
ललित गर्ग
भारत का लोकतंत्र विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यह केवल संख्याओं और मतों का खेल नहीं है, बल्कि एक ऐसी जीवंत प्रक्रिया है जिसमें सत्ता और विपक्ष दोनों की समान रूप से महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सत्ता पक्ष जहां शासन संचालन और नीतियों को लागू करने के लिए जिम्मेदार होता है, वहीं विपक्ष लोकतंत्र का प्रहरी बनकर उसके हर कदम पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है, असंतोष को स्वर देता है और जनभावनाओं को दिशा देता है। लेकिन वर्तमान विपक्ष इन भूमिकाओं में नकारा साबित हो रहा है, ऐसा प्रतीत होता है कि विपक्ष अपनी ही बिसात पर मात खा रहा है, जिस तरह से विपक्ष और विशेषतः कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने वोट चोरी, ईवीएम मंें गड़बड़ी एवं मतदाता सूचियों के विशेष गहन परीक्षण पर बेतूके एवं आधारहीन आरोप लगाये हैं, उससे संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग की गरिमा एवं प्रतिष्ठा तो आहत हुई ही है, लेकिन विपक्ष की भूमिका भी कठघरे में दिख रही है। यह अच्छा हुआ कि मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने प्रेस कांफ्रेंस कर वोट चोरी सहित ऐसे ही बेहूदा, आधारहीन एवं गुमराह करने वाले राहुल गांधी के आरोपों का न केवल बिन्दुबार जबाव दिया, बल्कि उन्हें बेनकाब करते हुए यह भी कहा कि वे या तो अपने निराधार आरोपों के सन्दर्भ में शपथ पत्र दें या सात दिनों के भीतर देश से माफी मांगें। निश्चित ही राहुल गांधी को ऐसी चेतावनी देना आवश्यक हो गया था, क्योंकि वे अपने संकीर्ण एवं स्वार्थी राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिये लोकतंत्र की संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को धुंधलाने की सारी हदें पार चुके हैं।
हाल के दिनों में जिस तरह चुनाव आयोग, मतदाता सूची और वोट चोरी के आरोपों को लेकर बहस छिड़ी है, उसने इस प्रश्न को फिर से गहराई से सोचने को बाध्य किया है कि क्या लोकतंत्र में विपक्ष बेबुनियाद आरोप लगाते हुए अपनी भूमिका को प्रश्नों के घेरे में कब तक डालता रहेगा? विपक्ष बिना ठोस प्रमाण के बड़े आरोप लगाकर लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े कर देता है। क्या जनहित के नाम पर जनता के व्यापक हित से जुड़े सुधारों का विरोध करना विपक्ष का शगल बन गया है? पिछले एक दशक से विपक्ष लोकतंत्र को सशक्त बनाने की अपनी भूमिका की बजाय उसे कमजोर एवं जर्जर करने में जुटा है। उसने सत्ता-पक्ष को घेरने के लिये जरूरी मुद्दों को सकारात्मक तरीकों से उठाने की बजाय विध्वंसात्मक तरीकों से विकास के जनहितकारी मुद्दों को भी विवाद का मुद्दा बनाते हुए सारी हदें पार कर पार दी है। आधार को बैंक अकाउंट से जोड़ने का मामला हो या अनुच्छेद 370 को खत्म करना हो। सीएए-एनआरसी का मामला हो या हाल में चुनाव आयोग द्वारा बिहार में मतदाता सूची का विशेष गहन परीक्षण अभियान हो। विपक्ष मोदी सरकार के इन विकासमूलक सुधारों को जनहित के खिलाफ बताते हुए मुखर विरोध कर रहा हैं, जो लोकतंत्र को धुंधलाने की एक बड़ी साजिश प्रतीत होती है। निश्चित ही विपक्ष की इस खींचतान में सबसे बड़ी क्षति जनता की आस्था की होती है। जब चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता संदिग्ध बनाई जाती है, तो लोकतंत्र की नींव हिलने लगती है। लोकतंत्र में हार-जीत से भी बड़ा मुद्दा चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता होता है।
