महाराणा प्रताप के जीवन संघर्ष और हल्दी घाटी के युद्ध में आदिवासियों का अतुलनीय योगदान

The incomparable contribution of tribals in the life struggle of Maharana Pratap and the battle of Haldighati

वासुदेव देवनानी

भारत के इतिहास में कई वीर योद्धा हुए लेकिन कुछ ऐसे नाम हैं जो सिर्फ तलवार के दम पर नहीं,बल्कि जनता के दिलों में जगह बनाकर अमर हो गए। वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप उन्हीं में से एक हैं। महाराणा प्रताप का जीवन संघर्ष, स्वाभिमान और स्वतंत्रता का प्रतीक है। महाराणा प्रताप के जीवन संघर्ष और हल्दी घाटी के युद्ध में आदिवासियों मेवाड़ और वागड़ अंचल के भील समुदाय का अहम योगदान रहा है। खासकर जब वे मुगलों से जूझ रहे थे, तब हल्दी घाटी के युद्ध में भील आदिवासियों ने न केवल उन्हें सक्रिय सहयोग किया वरन महाराणा प्रताप और उनके परिवार को आश्रय दिया । साथ ही जंगलों के अति विकट मार्गों खास कर अरावली पहाड़ियों के दुर्लभ मार्गों के रहस्यों को खोजने में भी उनका मार्गदर्शन किया तथा गुरिल्ला युद्ध पद्धति को अंजाम देने में उनकी मदद की ।

महाराणा प्रताप ने अपना अधिकांश जीवन कठिन जंगलों, पहाड़ियों और कंदराओं में बिताया जो, आदिवासी जीवन के काफी करीब था। साथ ही उन्होंने अपना अन्तिम समय भी दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर संभाग के सलूम्बर जिले के चावण्ड में भील आदिवासियों के मध्य ही गुजारा। इस वजह से आज भी आदिवासी समाज खुद को उनसे जुड़ा हुआ महसूस करता है। महाराणा प्रताप ने भील समुदाय को केवल अपना विश्वासपात्र सहयोगी ही नहीं, बल्कि हमेशा अपना अनन्य साथी भी माना। उन्होंने भील सैनिकों और उनके भील सरदार पूंजा भील को अपनी सेना में सम्मानपूर्वक स्थान दिया तथा उन्हें राणा पूंजा की उपाधि दी जिससे जनजातीय समाज को सामाजिक गौरव मिला। जब महाराणा प्रताप ने मुगल साम्राज्य से टकराने का निश्चय किया, तो उनके पास सीमित संसाधन थे लेकिन उनके साथ एक मजबूत संकल्प के साथ ही असली ताकत के रूप में भील जनजाति का समर्थन था। इतिहास गवाह है कि हल्दीघाटी के युद्ध से लेकर जंगलों में छिपकर संघर्ष करने तक भील आदिवासी हर मोर्चे पर उनके साथ अडिग खड़े रहे। महाराणा प्रताप ने भी उन्हें न केवल सैनिक के रूप में, अपनी सेना में शामिल किया, बल्कि रणनीतिक सहयोगी के रूप में भी उन्हें बहुत महत्व दिया। उन्होंने भील आदिवासियों के साथ कभी भेदभाव नहीं किया, बल्कि उन्हें बहुत अधिक सम्मान दिया। यह उस दौर में एक क्रांतिकारी सोच थी। महाराणा प्रताप ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा अरावली की पहाड़ियों, घने जंगलों और गुफाओं में बिताया। वे कठिनाइयों से कभी नहीं डरे। यही संघर्षशील जीवनशैली आदिवासी संस्कृति से भी गहराई से जुड़ी हुई थी इसलिए भी आदिवासी समाज ने उन्हें अपने जैसा माना और आज भी वह उन्हें एक लोकनायक के रूप में याद करता है। महाराणा प्रताप का जीवन इस बात की मिसाल है कि जब राजा और जनता के बीच सच्चा रिश्ता हो तो कोई भी साम्राज्य उनके सामने टिक नहीं सकता। उन्होंने दिखाया कि भारत की असली ताकत उसकी विविधता में नहीं, बल्कि उस विविधता को अपनाने में है। महाराणा प्रताप केवल एक योद्धा नहीं थे, वे एक ऐसे शासक थे जिन्होंने जनजातीय समाज को वह सम्मान और स्थान दिया, जिसके वे सच्चे हकदार थे इसलिए आज भी वे आदिवासियों के दिल में एक प्रिय नेता, एक सच्चे साथी और एक अमर नायक के रूप में बसते हैं।

