तनवीर जाफ़री
क़लम के सिपाही के नाम से प्रसिद्ध तथा कहानीकार के रूप में भारतीय समाज पर अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले मुंशी प्रेमचंद ने कहा था कि -‘लिखते तो वे लोग हैं जिनके अंदर कुछ दर्द है,अनुराग है.लगन है विचार है, जिन्होंने धन और भोग विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया है वह क्या लिखेंगे ? मुंशी प्रेमचंद देश की स्वाधीनता से 11 वर्ष पूर्व ही 8 अक्टूबर 1936 को मात्र 56 वर्ष की आयु में ही इस दुनिया को अलविदा कह गए थे। उनके दौर के पराधीन भारत में निश्चित रूप से लेखनी की ज़रूरतें कुछ और ही रही होंगी। परन्तु उस समय भी उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से देश के शोषित,वंचित व पीड़ित वर्ग की आवाज़ बुलंद करने की पूरी कोशिश की। उनकी कहानियों की मार्मिकता उसकी भाषा व शैली ऐसी होती थी कि कोई भी सह्रदयी पाठक उन्हें पढ़कर अश्कबार हो जाया करता था। लेखन तो आज भी हो रहा है और मुंशी प्रेमचंद के समय से कई गुना अधिक लेखक आजकल सक्रिय हैं। परन्तु वर्तमान लेखन प्रायः पक्षपात पूर्ण,विद्वेष पूर्ण,पूंजीवाद को बढ़ावा देने वाला,सत्ता की चाटुकारिता करने वाला तथा लेखन जैसे पवित्र व ईमानदाराना पेशे को भी धन और भोग विलास का माध्यम बनाने वाला बनकर रह गया है। पहले जहाँ लेखक एक अलग वर्ग हुआ करता था वहीँ आजकल प्रधानमंत्री से लेकर सत्ता से जुड़ा शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा हो जो लेखक बना न बैठा हो। सब का एक ही काम है। या तो प्रधानमंत्री के क़सीदे पढ़ना या सत्ता का गुणगान करना। आश्चर्य तो इस बात का है कि जिनलोगों के पास प्रधानमंत्री,मंत्री व राजयपाल जैसे पदों की ज़िम्मेदारी हो और जनता के करोड़ों रूपये उनपर ख़र्च होते हों उन्हें लेखन का समय आख़िर मिलता ही कैसे है ? परन्तु यह सब कुछ इसी एकमात्र उद्देश्य के तहत किया जा रहा है ताकि सत्ता व सत्ताधीशों के गुणगान के शोर शराबे में शोषित,वंचित व पीड़ित वर्ग की आवाज़ को दबाने का प्रयास किया जाये।
वास्तविक व ज़िम्मेदाराना लेखन की ज़रूरतों को महसूस करते हुये ही शायद मुंशी प्रेमचंद ने लखनऊ में 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। उनका मानना था कि ‘ साहित्यकार का मक़सद केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है- उसका दरजा इतना न गिराइये। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है.’ उनके दौर में भी साम्प्रदायिकता, नफ़रत फैलाने और देशवासियों को धर्म व जाति के नाम पर बाँटने का काम कर रही थी। वे इन ख़तरों के विराट स्वरूप से भी शायद उसी समय बाख़बर भी थे। तभी वे स्वराज के रास्ते में साम्प्रदायिक नफ़रत को बहुत बड़ी बाधा मानते थे। प्रेमचंद साम्प्रदायिकता को समाज का एक ऐसा कोढ़ समझते हैं जो अपना छोटा सा दायरा बना कर सभी को उससे बाहर निकाल देती है.’ उस दौर में प्रेमचंद की बातें आज कितनी प्रासंगिक हैं उनके इन विचारों से पता चलता है। वे कहते थे कि ‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है. उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह संस्कृति का ख़ोल ओढ़कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को क़यामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं। यह भूल गए हैं, कि अब न कहीं मुस्लिम संस्कृति है, न कहीं हिन्दू संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। ‘अब संसार में केवल एक ही संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति …’इसी तरह संस्कृति और धर्म के घालमेल को लेकर भी उनका मत स्पष्ट था। वे कहते थे , ‘संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है लेकिन ईसाई संस्कृति और मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज़ नहीं है…’
