
मुनीष भाटिया
भारत एक ऐसा देश है जहां परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। यहां नवरात्रि जैसे पर्व न केवल धार्मिक आस्था के प्रतीक हैं, बल्कि सांस्कृतिक एकता और सामाजिक मूल्यों के संवाहक भी हैं। नवरात्रि में मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा होती है, जिन्हें शक्ति, साहस, धैर्य, करुणा और न्याय का प्रतीक माना जाता है। भक्तगण पूरे उत्साह और श्रद्धा से उपवास रखते हैं, गरबा और डांडिया जैसे सांस्कृतिक आयोजन करते हैं और स्त्री शक्ति के महत्व का गुणगान करते हैं। लेकिन यह समाज जब वास्तविक जीवन में स्त्रियों और बालिकाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने में विफल दिखाई देता है, तो यह एक गहरा विरोधाभास प्रस्तुत करता है। एक ओर हम देवी को आदरपूर्वक नमन करते हैं, वहीं दूसरी ओर महिलाओं और बच्चियों पर अत्याचार की खबरें हमारे सामने आती रहती हैं। यह विडंबना केवल धार्मिक आस्था पर प्रश्न नहीं उठाती, बल्कि हमारे सामाजिक और नैतिक तंत्र की कमजोरी को भी उजागर करती है।
नवरात्रि का पर्व हमें स्त्री को शक्ति का प्रतीक मानने की शिक्षा देता है। किंतु, जब हम समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर बलात्कार, यौन शोषण और छेड़छाड़ की खबरें पढ़ते हैं, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या हमारी पूजा मात्र एक औपचारिकता बनकर रह गई है? जिस देश में “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” जैसी कहावतें कही जाती हैं, वहीं महिलाओं को जीवन के हर क्षेत्र में भेदभाव और हिंसा का सामना क्यों करना पड़ता है?महिलाओं के खिलाफ अपराध केवल आंकड़े नहीं हैं, बल्कि समाज की सोच और मानसिकता का आईना हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट लगातार यह दर्शाती हैं कि महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों में कमी के बजाय वृद्धि हुई है। खासतौर पर बाल यौन शोषण की घटनाएं समाज के भीतर एक गहरे संकट की ओर संकेत करती हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि अधिकांश बाल यौन शोषण की घटनाओं में अपराधी कोई बाहरी व्यक्ति नहीं, बल्कि परिवार का सदस्य या निकट संबंधी होता है। यह स्थिति और भी खतरनाक हो जाती है, क्योंकि पीड़ित बच्चा या महिला अक्सर अपराधी के डर, शर्म या सामाजिक कलंक के भय से चुप रह जाती है। कई बार परिवार भी मामले को दबा देता है ताकि “इज्जत” पर आंच न आए। लेकिन यह चुप्पी अपराधियों को और अधिक साहसी बना देती है।
आधुनिक मीडिया और मनोरंजन उद्योग भी इस समस्या को बढ़ाने में अप्रत्यक्ष रूप से योगदान कर रहे हैं। विज्ञापन, फिल्मों और धारावाहिकों में महिलाओं को अक्सर उपभोग की वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। गानों के बोल और वीडियो में अश्लीलता को “ग्लैमर” का नाम दिया जाता है। इसका सीधा असर युवाओं की मानसिकता पर पड़ता है और वे महिलाओं को सम्मानित व्यक्तित्व के बजाय एक भौतिक वस्तु के रूप में देखने लगते हैं।
स्वतंत्रता के बाद से अब तक महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए कई कानून बनाए गए हैं। पोक्सो, निर्भया कानून और कई अन्य कड़े प्रावधान इस दिशा में लागू किए गए। लेकिन केवल कानून बना देना पर्याप्त नहीं है। वास्तविक चुनौती इनके सही और समयबद्ध क्रियान्वयन की है। पीड़ित को न्याय दिलाने की प्रक्रिया अक्सर इतनी लंबी और जटिल होती है कि कई बार लोग शिकायत दर्ज कराने से ही हिचकिचाते हैं।
