स्वार्थ की सिलवटें

the folds of selfishness

चेहरों पर मुस्कानें हैं,
पर दिलों में दूरी है।
रिश्ते हैं बस नामों के,
हर सूरत जरूरी है।

हर एक ‘कैसे हो’ के पीछे,
छुपा होता है सवाल,
“तुमसे क्या हासिल होगा?”,
नहीं दिखता कोई हाल।

ईमान यहाँ बोली में है,
नीलाम हर मज़बूरी है।
जो बिक न सका आज तलक,
कल उसकी मजबूरी है।

धर्म, जात, सियासत सब,
अब सौदों की भाषा हैं,
बिकते हैं आदर्श यहाँ,
जैसे रोज़ की आशा हैं।

माँ-बेटा, भाई-बहन,
अब संबंध नहीं भाव हैं,
वसीयत के दस्तख़त बनकर,
टूट गए जो चाव हैं।

जब तक मतलब चलता है,
तब तक ‘तू मेरा अपना’,
जैसे ही बोझ बने,
कहते हैं – “अब तू सपना।”

पर कहीं किसी कोने में,
अब भी कोई रोता है।
बिना मतलब, बिना चाहत,
किसी को बस खोता है।

शायद वहीं से जन्म होगा,
फिर से रिश्तों का मौसम,
जहाँ दिल से दिल मिलेंगे,
न हो कोई सौदा हरदम।

— डॉ सत्यवान सौरभ