रील्स की मायावी दुनिया व साहित्य

The illusory world of reels and literature

विजय गर्ग

इन दिनों रील्स और उसके कंटेंट की अच्छे और बुरे कारणों से खूब चर्चा होती रहती है। आजकल रील्स देखना बहुत ही लोकप्रिय होता जा रहा है। चकित करने वाली बात यह है कि रील्स के विषयों का फलक इतना व्यापक है कि वो किसी को भी घंटों तक रोके रख सकता है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि रील्स में दिखाई गई बातों को सत्य माना जाने लगा है। रील्स की दुनिया में भविष्यवक्ताओं की बाढ़ आई हुई है। कोई आपके नाम के आधार पर तो कोई आपके नाम में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या को जोड़कर आपका भविष्य बता रहा है। कई महिलाएं भी भविष्य के बारे में बात करती नजर आएंगी। वो भी बता रही हैं। कि शुक्रवार को पति के साथ किस प्रकार का व्यवहार करने से लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं। कोई महिला यह बताती है कि पत्नी को हर दिन पति के पाँव दबाने चाहिए, क्योंकि लक्ष्मी जी भी विष्णु जी के पांव दबाती हैं। कोई महिला यह बताती है। कि अमुक अंक लिखकर अपने घर की तिजोरी में रख दो या अमुक नंबर के नोट अगर आपने अपने घर में पैसे रखने के स्थान पर रख दिया तो आपके पास धन की कोई कमी नहीं होगी। इसके अलावा, स्वास्थ्य विषय पर भी इनके बहुत सारे रील्स हैं कि यह खाना चाहिए या फिर यह नहीं खाना चाहिए।

इतना ही नहीं, रील्स की दुनिया में बिजनेस करने के तौर तरीकों और और जमाधन को दोगुना और तिगुना तक करने के नुस्खे भी बताए जाने लगे हैं। ये सब इतने रोचक अंदाज में बताया जाता है कि देखनेवाला मोबाइल से चिपका रहता है। आमतौर पर यह देखा जाता है कि अगर रील्स देखना आरंभ कर दें तो घंटे दो घंटे तो ऐसे ही निकल जाते हैं।

कहना न होगा कि रील्स की दुनिया एक ऐसी मनोरंजक दुनिया है जो लोगों को बेहतर भविष्य का सपना भी दिखाती है। लोगों को पैसे कमाने से लेकर घर परिवार की सुख समृद्धि के नुस्खे बताती है। ये नुस्खे कितने सफल होते हैं यह पता नहीं, क्योंकि इस तरह का कोई रील देखने में नहीं आता है कि फलां नुरखे से उनका लाभ हुआ या इस तरह की कोई केस स्टडी भी अभी तक समने नहीं आई हैं कि फलां नंबर के नोट तिजोरी में रखने से उसकी आमदनी निरंतर बढ़ती चली गई। परंतु हां, इतना अवश्य है कि रील्स एक ऐसी काल्पनिक दुनिया में ले जाता है, जहां सबकुछ मोहक और मायावी लगता है।