इस स्थिति से निपटने के लिए केवल कानून और दंड पर्याप्त नहीं होंगे, बल्कि समाज की मानसिकता में बदलाव सबसे महत्वपूर्ण है। इसके लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाने आवश्यक हैं। सबसे पहले, बच्चों को केवल पढ़ाई-लिखाई ही नहीं, बल्कि नैतिक और सामाजिक मूल्यों की भी शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वे सम्मान, संवेदना और सह अस्तित्व जैसे जीवन के मूल सिद्धांतों को समझ सकें। इसके साथ ही उन्हें यह सिखाना जरूरी है कि यदि कोई उनके साथ अनुचित व्यवहार करता है तो वे उसे पहचान कर तुरंत माता-पिता या किसी विश्वसनीय व्यक्ति को बताएं। “गुड टच” और “बैड टच” जैसी बुनियादी शिक्षा बचपन से ही दी जानी चाहिए।महिलाओं और बालिकाओं को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण देना भी अत्यंत आवश्यक है। यदि हर स्कूल और कॉलेज में आत्मरक्षा की ट्रेनिंग अनिवार्य की जाए तो इससे न केवल उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा, बल्कि अपराधियों पर भी मनोवैज्ञानिक दबाव बनेगा। इसके अलावा समाज को यह समझना होगा कि किसी एक महिला या बच्ची के साथ होने वाला अपराध केवल उस परिवार की नहीं, बल्कि पूरे समाज की असफलता है। अतः अपराधियों के खिलाफ केवल पीड़ित परिवार ही नहीं, बल्कि पूरा समाज एकजुट होकर खड़ा हो, जिससे अपराधियों को यह स्पष्ट संदेश मिले कि वे अकेले नहीं हैं जिनके खिलाफ आवाज उठेगी।साथ ही, मीडिया और मनोरंजन जगत को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। महिलाओं की गरिमा को ठेस पहुँचाने वाले दृश्य और संवाद पर रोक लगाई जानी चाहिए और इसके स्थान पर सकारात्मक कहानियों व प्रेरक उदाहरणों को प्रस्तुत करना आवश्यक है। केवल तब ही समाज में मानसिकता का वास्तविक परिवर्तन संभव हो सकेगा और महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकेगी।
नवरात्रि केवल व्रत और उत्सव का पर्व नहीं है, बल्कि आत्मबल और साहस का संदेश देने वाला अवसर है। मां दुर्गा के प्रत्येक रूप हमें यह सिखाते हैं कि अन्याय और अत्याचार के खिलाफ डटकर खड़ा होना ही असली धर्म है। उदाहरण स्वरूप, शैलपुत्री हमें दृढ़ संकल्प का संदेश देती हैं, चंद्रघंटा शत्रुओं का सामना करने का साहस सिखाती हैं और कात्यायनी न्याय एवं धर्म की रक्षा का प्रतीक हैं। इन रूपों की पूजा तभी सार्थक हो सकती है जब हम अपने भीतर भी यही भाव जागृत करें और अपने आसपास व्याप्त अन्याय व अत्याचार का विरोध करने का साहस दिखाएं। अक्सर समाज महिलाओं को कमजोर मानकर उन्हें दबाने की कोशिश करता है। लेकिन सच्चाई यह है कि हर महिला अपने भीतर अपार शक्ति रखती है। जरूरत केवल उस शक्ति को पहचानने और उसका सही उपयोग करने की है। महिलाएं और बालिकाएं यदि स्वयं अपनी आवाज बुलंद करेंगी, तो उन्हें दबाने वाला कोई भी बल अधिक समय तक टिक नहीं सकेगा।
नवरात्रि का पर्व हमें यह अवसर देता है कि हम केवल देवी की मूर्ति की पूजा न करें, बल्कि अपने समाज की हर महिला और बच्ची में देवी के रूप को पहचानें और उसका सम्मान करें। महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों को रोकने के लिए हमें कानून, शिक्षा, नैतिकता और सामाजिक जिम्मेदारी – चारों मोर्चों पर सक्रिय होना होगा। सच्ची नवरात्रि वही होगी, जब कोई भी महिला या बच्ची अपने घर से बाहर निकलते समय सुरक्षित महसूस करे। जब पूजा के साथ-साथ हमारे कर्म भी इस बात का प्रमाण दें कि हम वास्तव में शक्ति का सम्मान करते हैं। तभी यह पर्व न केवल धार्मिक, बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी सार्थक बन सकेगा।