विदेश का सपना और युवा मानसिकता

The dream of foreign countries and the youth mindset

मुनीष भाटिया

आज के समय में युवाओं की सबसे बड़ी आकांक्षा विदेश जाकर पढ़ाई करने, नौकरी करने या वहाँ बसने की हो गई है। हर युवा चाहता है कि वह विदेश जाकर एक बेहतर भविष्य बनाए और समाज में प्रतिष्ठा हासिल करे। यह आकर्षण इतना गहरा है कि विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के ग्रामीण इलाकों में गाँव के गाँव खाली होते जा रहे हैं। खेत-खलिहान सूने पड़ते हैं, घरों में ताले लग जाते हैं और माता-पिता अपने बच्चों की परदेस जाने की चाहत पूरी करने के लिए ज़मीन-जायदाद तक बेच देते हैं।

विदेश आकर्षण के कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण यह सोच है कि विदेश जाकर ही समृद्ध और सम्मानजनक जीवन जीया जा सकता है। युवाओं को लगता है कि वहाँ कमाई अधिक होगी और जीवन सुविधाजनक होगा। जबकि सच्चाई यह है कि विदेश में जाकर हर किसी को उच्च पद या शानदार नौकरी नहीं मिलती। अधिकतर युवाओं को छोटे-मोटे काम करने पड़ते हैं – जैसे रेस्तरां में वेटर बनना, टैक्सी चलाना, फैक्ट्रियों में श्रमिक बनना या अन्य शारीरिक श्रम वाले कार्य करना। यही कार्य जब भारत में करने की बात आती है तो वे इसे ‘निम्न स्तर का काम’ मानकर शर्म महसूस करते हैं। लेकिन विदेश की चमक-दमक और वहाँ कमाए गए पैसों की विदेशी मुद्रा में कीमत देखकर वही काम उन्हें स्वीकार्य लगने लगता है।

यह विरोधाभास हमारे समाज और मानसिकता की कमजोरी को उजागर करता है। विदेश में रहकर थोड़ी बचत कर भी ली जाए तो उसका बड़ा हिस्सा जीवन-यापन के खर्च में चला जाता है। वहाँ घर किराए, बीमा, टैक्स, चिकित्सा और शिक्षा पर बहुत अधिक खर्च करना पड़ता है। मानसिक दबाव और संघर्ष भी बहुत बड़ा होता है। नई संस्कृति और भाषा में ढलना, परिवार से दूर रहना, अकेलेपन को सहना—ये सब चुनौतियाँ युवा को भीतर से तोड़ देती हैं।

इस प्रवृत्ति के सामाजिक और सांस्कृतिक असर भी गहरे हैं। जब युवा विदेश जाते हैं तो गाँवों में काम करने वाला हाथ घटता है। कृषि भूमि खाली पड़ी रहती है या ठेके पर दी जाती है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रौनक खो जाती है। सबसे बड़ी मार बुजुर्ग माता-पिता पर पड़ती है, जो अकेलेपन और असुरक्षा से जूझते हैं। कई बार तो माता-पिता वृद्धाश्रमों तक जाने को मजबूर हो जाते हैं। परिवारिक ताने-बाने में भी दरारें आती हैं क्योंकि विदेश बसे बच्चे धीरे-धीरे अपनी संस्कृति और जड़ों से कट जाते हैं।
अब सवाल यह है कि क्या विदेश जाना ही विकल्प है? भारत आज तेजी से विकसित हो रहा है। यहाँ अवसरों की कोई कमी नहीं है। स्टार्टअप संस्कृति युवाओं को नए-नए प्रयोग करने का मौका देती है। कृषि आधारित उद्योगों में असीम संभावनाएँ हैं, जो गाँवों को आत्मनिर्भर बना सकती हैं। आईटी, डिजिटल मार्केटिंग, ई-कॉमर्स और तकनीकी क्षेत्रों में युवाओं के लिए अनगिनत अवसर हैं। सरकार भी कौशल विकास योजनाओं और स्वरोजगार को बढ़ावा दे रही है। यदि युवा इन अवसरों का लाभ उठाएँ तो वे न केवल आर्थिक रूप से मज़बूत बन सकते हैं बल्कि अपने गाँव और देश की उन्नति में भी योगदान कर सकते हैं।
इसलिए ज़रूरी है कि मानसिकता बदली जाए। यदि कोई युवा विदेश में छोटे-मोटे काम कर सकता है तो वही काम वह अपने ही देश में क्यों नहीं कर सकता? फर्क केवल सोच और दृष्टिकोण का है। आत्मनिर्भरता, मेहनत और लगन से किए गए कार्य से ही वास्तविक सम्मान और संतोष मिलता है। युवाओं को यह समझना होगा कि अपनी मिट्टी से जुड़कर आगे बढ़ने में जो संतोष है, वह पराए देश में छोटे काम करके भी हासिल नहीं हो सकता।

आख़िरकार बदलाव सोच से शुरू होता है। हमें युवाओं को यह प्रेरणा देनी होगी कि वे अपने हुनर और क्षमता का इस्तेमाल अपने देश की उन्नति में करें। विदेश जाकर अकेले सपने पूरे करने से बेहतर है कि अपने गाँव और समाज को साथ लेकर समृद्धि की ओर बढ़ें। तभी भारत न केवल आर्थिक दृष्टि से सशक्त बनेगा बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी समृद्ध होगा।