हल्दीघाटी का युद्ध और भील वीर : महाराणा प्रताप के गुप्त योद्धा

18 जून 1576 को हुए ऐतिहासिक हल्दीघाटी का युद्ध भारतीय इतिहास का वह क्षण है जो त्याग, साहस और आत्मगौरव की प्रतीक बना है। इस युद्ध को अक्सर महाराणा प्रताप बनाम अकबर के प्रतिनिधि मानसिंह के संघर्ष के रूप में देखा जाता है, लेकिन हल्दीघाटी का युद्ध का एक बड़ा और अनदेखा पक्ष है युद्ध में भील योद्धाओं का अद्भुत योगदान। भील भारत की सबसे प्राचीन जनजातियों में से एक हैं, जो प्राकृतिक जीवन, धनुष-बाण चलाने की कला और कठिन परिस्थितियों में जीने के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। महाराणा प्रताप ने जब मुगल साम्राज्य के आगे घुटने टेकने से इनकार किया, तब उनके साथ सबसे पहले खड़े होने वालों में थे भील योद्धा। इन योद्धाओं ने न केवल प्रताप को पहाड़ी इलाकों में छिपने में मदद की, बल्कि जब युद्ध का बिगुल बजा, तो उन्होंने तलवार और तीर-कमान उठाकर महाराणा प्रताप के साथ कंधे से कंधा मिला कर युद्ध लड़ा। इतिहासकार मानते हैं कि हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की कुल सेना करीब 20,000 सैनिकों की थी, जिसमें 5,000 से अधिक भील योद्धा शामिल थे। हल्दीघाटी युद्ध में राजा पूंजा जैसे भील सेनापति और हजारों भील योद्धाओं ने जो त्याग किया, वह हल्दीघाटी की मिट्टी में आज भी गूंजता है।

भील सेनापति : राजा पूंजा भील

हल्दीघाटी युद्ध में भील समुदाय की तरफ से नेतृत्व करने वाले प्रमुख सेनापति थे पूंजा भील। वे एक स्थानीय भील राजा थे, जिनका अपना जनजातीय साम्राज्य था। पूंजा ने अपने क्षेत्र के सैकड़ों भील योद्धाओं के साथ महाराणा प्रताप की सेना में शामिल होकर गुरिल्ला युद्ध रणनीति अपनाई। उनके सैनिकों ने मुगलों की भारी-भरकम सेना पर पहाड़ियों, झाड़ियों और जंगलों से छिपकर हमला किया और मुगलों को भारी क्षति पहुँचाई। भील योद्धाओं को पहाड़ी युद्ध और छापामार हमले (गुरिल्ला वार) में महारत थी। वे गुरिल्ला रणनीति के उस्ताद थे। तेज़ी से हमला करते थे और तुरंत गायब हो जाते थे। दुश्मनों को चौंकाने के लिए जंगलों के रास्ते, गुफाओं और ऊँचाई का इस्तेमाल करते थे। यही रणनीति हल्दीघाटी जैसे दुर्गम युद्धस्थल पर महाराणा प्रताप की सेना के लिए वरदान बनी। भील सैनिक सच्चे देशभक्त और जुझारू नेता थे। भील सैनिकों ने न सिर्फ लड़ाई में हिस्सा लिया, बल्कि महाराणा की रसद, मार्गदर्शन, हथियारों की ढुलाई और संदेशवाहक जैसी भूमिकाएँ भी निभाईं। उन्होंने महाराणा प्रताप की सेना के पीछे एक मजबूत स्थानीय समर्थन तंत्र खड़ा किया। एक ऐसा मजबूत नेटवर्क जो मुगलों के लिए समझना और भेदना असंभव था। आज राजस्थान और देश के कई आदिवासी अंचलों में राजा पूंजा और अन्य भील योद्धाओं की पूजा की जाती है। महाराणा प्रताप और भील समाज का यह गठबंधन राजनीतिक नहीं, बल्कि आत्मिक था। यह संघर्ष की एक अनूठी साझी विरासत थी।