रील्स की दुनिया को हल्के-फुल्के मनोरंजन के तौर पर लिया जाना चाहिए। लिया जा भी रहा है। लेकिन इन दिनों साहित्य, कला और कविता से जुड़े कुछ ऐसे रोल्स देखने को मिले जो चिंतित करते हैं। हाल के दिनों में कई ऐसे रील्स देखने को मिले जिनमें सेलिब्रिटी कविता पढ़ते नजर आ रहे हैं। वो कविता किसी और की पढ़ते हैं और रील्स के डिस्क्रिप्शन में कवि का नाम लिख देते हैं। रोल में कहीं कवि का नाम नहीं होता है। सेलिब्रिटी की टीम उसको इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर पोस्ट कर देती है और अश्वत्थामा हतौ नरौ…. वाली ईमानदारी के साथ वीडियो के डिस्क्रिप्शन में कवि का नाम लिख देती है। होता यह है कि सेलिब्रिटी की पढ़ी गई कविताओं का वीडियो इन प्लेटफार्म्स से डाउनलोड करके उनके प्रशंसक उसको फिर से उन्हीं प्लेटफार्म्स पर साझा करना आरंभ कर देते हैं। प्रशंसक अश्वत्थामा वाली ईमानदारी को समझ नहीं पाते और वो सेलिब्रिटी की कविता के नाम से ही उसे साझा करना आरंभ कर देते हैं। दिनकर जी जैसे श्रेष्ठ कवियों की कविताएं तो लोगों को पता है तो उसमें यह खेल नहीं हो पाता है, लेकिन कई नवोदित कवि की कविताएं सेलिब्रिटी के नाम से चलने लगती हैं। कवि को पता भी नहीं चलता और वह कविता सेलिब्रिटी के नाम हो जाती है। रील्स की दुनिया में इस बेईमानी से कई साहित्यिक प्रतिभा कुंद हो जा रही हैं। इसका निदान कहीं न कहीं बौद्धिक जगत को ढूंढना ही चाहिए। इंटरनेट मीडिया पर बाढ़ की तरह संचालित इन रील्स का एक और नुकसान जो साहित्य का हो रहा है, वह यह कि पौराणिक ग्रंथों से बगैर संदर्भ के किस्सों को उठाकर प्रामाणिक तरीके से पेश कर दिया जा रहा है। पिछले दिनों जब इलाहाबादिया का मामला सामने आया था तो उसके कुछ दिनों बाद एक रील मेरी नजर से गुजरा। एक बेहद लोकप्रिय व्यक्ति उसमें एक किस्सा सुना रहे थे। किस्से में वह बता रहे थे कि कालिदास अपना ग्रंथ कुमारसंभव पूरा क्यों नहीं कर पाए? उनके हिसाब से कालिदास जब कुमारसंभव में पार्वती और शंकर जी की रतिक्रिया के बारे में लिखने जा रहे थे, तब पार्वती जी को पता चल गया। उन्होंने सरस्वती जी को बुलाया और कहा कि यह कौन सा कवि है और क्या लिखने जा रहा है। इसे रोकना होगा। फिर किस्सागोई के अंदाज में यह प्रसंग आगे बढ़ता है। आगे वह बताते हैं कि सरस्वती जी ने क्रोधित होकर उनको श्राप दे दिया और वो बीमार हो गए। इस कारण से कुमारसंभव पूरा नहीं हो पाया।

यहां हमें यह समझना चाहिए कि कालिदास बीमार अवश्य हुए थे। उन्हें पक्षाघात हो गया और वह भी सरस्वती के श्राप के कारण, परंतु इसे कहां से उद्धृत किया गया था, यह तथ्य भी सामने आना चाहिए। इस पूरे प्रसंग में शब्द कुछ अलग हो सकते हैं, परंतु उनका भाव यही था। इस तरह के प्रकरणों में चिंता की बात यह है कि यह पूरा प्रसंग जैसे सुनाया गया, वह विश्वसनीय सा लगता है। इसे सुनकर नई पीढ़ी के लोगों में से कई सच मान सकते हैं, विशेषकर वे जो उनके प्रशंसक हैं। इससे तो एक अलग तरह का इतिहास बनता है। बौद्धिक समाज को इस तरह के प्रसंगों पर विचार करते हुए इस पर विमर्श को बढ़ावा देना चाहिए। चिंता तब और अधिक होती है, जब इस तरह के रील बनानेवाले लोग लोकप्रिय होते हैं। रील्स की दुनिया से पहले फेसबुक ने साहित्य का बहुत नुकसान किया, विशेषकर कविता का फेसबुक के लाइक्स और कमेंट ने कवियों और रचनाकारों के दिमाग में यह बैठा दिया कि अब उनको आलोचकों की आवश्यकता ही नहीं है। वो सीधे पाठक तक पहुंच रहे हैं। ऐसे लोग यह मानते थे कि आलोचक पाठकों तक पहुंचने का एक जरिया है। जबकि आलोचकों की भूमिका उससे कहीं अलग होती है।

आलोचक रचना के अंदर प्रवेश करके उसकी गांठों को खोलकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। रचनाओं में अंतर्निहित भावों को आसान शब्दों में पाठकों को समझाने का प्रयत्न करता है। इससे रचनाकार और पाठक के बीच एक ऐसा संबंध बनता था जो फेसबुक के कमेंट से नहीं बन सकता है। फेसबुक पर जिस तरह के कमेंट आते हैं, उनमें से अधिकतर तो प्रशंसा के ही होते हैं जो रचना का न तो आकलन कर पाते हैं और न ही रचना के भीतर प्रवेश करके उसकी परतों को पाठकों के लिए खोलते हैं। कुल मिलाकर जो परिस्थितियाँ बन रही हैं उनमें प्रमाणिक स्रोतों के आधार पर तथ्यों को प्रस्तुत करने के लिए साहित्यकारों को आगे आना होगा। प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी वर्षों से आह्वान कर रहे हैं कि साहित्यकारों को इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स पर लिखना चाहिए। उनके नहीं लिखने से अनर्गल लिखनेवालों का बोलबाला होता जा रहा है। तकनीक को साहित्यकारों को अपनाना चाहिए और उसके नए माध्यमों को पाठकों तक पहुंचने का औजार बनाना चाहिए।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब