
सुनील कुमार महला
जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ ने क्या खूब कहा है-‘शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले,वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा।’ भारतीय इतिहास में 26 जुलाई का दिन अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण इसलिए क्यों कि यह वह दिन है, जब हम प्रत्येक वर्ष ‘कारगिल विजय दिवस’ के रूप में मनाते हैं। वास्तव में यह हमारे देश की राष्ट्रीय एकता, संकल्प, शौर्य और बलिदान की मिसाल है। यह हमारे देश के उन वीर सैनिकों को श्रद्धांजलि देने का भी अवसर है, जिन्होंने देश सेवा करते हुए अपने प्राणों की आहूति दे दी थी। यदि हम यहां पर इस दिवस के मनाये जाने की बात करें तो पाठकों को बताता चलूं कि वर्ष 1999 में युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुए भारतीय सैनिकों की स्मृति में उनका सम्मान करने के लिये इस दिवस को यानी कि 26 जुलाई को ‘कारगिल विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। गौरतलब है कि साल 2000 में द्रास में कारगिल युद्ध स्मारक की स्थापना भारतीय सेना द्वारा वर्ष 1999 में ऑपरेशन विजय की सफलता की याद में बनाया गया था तथा बाद में वर्ष 2014 में इसका जीर्णोद्धार किया गया। जम्मू और कश्मीर के कारगिल ज़िले के द्रास शहर में स्थित होने के कारण इसे ‘द्रास युद्ध स्मारक’ के रूप में भी जाना जाता है। बाद में, विभिन्न संघर्षों व मिशनों में अपने प्राणों की आहुति देने वाले सैनिकों को समर्पित ‘राष्ट्रीय युद्ध स्मारक’ का उद्घाटन साल 2019 में किया गया। बहरहाल, पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि 3 मई 1999 को भारत-पाकिस्तान के बीच यह युद्ध तब शुरू हुआ, जब भारत को पता चला कि पाकिस्तान समर्थित घुसपैठियों और सैनिकों ने कारगिल के हाई अल्टीट्यूड (16,000 से 18,000 फीट की ऊंचाई पर) इलाकों पर कब्जा कर लिया है, ये जगहें भारतीय क्षेत्र में थीं और सामरिक दृष्टि से हमारे देश के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण व अहम् थीं।वास्तव में, वर्ष 1999 का कारगिल युद्ध परमाणु संपन्न दक्षिण एशिया में पहला सैन्य संघर्ष/युद्ध था, जो दो परमाणु संपन्न देशों(भारत-पाकिस्तान) के बीच पहला वास्तविक युद्ध था। दरअसल, 1971 में बांग्लादेश के गठन के बाद, भारत-पाकिस्तान ने निकटवर्ती पर्वत शृंखलाओं पर सैन्य चौकियों के माध्यम से सियाचिन ग्लेशियर पर नियंत्रण की होड़ में निरंतर तनाव का सामना किया। इसके बाद 1998 में दोनों ही देशों द्वारा परमाणु परीक्षण किए जाने के बाद दोनों देशों के बीच तनाव फिर से बढ़ गया। इसके बाद फरवरी 1999 में लाहौर घोषणा हुई। वास्तव में इसका उद्देश्य कश्मीर संघर्ष को शांतिपूर्ण और द्विपक्षीय रूप से हल करना था, लेकिन वर्ष 1998-1999 में ठंड के मौसम के दौरान पाकिस्तानी सशस्त्र बलों ने कारगिल, लद्दाख के द्रास व बटालिक सेक्टर में एन एच 1ए पर स्थित किलेबंद ठिकानों पर कब्ज़ा करने के लिये नियंत्रण रेखा (एल ओ सी) के पार गुप्त रूप से सैनिकों को प्रशिक्षित और तैनात किया। भारत ने पाकिस्तान के इन घुसपैठियों को आतंकी और जिहादी समझा, लेकिन वास्तव में पाकिस्तान का यह हमला उसका एक बहुत ही सुनियोजित सैन्य अभियान था। यहां पाठकों को यह भी बताता चलूं कि यह युद्ध वर्ष 1999 की गर्मियों में कारगिल सेक्टर में मश्कोह घाटी से लेकर तुरतुक तक फैली 170 किलोमीटर लंबी पर्वतीय सीमा पर