मेवाड़ के इतिहास और भील समुदाय के योगदान को लेकर एक प्रसिद्ध मेवाड़ी दोहा है, जो बहुत ही लोकप्रिय है और जनमानस में गहराई से रचा-बसा है:-

“राजा राणा, भील भराया,

तब मेवाड़ गढ़ गढ़ाया।”

और

“भीलां री बहादुरी, रण में देखी बात।

राणा रो संग धर्यो, जंगल-जंगल घात।”

मेवाड़ के राजचिह्न (राज्य प्रतीक) में भी आदिवासी भील को प्रमुख रूप से उभारा गया है जोकि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। यह न केवल भील समुदाय की वीरता और निष्ठा को दर्शाता है, बल्कि मेवाड़ की रक्षा और स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को सम्मानित करता है।

मेवाड़ के राजचिह्न में भील योद्धा की उपस्थिति यह दर्शाती है कि मेवाड़ की शौर्यगाथा केवल राजपूतों तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें आमजन, विशेषकर आदिवासी समाज का भी उतना ही अधिकार है। यह एक प्रकार से

यह भारत के समावेशी इतिहास और सामाजिक साझेदारी की एक सुंदर मिसाल है।

मेवाड़ के पारंपरिक राजचिह्न में ढाल,सूर्य,शिवलिंग और तलवार के साथ ढाल के दोनों ओर दो योद्धा खड़े हैं बाएं ओर एक भील योद्धा, धनुष-बाण या भाला लिए हुए है। यह भील समुदाय की वीरता और मेवाड़ के संघर्षों में उनके योगदान का प्रतीक है।जबकि

