
प्रेम प्रकाश
नेपाल के हालिया घटनाक्रम ने मौजूदा दशक को उस पीढ़ी की शिनाख्त से जोड़ दिया, जिसके लिए जेन-जी और मिलेनियल जैसे कई नाम आज चर्चा में है। पर विश्व इतिहास में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से समकाल तक परिवर्तन को विचार शून्यता के साथ देखने की नौबत शायद ही कभी आई हो। आज अगर ऐसा होता दिख भी रहा है तो यह मीडिया की अपनी अधीरता का हासिल है। नहीं तो इस बात की हिमायत खासतौर पर भारत की धरती से तो मुश्किल है कि लोकतंत्र, समाजवाद और सामाजिक न्याय के वैचारिक तर्कों के किले पूरी तरह ढह चुके हैं। आज से ढाई दशक पहले जब योगेंद्र यादव की किताब ‘मेकिंग सेंस ऑफ इंडियन डेमोक्रेसी’ आई, तो यह पुस्तक इस बात की जमीनी गवाही थी कि हाशिए के सवालों से मुख्यधारा की राजनीति अगर आज भी भारत में अपना गंतव्य और देशकाल तय कर रही है तो यह बड़ी बात है। लोक कल्याण से लेकर सर्व समावेशी विकास जैसे आर्थिक और राजनीतिक तर्क भारत में इसलिए ज्यादा अर्थवान हो जाते हैं क्योंकि इसकी वैचारिकी यहां के लोकतांत्रिक प्रयोगशाला में सिद्ध होती रही है।
समझ की इस कोर के साथ भारतीय राजनीति को देखें तो साफ दिखता है कि बीते एक दशक में देश में कई परिवर्तन एक साथ हुए हैं। इन वर्षों में जहां एक खास विचारधारा की सरकार लगातार तीसरी बार चुनकर केंद्र में आई, वहीं इतिहास को लेकर हमारी दृष्टि का कंपास भी खासा घूम गया है। पर इन तमाम परिवर्तनों के बीच कुछ खास सबक और आजादी के बाद के भारतीय सामाजिक-राजनीतिक चिंतन का एक बड़ा हासिल लगातार विमर्श के दायरे से बाहर भी होता गया है। विरासत और राजनीति की साझी चहलकदमी के दुर्ग में चिंतन और विकास का जो कोर खासतौर पर थोड़ा पीछे छूट गया है, वह है देश में समाजवादी चिंतन और विचारधारा की राजनीति। इतिहासकार और अपने स्तंभलेखन से लगातार चर्चा में बने रहने वाले रामचंद्र गुहा ने इस ओर ध्यान दिलाया है।
गुहा कहते हैं कि विचार क्षेत्र में अचानक कूद पड़े गाफिलों को भले लगता हो कि देश में समाजवादी परंपरा आज मृत्युशैय्या पर है। पर यह समय और विचार के गतिशील साझे को न देख-परख पाने की तंगनजरी है। सच्चाई इससे बिल्कुल जुदा है। हां, यह जरूर है कि समाजवादी विचार और परंपरा का प्रसार अब पहले की तरह नहीं है, पर यह आज भी भारतीय राजनीति के बीच सबसे बड़े नैतिक और रचनात्मक उपस्थिति के रूप में बरकरार है। इस संबंध में वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ होने वाले इतिहास लेखन पर भी अनुभव और विवेक के साथ बात होनी चाहिए।
