डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
ब्रिटिश लाईब्रेरी में कल्पसूत्र की सर्व प्राचीन और उन्नीसवीं शती तक ज्ञात एक मात्र पाण्डुलिपि सुरक्षित है। यह प्राकृत भाषा में है, चांदी की स्याही से लिखी गई है और अनेकों बहुरंगी चित्र होने से भी बहुत महत्वपूर्ण है।
कल्पसूत्र की यह पूरी पाण्डुलिपि 15वीं शताब्दी में पाटन, गुजरात में बनाई गई थी। यह जैन सुलेख का एक अद्भुत उदाहरण है और कागज के पत्तों पर सुनहरे, चांदी और लाल अक्षरों को चित्रित करता है, जो स्वयं लाल, काले या हल्के भूरे रंग में चित्रित हैं।
प्रत्येक पत्र में 6 पंक्तियां हैं और प्रत्येक पंक्ति में औसतन 30 अक्षर हैं।
ग्रन्थ का प्रारंभ इसप्रकार है-
णमो अरहंताणं। णमो सिद्धाणं। णमो आयरयाणं। णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सव्वसाहूणं।।
एसो पंचनमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं।।
तेणं कालेणं तेणं समयेणं समणे भगवं महावीरे पंच हत्थुरे होत्था। तं जहा-हत्थुत्तराहिं चुए चइता गब्भं वक्कंते १ हत्थुत्तराहिं गब्भाओ गब्र्भ साहरिए २ हत्थुत्तराहिं जाए ३ हत्थुत्तराहिं मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ४ हत्थुत्तराहिं अनंते अणुत्तरे निव्वाधार निरावरणे कसिणे पडिपुन्ने केवलवरनाण- दंसणे समुप्पन्ने ५ साइणा परिनिव्वुए भयवं ।। 6 ।।
ग्रन्थ का अन्त इस प्रकार है-
सनमोहो उत्तुह सामे जिणुन्नई तपपवयणस्स। संघस्स काराण विहिय अव्वं…. चरिएणं पयप उमंतस्स तुहनमिमो। इय घोऊण मुरिंतोवस्स तोमूरि निम्मलगुणेहं। आयासे उप्पइओ पत्तो सोहम्मक कप्पंमि। सूरी वियकालेणं जाणित्त निययअउपरिमाणं। संलेहणा। वहेउं अणसण..हिणादिवं(चं)पत्तो।।ठ।।
इति श्री कालिकाचार्य कथानकं समाप्तं।। ग्रं. 369।।
ग्रन्थ में प्रशस्ति इस प्रकार है-
संवत् 1485 वर्षे चैत्र शुदि 5।। रवि दिने ……. हल्ल पत्तन वास्तव्ये।। त्रि0वैकव लिखितं।
यादृशं पुस्तकं दृष्टा तादृशं लिखितं मया।
यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते।।1।।
।।श्रीः।। शुभं भवतु।।श्री।।
पाण्डुलिपि विश्लेषण-
इसमें 149 पेज हैं, अर्थात् दोनों ओर के संगणित करने पर 298 पृष्ठ हुए। इस पाण्डुलिपि की लेखन पद्धति सर्वथा निराली है, क्योंकि प्रत्येक पेज में मध्य में भी हासिये के किनोर (वार्डर) सज्जा के बराबर चैडी पट्टिका से विभाजित है। उसमें भी बाईं ओर का लेखन भाग कम है और दायीं ओर का ज्यादा है, संभी पृष्ठों का विभाजन समान है। उस पर बहुरंगी बेलबूटे बनाये गये हैं। किन्तु उस विभाजन का पंक्ति की निरंतरता पर कोई असर नहीं है। अर्थात् प्रथम भाग में जो पंक्ति प्रारंभ की गई है, वह पंक्ति लगातार दूसरे विभाग में पढ़ी जायगी। पत्रों पर स्वर्ण और चांदी से लिखा गया है, जिनमें से अधिकांश की पृष्ठभूमि को वैकल्पिक रूप से काले और लाल रंग से रंगा गया है। प्रत्येक पृष्ठ में छह पंक्तियाँ हैं। इस पाण्डुलिपि के उपयोग कर्ता हर्मन जैकोबी ने लिखा है कि कल्पसूत्र की अबतक की ज्ञात यह एकमात्र पाण्डुलिपि है।
चित्र- इसमें 45 बहुरंगी चित्र हैं, जो पत्र पर आये विषय से संबद्ध हैं। ये चित्र बहुत सुन्दर और सूक्ष्मता से बनाये गये हैं। कई चित्रों को दोहराया भी गया है। चित्र बनाने में यह ध्यान रखा गया है कि सभी चित्र पाण्डुलिपि पत्र में दायीं ओर बनाये गये हैं। इस नियम के उल्लंघन में मध्य में एक पत्र पर दांई ओर चित्र बनाया गया है और अंतिम पत्र जिसमें प्रशस्ति है, उसमें दायें-बायें दोनों ओर एक एक चित्र बना है।
प्रशस्ति से स्पष्ट है कि इस पाण्डुलिपि का लेखन विक्रम संवत् 1485, चैत्र सुदी पंचमी रविवार को संपन्न किया गया था। इसका लेखक त्रि0वैकव है, जो हल्लपत्तन का निवासी था। प्रतिलिपिकार ने अपनी ओर से एक संस्कृत श्लोक भी लिखा है, जिसका अर्थ है- ‘‘जैसी पुस्तक देखी, वैसी ही मैंने (प्रतिलिपिकार ने) लिखी है, यदि यह शुद्ध हो या अशुद्ध हो तो उसका दोष नहीं दिया जाना चाहिए।’’
पाण्डुलिपि की पूर्ण प्रति हमें उपलब्ध है, हमने इसका संपादन प्रारंभ कर दिया है। शीघ्र ही इसके यथावत पूर्ण पत्र और उसका प्राकृत पाठ तैयार करेंगे।