गोपेंद्र ‘योगेन्द्र’ भट्ट
नई दिल्ली : मकर सक्रांति से पहले दिसम्बर-जनवरी की हाड़ कंपकंपा देने वाली सर्द रातों में कुछदशक पूर्व तक वागड़ क्षेत्र के नगर, कस्बों और गांवों की गलियों में सूर्यास्त के बाद से ही पसर जाने वाले गहरे सन्नाटे को जोगीसमाज के लोक गायक अपने लोक वाध्य तम्बूरा (एकतारा) कीसुमधुर धुन पर श्रवण कुमार और कावड में बैठे उनके अन्धे माता-पिता से जुड़ी दिल को छू जाने वाली कारुण कथा के काव्य रसधारा से तोड़ते थे।
हम भाई बहन बचपन में अपने घर के झरोखों से छुप कर उनसफ़ेद वेश और पगड़ी धारी जोगियों को देखा करते थे और हमारीजिया(माता) उन्हें अनाज, कपड़े आदि के साथ ही गुड एवं तिलमूँगफली से बनी चीजें देती थी।
दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर संभाग के गुजरात और मध्य प्रदेशसे सटे वागड़ के ऐतिहासिक नगर डूंगरपुर शहर में मकर सक्रांति‘हकरत’ (वागड़ में मकर सक्रांति को वागड़ी भाषा में ‘हकरत’ कहा जाता है) के अवसर पर यहाँ के जोगी समाज के लोकगायकों द्वारा गाई जाने वाली कावड गाथा “हंय के राजा पेलाजमाना बेटे कावेड़े, हंय के राजा..आना जमाना बेटा गाबेड़े…” भजन सुनाने का प्रचलन और परम्परा दीपावली और देव दिवालीपर ‘बेडियु’ निकालने की परम्परा की तरह ही अब लगभग लुप्तप्रायः हो गई है।इन कलाकारों की लोक कथाओं को कला मर्मज्ञपद्म भूषण कोमल कोठारी ने जोधपुर के बोरूँदा में अपनीरूपायन संस्था के लिए रिकार्ड किया था।इसी प्रकारआकाशवाणी,दूरदर्शन और बाग़ौर की हवेली उदयपुर मेंसंचालित पश्चिम सांस्कृतिक केन्द्र ने भी इन कलाकारों कीरिकार्डिंग कराई थी। कोमल कोठारी का लोक कलाओं कोसंरक्षित करने में अपूर्व योगदान रहा । उन्होने राजस्थान की लोककलाओं लोक संगीत और वाद्यों के संरक्षण, लुप्त हो रहीकलाओं की खोज आदि के लिए बेजोड़ काम किया।
लोक गायकी में सिद्धहस्त और अपने फन के जादूगर जोगी लोकगायक श्रवण कुमार की गाथा के साथ भृतहरि की कथा से जुड़ेभजन भी गाते थे।जोगी गायकों द्वारा अपने परम्परागत बाध्ययन्त्रों पर गाई जाने वाली श्रवण कुमार की कथा के “हंय के राजापेला जमाना बेटे कावेड़े, हंय के राजा आना जमाना बेटा गाबेड़े…” मार्मिक भजन में छुपा गूढ़ सन्देश समाज में एक नई जागृति पैदाकरने और जन शिक्षण का प्रेरक प्रसंग होता था। इस भजन काअर्थ है कि “हैं राजा! किसी जमाने में श्रवण कुमार जैसे मातृ-पितृभक्त पुत्र अपने अन्धे माता-पिता को कावड़ में बैठा कर तीर्थाटनपर ले जाते थे,लेकिन आज के बेटे अपने निहित स्वार्थों के कारणउनका गला दबा कर उनका घोर अपमान करने से भी नहीं चूकतेहैं।”
यह कावड कथा
’हकरत’ (सकरात ) से एक पखवाड़ा पहले शुरु होती थी।डूंगरपुर के जोगी समुदाय का एक समूह मध्य रात्रि में शहर केगली-कुंचों एवं मुख्य मार्गों की परिक्रमा करते हुए श्रवण कुमारआदि की लोकगाथाएं तम्बूरे की झंकृत धुन के साथ गाते औरसुनाते थे जिसे सुन लोगों के मन में एक दारुण और कारुणिकभाव उत्पन्न होता था।