मुंशी प्रेमचंद की मानवतावादी सोच को आगे बढ़ाने वाले व उन्हीं के द्वारा सिंचित ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का तीन दिवसीय 18 वां राष्ट्र्रीयअधिवेशन पिछले दिनों मध्य प्रदेश की ‘संस्कारधानी ‘ के नाम से प्रसिद्ध हरी शंकर परसाई के शहर जबलपुर में संपन्न हुआ। देश के लगभग सभी प्रांतों से आये हुए लेखक,चिंतक,विचारक,कवि व कलाकारों ने इस अवसर पर देश के समक्ष मौजूद साम्प्रदायिकता,जातिवाद व पूंजीवाद जैसी चुनौतियों के प्रति अपनी गहन चिंता व्यक्त की। संघ के सदस्यों ने जबलपुर घोषणा पत्र जारी किया जिसमें स्वाधीनता आंदोलन द्वारा संजोयी गई संविधान संरक्षित समता, समानता और धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र के मूल्यों को बचाने का संकल्प लिया। अधिवेशन में शायद ही कोई वक्ता ऐसा रहा हो जिसने साम्प्रदायिकता की आग में जलते हुए मणिपुर और हरियाणा के मेवात के नूह क्षेत्र में फैलाई गयी साम्प्रदायिक हिंसा का उल्लेख न किया हो।’प्रगतिशील लेखक संघ’ ने घोषणा पत्र में हिंदुत्ववादी राजनीति के पूंजीवादी संस्थानिक और निगमीय शक्तियों के साथ बन चुके सीधे गठबंधन पर भी अपनी गहन चिंता जताई। देश की अस्सी करोड़ से अधिक जनता न्यूनतम जीवन यापन सुविधाओं के लिए संघर्षरत है। शिक्षा एवं चिकित्सा संबंधी दायित्वों से राज्य ने अपना पल्ला झाड़ लिया है। मध्यवर्ग भी अनावश्यक और अत्याधिक करारोपण व पेंशन सुविधाओं से वंचित होने से परेशान हाल है। बेरोज़गारी अपने चरम पर है, आर्थिक असमानता की खाई और गहरी हुई है। वर्तमान पीढ़ी का भविष्य भी संकट में है। संविधान द्वारा संकल्पित कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का परित्याग कर समूचे देश को एक व्यावसायिक परियोजना में तब्दील किया जा रहा है। न्यायिक व चुनाव आयोग सरीखी अन्य संवैधानिक संस्थाओं को निशाने पर लेकर उन्हें कमज़ोर किया जा रहा है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बड़े हिस्से को निष्प्रभावी और पालतू बनाया जा चुका है। सोशल मीडिया भी अब कड़े नियंत्रण में है। साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था का अनुगमन कर वैकल्पिक तथा स्वतंत्र नीतियों वाले राज्य की भूमिका का परित्याग कर दिया गया है। और इन सब मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने के लिये गोरक्षा, लव जेहाद, हिजाब, गंगा, गीता सरीखे भावनात्मक मुद्दों को उछाला जा रहा है। समाज को धर्म, जाति व निजी विश्वासों के आधार पर विभक्त करने के सारे हथकंडे अपनाये जा रहे हैं, जिस पर सत्ता की तरफ़ से कोई अंकुश तो दूर, प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन ही नज़र आता है। असहमति और प्रतिरोध की आवाज़ों को अर्बन नक्सल टुकड़े टुकड़े गैंग,अवार्ड वापसी गैंग सरीखे नकारात्मक नामों से लांछित करते हुए उनके बारे में तमाम झूठ फैलाए जा रहे हैं।
जिस तरह शोध संस्थाओं, उच्च शिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों आदि में ज्ञानार्जन व स्वतंत्र बौद्धिक संवाद का वातावरण प्रदूषित कर उन्हें संकीर्ण, एकल प्रभुत्ववादी सोच में ढालने का प्रयास किया जा रहा है। साथ ही भारतीय समाज की बहुभाषी, बहुलतावादी व समावेशी संस्कृतिक सम्पदा की अनदेखी कर उसे एकांगी बनाया जा रहा है। बुद्ध, बसवन्ना और कबीर की परंपरा को मिटाया जा रहा है। गांधी, नेहरू व अम्बेडकर सरीखे राष्ट्र नायकों की छवि को संदर्भ च्युत कर धूमिल किया जा रहा है। ऐसे में निःसंदेह शोषित ,वंचित व पीड़ित वर्ग की आवाज़ बुलंद करना साहित्य लेखन का प्रथम दायित्व बन जाता है।