लड़ा गया था और इसके प्रत्युत्तर में, भारत ने ऑपरेशन विजय की शुरुआत की, जिसमें घुसपैठ का मुकाबला करने के लिये 200,000 से अधिक सैनिकों को तैनात किया गया था। पाकिस्तान ने इस ऑपरेशन(कारगिल युद्ध के दौरान) को ‘ऑपरेशन बद्र’ नाम दिया था, जिसका उद्देश्य कारगिल सेक्टर पर कब्जा करके श्रीनगर-लेह राजमार्ग को बाधित करना और भारतीय सेना को सियाचिन ग्लेशियर से अलग करना था, लेकिन पाकिस्तान की यह साजिश ज्यादा दिन नहीं टिक सकी और भारतीय सेना ने पाकिस्तान को नाकों चने चबवा दिए।भारतीय सेना ने पाकिस्तान की इस घुसपैठ का मुकाबला करने के लिए ‘ऑपरेशन विजय’ शुरू किया और 60 दिनों तक भारत पाकिस्तान के बीच चले इस युद्ध में 26 जुलाई 1999 को भारत ने पाकिस्तान द्वारा सभी कब्जे वाले इलाकों को घुसपैठ से आजाद करा लिया। गौरतलब है कि भारतीय वायुसेना का ‘ऑपरेशन सफेद सागर’ तथा भारतीय नौसेना का ‘ऑपरेशन तलवार’ भी कारगिल युद्ध से जुड़े महत्वपूर्ण ऑपरेशन थे। यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि कारगिल की दुर्गम पहाड़ियों पर हुए उस युद्ध में हमारे 527 जवानों ने प्राणाहुति दी थी।
इस युद्ध में भारतीय सेना के वीरों ने ऑक्सीजन की कमी, बर्फीली हवाएं और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में पाकिस्तान के साथ लड़ते हुए अदम्य साहस, वीरता , शौर्य और दृढ़ता का परिचय दिया, इनमें लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडेय (परमवीर चक्र, मरणोपरांत), कैप्टन विक्रम बत्रा (परमवीर चक्र, मरणोपरांत),ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव (परमवीर चक्र) तथा राइफलमैन संजय कुमार(परमवीर चक्र) शामिल हैं। इन वीरों में सूबेदार मेजर (मानद कैप्टन) योगेंद्र सिंह यादव सबसे कम उम्र (19 साल) में परमवीर चक्र से सम्मानित अदम्य साहस, शौर्य और वीरता की मिसाल हैं। बहरहाल, बहुत कम लोग ही यह बात जानते होंगे कि कारगिल युद्ध के बाद ही हमारे देश में चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) का गठन सेना, नौसेना और वायु सेना के बीच ‘संयुक्तता’ को बढ़ावा देने के लिये किया गया था। उल्लेखनीय है कि सीडीएस सरकार के एकल-बिंदु सैन्य सलाहकार के रूप में कार्य करता है और तीनों सेवाओं के एकीकरण की देखरेख करता है। इतना ही नहीं, कारगिल युद्ध के बाद सुरक्षा क्षेत्र में सुधार, त्रि-सेवा कमानों की स्थापना,तकनीकी खुफिया क्षमताओं को बढ़ाने के लिये राष्ट्रीय तकनीकी अनुसंधान संगठन (एनटीआरओ) की स्थापना,सीमा प्रबंधन एवं परिचालन सुधार, सेनाओं के बीच संयुक्त अभ्यासों, आतंकवाद विरोधी उपायों, स्वदेशी सैटेलाइट नेविगेशन सिस्टम की आवश्यकता तथा विभिन्न सैद्धांतिक परिवर्तनों जैसे सुधारों को बल मिला। कहना ग़लत नहीं होगा कि इस युद्ध ने हमारे देश की सैन्य रणनीतियों और राष्ट्रीय सुरक्षा नीतियों को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया।सच तो यह है कि युद्ध ने देश में मज़बूत सुरक्षा उपायों की आवश्यकता को उजागर किया और राष्ट्रीय सुरक्षा बुनियादी ढाँचे में बड़े सुधारों को प्रेरित किया। इसने नियंत्रण रेखा (एल ओ सी) को एक प्रभावी अंतर्राष्ट्रीय सीमा के रूप में फिर से स्थापित किया और ‘कोल्ड स्टार्ट सिद्धांत’ जैसे नए सैन्य सिद्धांतों के विकास को गति दी। अंत में अज्ञात के शब्दों में यही कहूंगा कि-‘सैंकड़ों परिंदे आसमान पर आज नजर आने लगे, बलिदानियों ने दिखाई है राह, उन्हें आजादी से उड़ने की।’