वैसे भी मौजूदा वक्त भारतीय राजनीति की सुदृढ़ता में समाजवादियों की भूमिका को रेखांकित करने के लिहाज से खासा मुफीद है। यह भी कि समाजवादी धरे के शीर्ष प्रतिनिधियों में से एक मधु दंडवते की जन्म शताब्दी का यह वर्ष है। संयोग की अगली कड़ी की बात करें तो महाराष्ट्र और दिल्ली के बाद होने वाला बिहार विधानसभा का चुनाव काफी मायने रखता है। गौरतलब है कि बीते कम से कम चार दशक में देश में राजनीति और सत्ता परिवर्तन के जितने भी उलट-फेर हुए हैं, उसका या तो केंद्र बिहार रहा है, या फिर उसके सियासी सूत्र यहां से जुड़े रहे हैं। गैरकांग्रेसवादी राजनीतिक विकल्प से लेकर आपातकाल के दौर में लोकतंत्र की रक्षा और फिर आरक्षण की राजनीतिक लड़ाई तक बिहार देश की राजनीति का मस्तूल रहा है। इसलिए देश में प्रचलित राजनीतिक मुहावरे में अक्सर बिहार को राजनीतिक प्रयोग की भूमि भी कहा जाता रहा है।
बात समाजवाद की करें तो बिहार इस विचार परंपरा को सबसे ज्यादा संबल प्रदान करने वाला सूबा है। यह अपने आप में दुर्भाग्यपूर्ण है मीडिया और अभिव्यक्ति के डिजिटल दौर में बिहार की इस खासियत और विलक्षणता पर चर्चा न के बराबर है कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में वहां दो दशक से राजनीतिक स्थिरता ही नहीं, बल्कि समाजवादी विचार और नैतिकता की सुदृढ़ परंपरा भी सत्ता के संतुलन को साधती रही है। बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री के राजनीतिक मूल्यांकन के लिए यह जरूरी है कि हम समाजवादी विचार के उत्स के साथ बिहार के साथ उसके संबंध को तारीखी तौर पर देखें-समझें। आज यह बात लोगों को याद दिलाने की जरूरत है कि अशोक मेहता, मीनू मसानी, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीस से लेकर शरद यादव तक किसी की पैदाइश बिहार की नहीं है। पर बिहार की जनता ने समाजवादी आंदोलन के इन दिग्गजों को संसद तक पहुंचाया।
यह इस राज्य की राजनीतिक या लोकतांत्रिक समझ की एक ऐसी मिसाल है जो आज इस सूबे की पहचान से जुड़े कई पूर्वाग्रहों को न सिर्फ खंडित करती है, बल्कि एक नई बोधदृष्टि से उसे देखने की दरकार पेश करती है।
बिहार की प्रयोगधर्मा धरती पर होने जा रहे विधानसभा चुनाव का मतलब इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि यह बीते दो दशक में नीतीश कुमार के नेतृत्व में प्रदेश में समाजवादी कंपास के साथ घूमे विकासचक्र पर जनमत को तय करेगा। वैसे इस कंपास के घेरे के बाहर बिहार की राजनीति में जो है, वह जातिवाद- परिवारवाद और भ्रष्टाचार का धुंध ही है। अगर तर्क के साथ आगे की स्थिति पर कोई सुचिंतित भविष्यवाणी करनी हो तो यह कहा जा सकता है कि बिहार की राजनीति के साथ जुड़ी समाजवादी विरासत को रौंदकर न तो व्यवस्था परिवर्तन का कोई मंसूबा संभव है, और न ही उस समाजवादी विरासत और नेतृत्व की अवहेलना जिसके एक छोर पर खड़े होकर नीतीश कुमार बीते दो दशक से बिहार में सत्ता की राजनीति का संतुलन साध रहे हैं।
दरअसल, पद और पद त्याग के साथ प्रतिरोध की राजनीति की समाजवादी विरासत की अवहेलना भारत की समृद्धि राजनीतिक परंपरा का तिरस्कार तो है ही, यह बिहार की राजनीतिक अस्मिता के साथ खिलवाड़ भी है। चुनाव से पूर्व बिहार सरकार ने जिस तरह नौकरी-रोजगार से लेकर सामाजिक पेंशन तक के एजेंडे को एक साथ साधा है, वह भारतीय राजनीति के अपराजेय योद्धा के तौर पर नीतीश के कद और राजनीतिक दृष्टि को हर तरह की चुनौतियों पर भारी साबित करता है।