अजय कुमार
कर्नाटक सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यक्रमों पर रोक लगाने का फैसला उलटा पड़ गया है। कर्नाटक हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को फटकार लगाते हुए उसका आदेश पलट दिया है। यह फैसला कर्नाटक की राजनीति और शासन की दिशा पर बड़ा संकेत देता है। बता दें, आरएसएस के कार्यक्रमों पर रोक लगाने के कर्नाटक सरकार के आदेश को हाईकोर्ट ने आज न सिर्फ खारिज किया बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि राज्य सरकार के पास ऐसा करने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है। जस्टिस एम. नागाप्रसन्ना की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि सरकार और पुलिस प्रशासन यह बताने में विफल रहे कि उन्हें यह अधिकार किस प्रावधान से मिला कि वे किसी संगठन को सार्वजनिक रूप से कार्यक्रम आयोजित करने से रोक दें। अदालत ने फिलहाल एक अंतरिम आदेश जारी कर इस रोक पर स्टे लगाया है और राज्य सरकार को नोटिस भेजकर जवाब मांगा है।
मामला तब शुरू हुआ जब 18 अक्टूबर को कांग्रेस शासित कर्नाटक सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर कहा था कि बिना इजाजत 10 से ज्यादा लोगों का किसी भी सार्वजनिक स्थल पर एकत्र होना अपराध माना जाएगा। साथ ही निर्देश दिया गया था कि सड़कों, पार्कों और खेल के मैदानों में यदि लोगों का समूह बिना अनुमति के इकट्ठा होता है तो पुलिस को कार्रवाई करनी चाहिए। इस आदेश के बाद राज्य के कई जिलों में आरएसएस की शाखा और सामाजिक गतिविधियों पर रोक लगाने की कोशिशें की गई थीं। प्रशासन ने तर्क दिया था कि इन कार्यक्रमों से कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है और संभावित विवादों को रोकने के लिए यह कदम जरूरी था। आरएसएस और उससे जुड़े कार्यकर्ताओं ने इस आदेश को पूर्णतः भेदभावपूर्ण बताते हुए इसे अदालत में चुनौती दी। उनका कहना था कि यह कदम केवल एक विचारधारा को दबाने की मंशा से उठाया गया है। आरएसएस की दलील थी कि वे पिछले सात दशक से सामाजिक, शैक्षणिक और राष्ट्रीय एकता के कार्यक्रम आयोजित करते आए हैं और इनमें किसी तरह की हिंसा या अव्यवस्था का कोई उदाहरण नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि यह आदेश संविधान प्रदत्त सभा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध है।
हाईकोर्ट ने अपनी सुनवाई के दौरान सरकार से यह स्पष्ट करने को कहा कि किस आधार पर किसी संगठन की गतिविधियों पर इस प्रकार की पूर्ण रोक लगाई जा सकती है। अदालत ने टिप्पणी की कि ऐसा आदेश मनमाने तरीके से नागरिक अधिकारों पर आघात करता है और प्रशासन को यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र में सरकार भी संविधान के अधीन है। अदालत ने कहा कि यदि किसी सभा से शांति व्यवस्था का विशिष्ट खतरा हो तो पुलिस कानून के अनुसार उसे प्रतिबंधित कर सकती है, लेकिन किसी समूह को स्थायी रूप से गतिविधियां रोकने का निर्देश देना असंवैधानिक है। सरकार की ओर से महाधिवक्ता ने तर्क दिया कि यह निर्णय कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए था, क्योंकि कुछ इलाकों में सांप्रदायिक तनाव की घटनाएँ हुई थीं। मगर अदालत ने माना कि सामान्य स्थिति में सभी संगठनों को समान अधिकार प्राप्त हैं और केवल आशंका के आधार पर इस तरह की नीति लागू नहीं की जा सकती। जस्टिस नागाप्रसन्ना ने आदेश देते हुए कहा कि ऐसी रोक निरंकुश शासन की दिशा में पहला कदम बन सकती है। इसलिए जब तक सरकार कोई ठोस संवैधानिक या कानूनी औचित्य नहीं बताती, आदेश अमान्य माना जाएगा।
राज्य की कांग्रेस सरकार पर विपक्ष ने भी निशाना साधा है। भारतीय जनता पार्टी और अन्य संगठन इसे ‘विचारधारा पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश’ बता रहे हैं। भाजपा नेताओं ने कहा है कि कांग्रेस सरकार अपने राजनीतिक एजेंडे के तहत संघ जैसी राष्ट्रवादी संस्थाओं को निशाना बना रही है, जिन्हें देश के सांस्कृतिक और सामाजिक ढांचे की नींव कहा जाता है। वहीं सामाजिक संगठनों ने भी सरकार से पूछा है कि क्या वह भविष्य में अन्य समुदाय आधारित कार्यक्रमों या धार्मिक सभाओं पर भी इसी तरह की पाबंदी लगाएगी। इस पूरे घटनाक्रम से यह संदेश गया है कि राज्य में विधि के शासन और राजनीतिक मंशा के बीच टकराव की स्थिति बनती जा रही है। आरएसएस के कार्यक्रमों पर रोक लगाने का फैसला केवल प्रशासनिक नहीं बल्कि वैचारिक प्रकृति लिए हुए था, जिसे अदालत ने तुरंत पहचान लिया। अदालत की अंतरिम राहत ने शासन को यह याद दिलाया कि लोकतंत्र में कोई भी सरकार नागरिकों की मूल स्वतंत्रताओं को सीमित नहीं कर सकती।
बहरहाल, यह मामला अब व्यापक राजनीतिक विमर्श का विषय बन गया है। जहां एक तरफ सरकार अपनी सुरक्षा व्यवस्था और प्रशासनिक अधिकारों की बात करती है, वहीं दूसरी तरफ नागरिक संस्थाएं और विपक्ष इसे लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के खिलाफ बताते हैं। हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी ने इस बहस को और तेज कर दिया है। अब देखना यह होगा कि राज्य सरकार इस मामले में क्या जवाब दाखिल करती है और क्या उसका आदेश अदालत की अगली सुनवाई में ठहर पाता है या नहीं। लेकिन आज के आदेश ने साफ कर दिया है कि बिना संवैधानिक अधिकार के इस तरह की रोक लगाना सत्ता के दुरुपयोग की श्रेणी में आता है और न्यायपालिका ऐसा कदम कभी स्वीकार नहीं करेगी।