दाएं ओर एक राजपूत योद्धा, जो शाही वस्त्रों और तलवार से सुसज्जित है।

चावण्ड: महाराणा प्रताप की अंतिम राजधानी और भील स्वाभिमान की भूमि

महाराणा प्रताप ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में चावण्ड को अपनी राजधानी बनाया और वहीं रहकर उन्होंने भीलों के साथ गहरा सामाजिक और राजनीतिक संबंध बनाएं । उन्होंने हल्दीघाटी और दिवेर के युद्ध के बाद मेवाड़ का अधिकांश भाग मुगलों से पुनः प्राप्त कर लिया तब उन्होंने उदयपुर छोड़कर चावण्ड को अपनी नई राजधानी बनाया। यह निर्णय केवल रणनीतिक नहीं था, बल्कि प्रतीकात्मक भी था स्वतंत्रता की भावना और आदिवासी सहयोग को सम्मान देने का एक अद्भुत कदम। चावण्ड एक दुर्गम, पहाड़ी क्षेत्र था, जो दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर संभाग के सलूम्बर जिले में स्थित एक ऐतिहासिक स्थल है। यहाँ उन्होंने अपने जीवन के अंतिम वर्षों तक शासन किया और 1597 में यहीं उनका निधन हुआ। गरगल नदी के किनारे पर पहाड़ों के बीच बसा हुआ चावंड कस्बे में एक पहाड़ी पर महाराणा प्रताप के किले के अवशेष आज भी दिखाई देते हैं। ये वही किला है जिसमें महाराणा प्रताप ने अपना अंतिम समय गुजारा था। इसी किले के अंदर कुँवर अमरसिंह का राज्याभिषेक हुआ था और वे महाराणा प्रताप के बाद मेवाड़ के महाराणा बने थे।यह इलाका न केवल भील बाहुल्य था वरन प्राकृतिक सुरक्षा से भी घिरा हुआ था।महाराणा प्रताप ने इस आदर्श स्थान को अपनी राजधानी के लिए चुना। महाराणा प्रताप ने नई राजधानी का निर्माण किया और फिर से प्रशासनिक ढाँचा खड़ा किया। मुगलों की भव्य राजधानी अकबर के दरबार से अलग, चावण्ड की राजधानी बहुत सरल थी, पर स्वाभिमान से भरी हुई थी। गगनचुंबी महलों के बजाय मिट्टी के घरों में आत्मगौरव था और राजसी वस्त्रों के बजाय जंगलों में संघर्ष की कहानियाँ शामिल थीं। आज चावण्ड सिर्फ एक ऐतिहासिक स्थल नहीं, बल्कि आदिवासी सहयोग और वीरता की एक अमर गाथा है। महाराणा प्रताप ने चावण्ड को केवल राजधानी नहीं, बल्कि एक ऐसा आदर्श स्थान बनाया जहाँ स्वराज्य, स्वाभिमान और सामाजिक समरसता का मेल था। भील समाज के बीच रहकर उन्होंने यह सिद्ध किया कि सच्चे राजा को अपने लोगों से दूर नहीं, उनके बीच होना चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण भील समाज को प्रशासन, सुरक्षा और सामाजिक संरचना में भी महत्वपूर्ण स्थान दिया। महाराणा प्रताप ने अपने शेष जीवन में भीलों को केवल सहयोगी नहीं, बल्कि अपने परिवार की तरह माना। उन्होंने चावण्ड में भील नेताओं को दरबार में स्थान दिया, उन्हें ज़िम्मेदारियाँ दीं और उनके साथ भोजन, उत्सव और निर्णय प्रक्रिया साझा की। यह संबंध एक राजा और प्रजा का नहीं, बल्कि दो संघर्षशील वर्गों का भाईचारा था, जो स्वतंत्रता और सम्मान के लिए एक साथ खड़े थे। एक मेवाड़ी कविता इसे चरितार्थ करती है-

जो राखे धर्म ने, ताको राखे देव।

भील बढ़ावै राणा, रो मत गयो मेव।

चावण्ड में महाराणा प्रताप के स्मारक

चावण्ड में स्थित किला आज भी महाराणा प्रताप की वीरता और संघर्ष की गाथा सुनाता है। हालाँकि आज यह किला खंडहर में बदल चुका है, फिर भी इसके अवशेष इतिहास प्रेमियों को आकर्षित करते हैं। यह किला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में है। महाराणा प्रताप ने चावण्ड में चामुंडा माता का मंदिर स्थापित किया था। यह मंदिर भी आज भी श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र है। साथ ही प्रताप की धार्मिक आस्था का प्रतीक है। महाराणा प्रताप के देहांत के बाद उनका अंतिम संस्कार चावण्ड के निकट बांडोली गाँव में किया गया था। यहाँ उनकी स्मृति में एक आठ स्तंभों वाली छतरी बनाई गई है, जो उनके स्वाभिमान और बलिदान की याद दिलाती है। राजस्थान सरकार की चावण्ड में महाराणा प्रताप के जीवन और संघर्ष को दर्शाने के लिए एक पैनोरमा बनाने की योजना है। इस परियोजना के तहत, महाराणा प्रताप के जीवन, मेवाड़ की संस्कृति और इतिहास को चित्रों और प्रदर्शनों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाएगा।

महाराणा प्रताप सिर्फ मेवाड़ के महाराणा नहीं थे, बल्कि जन-जन के नेता थे खासकर आदिवासी समाज के लिए वे हमेशा एक जीवन्त प्रेरणा, साथी और सच्चे संरक्षक बनें। महाराणा प्रताप और आदिवासियों के मध्य रहें अटूट और सुदृढ़ संबंधों के कारण ही आज भी आदिवासियों के दिलों में महाराणा प्रताप एक अमर नायक के रूप में बसते हैं।

(लेखक वासुदेव देवनानी राजस्थान विधानसभा के माननीय अध्यक्ष है)