वैदिक और पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि मकर संक्रान्तिके दिन ही भगवान राम के पिता राजा दशरथ ने अनजाने में, सरोवर में अपने अंधे माता-पिता के लिए पानी लेने गए श्रवणकुमार के बर्तन में पानी भरने की आवाज़ को किसी जंगलीजानवर के पानी पीने की आवाज समझ कर उन पर एक शब्दभेदीबाण चला दिया था जिससे श्रवण कुमार की मृत्यु हो गई थी।श्रवण कुमार उन दिनों अपने अंधे माता-पिता को कावड़ में बैठाकर तीर्थ यात्रा पर ले जा रहें थे। बाण चलने के उपरांत किसीमानव की चित्कार सुनने पर जब राजा दशरथ सरोवर के पासपहुंचे तो उन्होंने श्रवण कुमार को बाण से छलनी, लहूलुहान औरमरणासन्न अवस्था में पाया और वे व्यथा और पश्चाताप से भरउठे। श्रवण कुमार ने घायल अवस्था में दशरथ को बताया किउसके अंधे माता-पिता जंगल में प्यास से तड़प रहे हैं और वह घड़ेमें पानी ले जा कर उनकी प्यास बुझाएं। जब राजा दशरथ जल लेकर श्रवण कुमार के माता पिता के पास पहुँचें और उन्होंनेअनजाने में श्रवण कुमार के उनके तीर से मारे जाने की दुःखदखबर दी और दोनों के समक्ष बहुत पश्चाताप किया तों श्रवणकुमार के अंधे माता-पिता ने दुःख से व्याकुल होते हुए उनके खूनीहाथों से जल ग्रहण करने से इंकार कर दिया और व्यथित हो करबेटे के विरह में अपने प्राण भी त्याग दिए। मरते समय उन्होंने राजादशरथ को श्राप दिया कि जिस तरह वे अपने बेटे के वियोग सेदुःखी हो कर आज अपने प्राण त्याग रहे हैं, उसी तरह एक दिनदशरथ भी अपने बेटे के वियोग से दुःखी हो कर अपने प्राणत्यागेंगे। कालांतर में भगवान रामचंद्र के राज सिहाँसन के वक्तदशरथ की रानी कैकयी द्वारा अपने पुत्र भरत के लिए राजसिहासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास का वरदानमाँगने और राम-सीता और लक्ष्मण के वन गमन के बाद राजादशरथ ने उनके वियोग में अपने प्राण त्याग दिए थे।
श्रवण कुमार की इस दुःखद और दारुण कथा को इस मार्मिककथा को गीत में ढाल जोगी पन्द्रह दिनों तक लगातार डूंगरपुर कीसड़कों और गली-गली में यह लोक कथा गाते हुए भ्रमण करतेथे,जिसके बदले में लोग उन्हें भिक्षाटन के रूप में अन्न धान,गेहूं, चावल, और आटा,दालें आदि देते थे।जोगियों की नगर के हरमोहल्ले और निकटवर्ती गाँवों में होने वाली यह फेरी ‘हकरत’ केदिन ही समाप्त हो जाती थी।
दरअसल पहले जोगी समाज के लोगों का जीवन निर्वहन लोकगायकी की इस परम्परा से ही होता था। मकर सक्रांति परडूंगरपुर के तात्कालिक शासक महारावल और नगरवासी उन्हेंअनाज,कपड़े और तिल-मूँगफली और सर्दी के मावे आदि से बनीसामग्री प्रदान कर उपकृत करते थे। वहीं किसान वर्ग उन्हें अपनेखलियानों में खड़ी फसलों के धान में से वर्ष पर्यन्त गुज़ारा लायक़धान प्रदान करते थे। जिस प्रकार देश विदेश में यह त्योहार खुशीऔर उल्लासपूर्ण त्यौहार मनाया जाता वहीं वागड़ के बाशिंदेमकर सक्रांति (हकरत) को वियोग, दुःख और शोक का पर्व भीमनाते आयें है।
बताया जाता है कि किसी समय भिक्षाटन कर अपना जीवनव्यापन करने वाले जोगी समुदाय के लोग रोज़गार के लिए पलायन कर गए ।साथ ही उन्होंने अन्य व्यवसाय अपना लिए हैं।
