकड़ों के अनुसार भारत में प्रतिदिन लगभग 90 महिलाएँ और लड़कियाँ लापता होती हैं। इनमें से कई कभी वापस नहीं लौट पातीं। वहीं हर साल हज़ारों मामले ऐसे दर्ज होते हैं जिनमें लापता लड़की हत्या, तस्करी या यौन शोषण का शिकार पाई जाती है। इसके बावजूद पुलिस थानों में पहला रवैया यही रहता है कि “भाग गई होगी।” यदि गुमशुदगी को शुरुआती चरण में ही गंभीर अपराध मानकर खोजबीन की जाए, तो इनमें से कई जानें बचाई जा सकती हैं। लेकिन हमारी सोच और व्यवस्था दोनों इस दिशा में बेहद ढीली और उदासीन हैं।
धारणा बदलना आसान काम नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं। जिस दिन पुलिस हर लापता लड़की को संभावित पीड़िता मानेगी, उसी दिन अपराधों पर लगाम लगेगी। जिस दिन समाज लड़की के गायब होने पर तानों और गॉसिप की बजाय सहानुभूति दिखाएगा, उसी दिन परिवारों का बोझ हल्का होगा। जिस दिन सरकार सुरक्षा को पॉलिटिकल शो-ऑफ़ की बजाय पब्लिक राइट मानेगी, उसी दिन व्यवस्था सुधरेगी।
आज हम नारे लगाते हैं— “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।” लेकिन जब कोई बेटी लापता होती है, तो हमारी सोच नारे से उलट साबित होती है। “बेटी बचाओ” का असली अर्थ तभी पूरा होगा जब हर शिकायत पर पुलिस त्वरित और गंभीर कार्रवाई करेगी। लड़की जैसी घटनाएँ हमें झकझोरती हैं कि सिर्फ़ भाषण और नारे काफ़ी नहीं हैं। हमें अपनी सोच और व्यवस्था दोनों बदलनी होंगी।
लड़की की मौत केवल एक त्रासदी नहीं, बल्कि एक चेतावनी है। यह चेतावनी है कि हमारी पुलिस की जाँच शैली बदलनी होगी, समाज को अपने पूर्वाग्रह छोड़ने होंगे और सरकार को अपनी प्राथमिकताएँ सुधारनी होंगी। वह लड़की लौट नहीं सकती, लेकिन अगर उसके हत्यारों को सज़ा मिले और उसकी मौत से सबक लेकर सिस्टम बदले, तो उसकी शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी। अब समय आ गया है कि हम सब मिलकर यह तय करें कि हर बेटी सुरक्षित है और उसकी गुमशुदगी को हल्के में लेने की कोई गुंजाइश नहीं है।