सरकार की नाकामी का नतीजा है नेपाल में जेन-ज़ी की बग़ावत

The Gen-Zi rebellion in Nepal is the result of government's failure

राजेश जैन

नेपाल ने 4 सितंबर को जब सोशल मीडिया पर बैन लगाया, तो शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह फैसला सत्ता बदलने की वजह बनेगा। लेकिन यही हुआ।

युवाओं ने स्कूल यूनिफॉर्म और बैग के साथ सड़कों पर उतरकर इसे सिर्फ़ डिजिटल हक़ का मुद्दा नहीं रहने दिया, बल्कि इसे करप्शन और पुरानी राजनीति के खिलाफ़ बगावत बना दिया। आंदोलन’ के दौरान प्रदर्शनकारियों ने संसद भवन में आग लगा दी। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और गृहमंत्री के आवासों में तोड़फोड़ और आगजनी हुई। पूर्व पीएम शेर बहादुर देउबा को घर में घुसकर पीटा गया। वित्त मंत्री विष्णु पोडौल को काठमांडू में उनके घर के पास दौड़ा-दौड़ाकर पीटा गया। पूर्व पीएम झलनाथ खनाल के घर में आग लगने से उनकी पत्नी राज्यलक्ष्मी चित्रकार की मौत हो गई और अंततः हालात इतने बिगड़े कि प्रधानमंत्री केपी ओली इस्तीफा देकर हेलिकॉप्टर से भाग निकले।

ऐसे भड़की बगावत की चिंगारी

ताज़ा घटनाक्रम की शुरुआत 4 सितंबर को हुई, जब सरकार ने सोशल मीडिया पर बैन लगाया। इसके बाद हामी नेपाल नामक एनजीओ चलाने वाले सुडान गुरुंग ने इंस्टाग्राम पर युवाओं से स्कूल यूनिफॉर्म और बैग लेकर सड़कों पर उतरने की अपील की। 8 सितंबर को संसद भवन के सामने विरोध शुरू हुआ।
लेकिन आंदोलन केवल सोशल मीडिया बैन तक सीमित नहीं रहा। हामी नेपाल की पोस्ट में साफ लिखा था – “एक लंबे अरसे से करप्शन ने हमारे सपनों, भविष्य और देश की गरिमा को खत्म कर दिया है। नेता अमीर होते जा रहे हैं और आम लोग जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन अब और नहीं।”

राजनीतिक असंतोष की पृष्ठभूमि

नेपाल 1990 के दशक से लगातार राजनीतिक उथल-पुथल का गवाह रहा है। पहले राजशाही, फिर संवैधानिक राजशाही और बाद में लोकतांत्रिक व्यवस्था आई, लेकिन भ्रष्टाचार कभी खत्म नहीं हुआ। 75-80 साल के बुज़ुर्ग नेता लगातार सत्ता में बने रहे। टॉप पदों पर कोई युवा नेता नहीं उभरा। ऐसे में सोशल मीडिया बैन ने बारूद के ढेर में चिंगारी डालने का काम किया।

नेपाल का यूथ कल्चर और मीडिया हमेशा से सक्रिय रहा है। वहां रेडियो स्टेशन, स्टूडेंट कम्युनिटीज़ और सड़क पर उतरने की परंपरा मज़बूत है। इस बार के प्रदर्शन में माओवादी, नए नेताओं की पार्टियां और हिंदू राष्ट्रवादी समूह भी शामिल हो गए। कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक, नेपाली संघ और अमेरिका नेपाल हेल्पिंग सोसाइटी जैसे संगठनों ने इस आंदोलन को बढ़ाने में भूमिका निभाई। स्टूडेंट्स को आगे रखा गया, बाद में रवि लामिछाने जैसे नेता भी इसमें कूद पड़े। हालांकि, कई जानकार बाहरी ताकतों की भूमिका भी मानते है पर कुछ उसको केवल अटकल मानते हैं। असली वजह करप्शन और जनता का गुस्सा ही था। ओली सरकार ने प्रदर्शन को दबाने के लिए गोली चलवाई, जिसमें 22 लोगों की मौत और 400 से ज्यादा लोग घायल हुए। युवाओं पर गोली चलने की खबर फैलते ही आंदोलन और हिंसक हो गया।

ओली के इस्तीफे के बाद सत्ता का सवाल

नेपाल की प्रतिनिधि सभा में 275 सीटें हैं और बहुमत के लिए 138 सीटें चाहिए। 2022 चुनाव में नेपाली कांग्रेस को 88, ओली की कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल ) को 79 और प्रचंड की माओवादी पार्टी को 32 सीटें मिली थीं। जुलाई 2024 में सत्ता समीकरण बदलकर ओली फिर प्रधानमंत्री बने, लेकिन अब जनता का गुस्सा केवल ओली पर नहीं, बल्कि सभी पुराने नेताओं – देउबा, प्रचंड और खनाल – पर है। इसलिए सत्ता कौन संभालेगा, यह अनिश्चित है। अब नेपाल में अंतरिम सरकार बनेगी। चर्चाओं में दो नाम आगे हैं –टीवी एंकर से नेता बने रवि लामिछाने (50) 2022 में उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री रह चुके हैं। युवाओं में पॉपुलर हैं और प्रोटेस्ट को खुला समर्थन दे चुके हैं। दूसरा नाम बालेंद्र शाह (बालेन) (35) का है। वे काठमांडू के मेयर और गायक से राजनेता बने हैं। शाह युवाओं के बीच करिश्माई छवि रखते हैं। इसके अलावा राजेंद्र लिंगदेन, कमल थापा और उपेंद्र यादव जैसे नेता भी संभावनाओं में बताए जा रहे हैं।

भारत-नेपाल रिश्तों पर असर

ओली भारत समर्थक नहीं माने जाते थे, लेकिन उनके जाने से नई सरकार का झुकाव भारत की ओर होगा, यह कहना भी मुश्किल है। दरअसल, नेपाल की अगली सरकार में अमेरिकन लॉबी वाले चेहरों के आने की संभावना है। ऐसे में सीमा विवाद और गहरा सकता है। भारत के लिए यह स्थिति चुनौतीपूर्ण होगी।

क्या भारत में दोहराया जा सकता है नेपाल जैसा आंदोलन

नेपाल में असली वजह नेताओं का भ्रष्टाचार और बेरोजगारी थी, सोशल मीडिया बैन केवल चिंगारी। यही हालात श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान और म्यांमार में भी देखे गए। यहां युवाओं की तुलना पश्चिम से होती है और गुस्सा भड़कता है। भारत में भी युवा नाराज़ होते हैं, लेकिन उनके पास पॉलिटिकल स्पेस है। वोटदेकर सरकार बदलने का विकल्प यहां मौजूद है जबकि नेपाल जैसे देशों में विपक्ष भी सत्ता का हिस्सा बनकर जनता की उम्मीदें तोड़ चुका था।