आदिवासी भील बहुल वागड़ क्षेत्र में मावजी महाराज,संतसूरमलदास,गोविन्द गुरु,गलालेंग,गवरी आदि कई कालजयी औरमहान हस्तियाँ हुई हैं जिन्होंने धर्म और भक्ति, आध्यात्मिकता केरस और सांस्कृतिक चेतना फैलाने के साथ ही सामाजिक जागृतिऔर देश प्रेम की भावना को बलवती बनाने में अपना अतुल्ययोगदान दिया।
130 वर्षों पुरानी चौपड़ा वाचन की परम्परा
मकर संक्रांति पर वागड़ के बांसवाड़ा जिले की घाटोल पंचायतसमिति के भूंगड़ा गाँव में मावजी महाराज की भविष्यवाणियोंसंबंधी चौपड़ा का वाचन करने की परम्परा भी सदियों से चली आरही है । यह परम्परा पिछलें 130 वर्षों से चल रही है। इसकेआधार पर आदिवासी बहुल इस अंचल के किसान फसलपैदावार के लिए बुवाई, सिंचाई और अनाज संग्रहण आदि कार्योंको लेकर तैयारी करते हैं। साथ ही मकर संक्रांति माता के वाहन, पात्र, शस्त्र के आधार पर राजनीतिक,सामाजिक प्राकृतिकबदलाव, वनों, पशुओं की स्थिति सूखा,अकाल-सकाल आदि केबारे में भी पूर्वानुमान लगाते हैं ।
दान-पुण्य और तिल व्यंजनों का भोग लगाने की परम्परा
यहाँ मकर संक्रांति के दिन दिल खोलकर दान पुण्य करने कीपरम्परा भी है। गायों को हरा चारा और गुड़, पशुओं और पक्षियोंको तिल लड्डू आदि खिलाया जाता हैं।
सूर्योदय के साथ ही भगवान सूर्य को अर्ध्य देकर विधि-विधान केसाथ उनकी पूजा-अर्चना कर खुशहाली की कामना की जाती है। महिलाओं द्वारा सूर्य भगवान को खींच पकवान ,तिल गुड से बनेव्यंजनों ,खिचड़ी आदि का भोग लगाया जाता है और कुंवारियोंकन्याओं को भोज कराया जाता हैं। इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्वहै। ऐसी धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुनाबढ़कर पुन: प्राप्त होता है। इस दिन शुद्ध घी एवं कम्बल का दानमोक्ष की प्राप्ति करवाता है। जैसा कि इस श्लोक से में कहा गयाहै कि “माघे मासे महादेव: यो दास्यति घृतकम्बलम।
स भुक्त्वा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति ।
पतंगबाजी और गेन्द खेलने की परम्परा
मकर संक्रांति का पर्व केवल दान-पुण्य के लिए नहीं जाना जाताबल्कि इस दिन और इसके पूर्व और पश्चात हर दिन पतंग उड़ानेऔर गाँवों में डोट(गेन्द) खेलने की परंपरा आज भी चली आ रहीहै।निकटवर्ती गुजरात की तरह वागड़ में भी पतंग उड़ाना इसत्योहार की एक तरह से रस्म है। बच्चे हों या युवा और वृद्घ हरकोई पतंग उड़ाने के लिए इस दिन का बेसब्री से इंतजार करते हैं।सुबह से ही आसमान में चारों ओर रंग-बिरंगी पतंगें छा जाती हैं।कई जगहों पर तो पतंगोत्सव का भव्य आयोजन औरप्रतियोगिताएं भी होती हैं।हमारे समाज के पतंग चेंपियन थेलेकिन हमारे पड़ौसी गटु भाई उनकी पतंग का शिकार करने कासवेरे से ही इन्तज़ार में रहते थे। इस दिन युवाओं सहित बड़ेबुजुर्गों द्वारा दिनभर पतंगबाजी के पेचों के साथ ‘ये काटा’, ‘वोकाटा’ के शोरगुल के साथ लुत्फ उठाया जाता हैं। पूरे दिन बच्चेबूढ़े सहित सभी पतंगबाजी का आनंद उठाते हैं। मकानों की छतपर जगह जगह पतंग उड़ाने वाले युवकों की टोलियां नजर आतीहैं।
बचपन में हमारे पड़ौसी और पतंग बाजी में सिद्ध हस्त हरिहर भाईसुथार के बड़े भाई की पतंग उड़ाते हुए छत से गिरने से हुई दुःखदमृत्यु आज भी सभी को शोक ग्रस्त कर देती है।
सुहागन महिलाएँ देती है अपनी सास को उपहार
