प्रकृति के प्रकोप से अभिशप्त अन्नदाता

शिशिर शुक्ला

विगत कुछ दिवसों में हुई सतत एवं तीव्र वृष्टि का सर्वाधिक कुप्रभाव हमारे अन्नदाता अर्थात कृषक वर्ग पर पड़ा है। धान जैसी महत्वपूर्ण फसल के तबाह हो जाने से, कृषक सर्वत्र विलाप करता हुआ नजर आता है। यक्ष प्रश्न यह उठता है कि आखिरकार प्रतिक्षण एक तपस्वी की भांति अपनी साधना में रत रहने वाले कृषक की दुर्दशा एवं उसकी लंबी अवधि की कठोर मेहनत पर पानी फिर जाने के पीछे जिम्मेदार कौन है? क्या इस आपदा को दुर्भाग्य के खाते में डालकर मौन हो जाना चाहिए अथवा इसे प्रकृति का प्रकोप मानकर भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति से बचने हेतु सचेत हो जाना चाहिए। स्वयं अपनी आंखों से अपने अथक परिश्रम को प्रकृति की विनाशकारी लीला का शिकार बनते हुए देख रहे किसान को आखिर क्या करना चाहिए?

भारत एक ऐसा देश है जहां की 70 प्रतिशत आबादी गांवों में निवास करती है। यही कारण है कि गांवों को भारत की आत्मा कहा जाता है। गांवों में रहने वाली इस जनसंख्या की आजीविका का साधन मुख्यतः कृषि है। भारतीय अर्थव्यवस्था प्राचीन काल से ही कृषि पर निर्भर रही है। यद्यपि तकनीकी के उन्नयन से भारत में औद्योगिकरण की बयार अस्तित्व में आई किंतु कृषि की जड़ें भारत में इतनी सशक्त हैं कि औद्योगीकरण के लिए कृषि को उखाड़ पाना एक असंभव कार्य है और सदैव रहेगा। इसका एक मुख्य कारण यह है कि कृषि ही उद्योगों की जननी है। औद्योगिक तंत्र की सफलता हेतु कच्चे माल सहित विविध आवश्यकताएं कृषि से ही पूरी होती हैं। भारतीय कृषि सफलता हेतु पूर्णतया श्रम पर निर्भर है। भारतीय कृषक विश्व के अन्य कृषकों से सर्वथा भिन्न है। त्याग, तपस्या, कर्तव्यनिष्ठा, लगन एवं ईमानदारी की सच्ची छवि के दर्शन भारतीय कृषक में होते हैं। भारतीय कृषक का जीवन एक ऐसी सतत साधना है जिसमें विश्राम हेतु कोई स्थान नहीं है। संतोष का धनी भारतीय कृषक स्वयं की लेशमात्र भी परवाह न करते हुए समाज व राष्ट्र की क्षुधा को शांत करने हेतु नि:स्वार्थ कर्म करता रहता है। यह एक मर्मस्पर्शी कटु सत्य है कि भारतीय कृषक अभाव में ही जन्म लेता है, अभाव में ही जीवनयापन करता है एवं अभाव में ही इस संसार से विदा हो जाता है। भारत में कृषि 80 प्रतिशत जनसंख्या की रोजी-रोटी एवं रोजगार का साधन है। यहां कृषि का स्वरूप अन्य देशों की भांति व्यावसायिक न होकर जीवन निर्वाह, उदरभरण एवं राष्ट्र कल्याण की भावना से युक्त है। भारत का किसान भूमि के साथ-साथ भारत की संस्कृति एवं सभ्यता का भी संरक्षक एवं पोषक है। भारत में कृषि एक व्यवसाय न होकर एक परंपरा है एवं संभवत: इसी कारण कृषक को अन्नदाता कहकर सम्मानित किया जाता है। भूमि से कृषक का भावनात्मक लगाव होता है। भारत का किसान कृषि को राष्ट्रीय सेवा मानता है और यही कारण है कि अनेक बाधाएं भी उसे अपने कर्म से डिगा नहीं पाती हैं। भारतीय कृषि में नैतिकता एवं मानवीय मूल्य समाहित हैं। लहलहाती हुई फसलों के पीछे निस्संदेह कृषक के श्रम व स्वेद का ही योगदान होता है। एक अन्य महत्वपूर्ण व अनिश्चित कारक जिस पर भारतीय कृषि की सफलता आधारित है, वह है मानसून।

