शादी का बाजारवाद को प्रदर्शित करता उपन्यास “गुस्ताखियाँ”

नृपेन्द्र अभिषेक नृप

उपन्यासों की दुनिया में धमाकेदार पदार्पण करने वाली बहुमुखी प्रतिभा की धनी मेघा राठी को महीनों से सोशल साइट्स और पत्र – पत्रिकाओं में अनगिनत कविता, कहानी और आलेख पढ़ते रहें हैं लेकिन उन्होंने अपने पहले उपन्यास “गुस्ताखियाँ” द्वारा साहित्य में अपना स्थान बुलंद किया है। उनकी यह पुस्तक वाकई शानदार है। इसकी भाषा पाठकों के दिल मे उतर जा रही है। उपन्यास में भाषा प्रयोग की दुहरी समस्या होती है। एक तो गद्य की सामान्य प्रकृति के हिसाब से उसे वर्णन करना और दूसरा, उससे अधिक मुश्किल काम है सूक्ष्म और जटिल अनुभव को संप्रेषित करना। भाषा के इस दोहरे धर्म को निबाहने में उपन्यासकार का मुख्य कृतिकर्म निहित है। इसी तरह से “गुस्ताखियाँ” की भाषा शैली मन मोह ले रही है।

किसी भी कहानी के प्लॉट के लिए लोकेशन और पात्र की जरूरत होती है। दिल्ली और भोपाल के इर्द – गिर्द घूमती कहानी की शुरूआत ही साकेत के दिल्ली यात्रा से होती है जो मौसी के यहाँ शादी में आया होता है। इसकी कहानी की पृष्ठभूमि में शहरों की गहमागहमी और लोगों की व्यथा साफ दिखाई दे रही है। स्त्री और पुरुष के महत्वकांक्षी सोच- समझ को बख़ूबी लिखा गया है। कहानी मंद मंद गति से नदी की धारा की तरह बहती जाती है, यह बहाव इतना शालीन और सरल है कि पाठकों को बांधे हुए रहता है।

इसकी कहानी युवाओं को सीख देने वाली है। ऐसी विसंगतियों पर प्रहार है जिनमें आज का युवा उलझता ही जा रहा है। ख़ुद को आगे बढ़ाने की होड़ में विसंगतियों के ताना – बाना में ही डूबते जा रहें है।इनकी कहानियों में प्रेम को आधुनिकता के चकाचौंध से जोड़ कर सोशल मीडया की भूमिका को भी दिखाया गया है। इस कथा के बीज तो तभी प्रस्फुटित हो गये थे जब काजल, ने निखिल की शानशौकत से प्रभावित होकर उससे विवाह कर लिया था, लेकिन जब हकीकत से रूबरू होती है तब उसे इल्म हुआ कि उसके साथ धोखा हुआ है। जिस सुख की तलाश में काजल थी, उसे निखिल से मिल नहीं पाता। निखिल ने भी उसके रूप-सौंदर्य को देख कर ही उसके साथ सात फेरे लिए थे। कुल मिलाकर यह रिश्ता स्वार्थ की बुनियाद पर टिका था और आगे चलकर इसे अपनी उष्णता व निकटता खोना अवश्यंभावी था।

आज का दौर पूंजीवाद का दौर है और इस कहानी में शादी को व्यापार बनाने की व्यवथा को बहुत सटीक ढंक से दिखाया गया है। काजल अपने ऐशोआराम के लिए शादी और तलाक का व्यापार ही करने लगती है। एक तरह से देखें तो यह प्रेम का बाजारवाद प्रतीत होता है जिसमें शादी को अपने आय का जरिया बना लिया गया है।

कहानी का अंत भी संदेशपरक है जिसमें काजल हमेशा के लिए बिना कुछ बिताए एक वीडियो बना कर चली जाती हैं। उसने माफ़ी मांग कर यह बताने कि कोशिश की थी कि उसे अपनी ग़लती का एहसास है लेकिन वह अपनी चरित्र में इतनी गिर चुकी थी कि उसे सबसे दूर हो जाना ही उचित लगा। वाकई कहानी का अंत क्लाइमेक्स पर होता है जो पाठकों को सोचने पर मजबूर करता है। समाज में हो रहे नई – नई घटनाओं को देख कर सीखने को प्रेरित कर रहा है।

समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप
पुस्तक: गुस्ताखियाँ
उपन्यासकार: मेघा राठी
प्रकाशन: इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड, नोएडा
मूल्य: 250 रुपये