राजस्थान में इस पर्व पर सुहागन महिलाएँ अपनी सास को उपहार(वायना) देकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। साथ ही महिलाएँकिसी भी सौभाग्यसूचक वस्तु का चौदह की संख्या में पूजन एवंसंकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देती हैं।
मकर संक्रांति का महत्व
मकर संक्रान्ति भारत का प्रमुख पर्व है। इस दिन पूरे देश मेंभारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के विविध रूपों के दर्शन औरझलक देखने को मिलती है।
वैसे मकर संक्रांति का पवित्र पर्व एशिया के संपूर्ण भारतीय उप-महाद्वीप में अति उत्साह के साथ मनाया जाता है तथा यह त्योहारसूर्य देवता की उपासना से जुड़ा हुआ है। ऋतुओं के सन्धि कालशीत ऋतु के समापन और वसंत ऋतु के आगमन से जुड़े मकरसंक्रांति पर्व को भारत के विभिन्न प्रांतों में भिन्न-भिन्न नामों सेजाना जाता है।पंजाब में इसे लोहड़ी और आंध्र प्रदेश में भोगी(दोनों ही मकर संक्रांति के पूर्व दिवस पर मनाए जाते हैं), गुजरातमें उत्तरायण, तमिलनाडु में थाई पोंगल, हरियाणा और हिमाचलप्रदेश में माघी, मध्य भारत में सकरात, असम में माघ बिहू, उत्तरप्रदेश में खिचड़ी, मिथिला में तिल संक्रांति, बंगला देश मेंसंगक्रांति, पाकिस्तान (सिंध) में तिरमूरी आदि और इसका एकगहन सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व है। फ़सलें काटने के इसउल्लासपूर्ण त्यौहार पर संपूर्ण भारत में अनेक स्वादिष्ट व्यंजनतिल, मुंगफ़ली, मुरमूरे, व गुड़ आदि से बनाए जाते हैं।
मकर सक्रांति का वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महत्व
हिन्दू कलेंडर के अनुसार पौष मास में जब सूर्य मकर राशि मेंआता है तभी इस पर्व को मनाया जाता है। वर्तमान शताब्दी में यहत्योहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ही पड़ता है, इसदिन सूर्य धनु राशि को छोड़ कर मकर राशि में प्रवेश करता है।ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान भास्कर अपने पुत्र शनि सेमिलने स्वयं उसके घर जाते हैं। चूँकि शनिदेव मकर राशि केस्वामी हैं, अत: इस दिन को मकर संक्रान्ति के नाम से जाना जाताहै। सामान्यत: सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करते हैं, किन्तु कर्कव मकर राशियों में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से अत्यन्तफलदायक है। यह प्रवेश अथवा संक्रमण क्रिया छ:-छ: माह केअन्तराल पर होती है।
भारत उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित है। सामान्यत: भारतीय पंचांगपद्धति की समस्त तिथियाँ चन्द्रमा की गति को आधार मानकरनिर्धारित की जाती हैं, किन्तु मकर संक्रान्ति को सूर्य की गति सेनिर्धारित किया जाता है।
यह भी बताया जाता है कि मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगाजीभगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुईसागर में जाकर मिली थीं। मकर संक्रान्ति के अवसर पर गंगास्नानएवं गंगातट पर दान को अत्यन्त शुभ माना गया है। इस पर्व परतीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गयी है।