अपने दायित्वों के निर्वहन हेतु किसान निरंतर संघर्षरत रहते हुए खेतों में पसीना बहाता रहता है। कृषि से अनुरक्ति एवं उसे नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए, वह कभी अपने तन को तपाता है, तो कभी भिगोता है, तो कभी कड़ाके की ठंड से ठिठुरता हुआ दिखाई देता है। श्रम में कोई कोताही न बरतते हुए किसान पानी के लिए टकटकी लगाकर आकाश की ओर निहारता है किंतु अपने अगणित उपकारों के बदले उसे प्रकृति के प्रकोप के विविध रूप, यथा- सूखा, अतिवृष्टि, बाढ़ इत्यादि का सामना करना पड़ता है। यद्यपि जीवन को प्रतिकूलत: प्रभावित करने वाली एवं अकस्मात अल्प समय में व्यापक विनाश करने वाली आपदाओं से संपूर्ण विश्व प्रभावित है। किंतु यह एक कटुसत्य है कि ये आपदाएं निश्चित रूप से तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन एवं प्रकृति के साथ मानव के बढ़ते हस्तक्षेप से जनित प्रकृति का ही प्रकोप हैं। एक सीमा से परे प्रकृति की अनदेखी करने से, रुष्ट प्रकृति का विनाशकारी तांडव शुरू होता है, जिसके आगे मानव असहाय एवं बेबस नजर आता है और मानवता कराह उठती है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आपदाओं एवं जलवायु असंतुलन हेतु मानव ही उत्तरदायी है। प्रकृति से यह खिलवाड़ करता तो कोई और है किंतु प्रकृति का दंड बेचारे अन्नदाता को भुगतना होता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार 1990 के बाद प्रतिवर्ष दस हजार से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ऋणग्रस्तता तथा प्राकृतिक आपदाओं एवं विभिन्न प्रतिकूल परिस्थितियों के जंजाल में जकड़ा हुआ किसान शनैःशनैः आत्महत्या करने पर मजबूर होता जा रहा है। लाचार एवं विवश किसान की स्थिति धीरे-धीरे बद से बदतर होती जा रही है।

वर्तमान में असमय व अतिवृष्टि ने फसल को बर्बाद करके किसान को आर्थिक, सामाजिक एवं मानसिक रूप से झकझोर दिया है। वर्षा की अनिश्चितता के कारण, पहले तो किसान के द्वारा अपने संसाधनों के आधार पर आर्थिक नुकसान उठाकर सिंचाई करके फसल तैयार की जाती है और जब पानी की आवश्यकता नहीं होती है तो अतिवृष्टि के रूप में प्रकृति का प्रकोप किसान की उसी मेहनत को पूर्णतया चौपट कर देता है। इसी अनिश्चितता के कारण किसान की स्थिति दिन प्रतिदिन गिरती जा रही है और वह निराशावादी एवं भाग्यवादी बनता जा रहा है। भारतीय कृषि एवं कृषक को नाना प्रकार की समस्याओं ने जकड़ रखा है। किसान की प्रगति एवं खुशहाली के लिए जरूरी है कि कृषि की समस्याओं का निराकरण छोटे से लेकर बड़े स्तर तक हो। त्रासदी की पीड़ा को वही समझ सकता है जिसने उसे अनुभव व सहन किया हो। आपदा की वैतरणी केवल कागजी घोड़े पर सवार होकर पार नहीं हो सकती बल्कि इसके लिए एक सक्रिय पहल की आवश्यकता है। भारत को एक सशक्त एवं विकसित राष्ट्र के रूप में देखने की कल्पना तभी साकार हो पाएगी जब भारत का किसान अर्थात अन्नदाता खुशहाल एवं विकसित होगा एवं हम गर्व से कह सकेंगे -जय किसान।