विपक्ष केवल सत्ता की आलोचना करने के लिए नहीं है। उसका दायित्व है कि वह जनता की समस्याओं जैसे बेरोजगारी, महंगाई, जीएसटी की अतिश्योक्तिपूर्ण वसूली, पर्यावरण, सफाई, नारी की असुरक्षा जैसे ज्वलंत मुद्दों को उजागर करे, ठोस विकल्प प्रस्तुत करे और लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती में योगदान दे। केवल आरोप-प्रत्यारोप में उलझकर यदि विपक्ष अपनी ऊर्जा खर्च कर देता है तो वह जनता का विश्वास खो देता है। यही कारण है कि आज विपक्ष की स्थिति कमजोर मानी जा रही है, क्योंकि वह केवल आरोप लगाता हुआ दिखता है, समाधान प्रस्तुत करने में पिछड़ जाता है। सत्ता पक्ष को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र केवल बहुमत से नहीं चलता, बल्कि सहमति और पारदर्शिता से भी चलता है। यदि विपक्ष लगातार सवाल उठा रहा है तो सत्ता पक्ष का कर्तव्य है कि वह धैर्यपूर्वक उत्तर दे, जाँच के रास्ते खोले और हर आरोप को तथ्यों से परखे। विपक्ष को नकार देना लोकतंत्र को कमजोर करना है। जब सत्ता और विपक्ष के बीच टकराव बढ़ता है, तब न्यायपालिका अंतिम सहारा बनती है। यही कारण है कि आज बार-बार सुप्रीम कोर्ट से हस्तक्षेप की माँग उठती है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है, क्योंकि इसका अर्थ है कि जनता और राजनीतिक दल चुनाव आयोग व अन्य संवैधानिक संस्थाओं पर भरोसा नहीं कर पा रहे। इसलिए न्यायपालिका की भूमिका भी अब केवल विवाद सुलझाने की नहीं रह गई है, बल्कि लोकतंत्र के विश्वास को पुनः स्थापित करने की हो गई है, जबकि यह कार्य राजनीतिक दलों एवं चुनी हुई सरकारों का होता है।
लोकतंत्र का सार यही है कि सत्ता और विपक्ष दोनों एक-दूसरे के पूरक हों, शत्रु नहीं। विपक्ष को केवल विरोध की राजनीति से बाहर आकर वैकल्पिक दृष्टिकोण देना होगा, और सत्ता-पक्ष को भी यह समझना होगा कि विपक्ष की आलोचना लोकतंत्र का अभिन्न हिस्सा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रारंभ से ही विपक्ष को महत्व दिया है, उन्होंने संवेदनशील सरकार के साथ सृजनात्मक नेतृत्व का परिचय दिया है लेकिन विपक्ष जब आग्रह, पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह से घिरा हो तो सकारात्मक दिशाएं कैसे उद्घाटित हो सकती है? आज की राजनीति में लोकतंत्र और विपक्ष के बीच खींचतान तेज़ है। यह टकराव लोकतंत्र को कमजोर करने वाला नहीं बल्कि उसे और परिपक्व बनाने वाला होना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि विपक्ष अपनी रचनात्मक भूमिका निभाए और सत्ता पक्ष उसकी आलोचना को स्वीकार कर उत्तरदायित्वपूर्ण जवाब दे। तभी लोकतंत्र की असली शक्ति और जनता के विश्वास को बनाए रखा जा सकता है।
लोकतंत्र की शक्ति केवल सरकार में नहीं बल्कि एक सशक्त और रचनात्मक विपक्ष में भी निहित होती है। विपक्ष लोकतांत्रिक ढांचे का आवश्यक स्तंभ है, जो सत्ता पर निगरानी रखता है, नीतियों में कमियों को उजागर करता है और जनता की आवाज़ को सदन तक पहुँचाता है। लेकिन जब विपक्ष अपनी इस जिम्मेदारी को भूलकर केवल नकारात्मक राजनीति पर उतर आए, तो लोकतंत्र की नींव कमजोर होने लगती है और देश की छवि तथा स्थिरता पर गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाता है। आज भारत का विपक्ष जिस तरह संसद को ठप करने, व्यक्तिगत हमलों, दुष्प्रचार और असंवेदनशील आचरण पर आमादा है, उसने लोकतंत्र की गरिमा को ठेस पहुँचाई है। संसद सत्र, जहाँ जनता की समस्याओं का समाधान खोजा जाना चाहिए, वहाँ विपक्ष का रवैया अवरोध पैदा करने वाला अधिक दिखता है। महत्वपूर्ण विधेयकों पर सार्थक चर्चा के बजाय नारेबाज़ी और वॉकआउट आम बात हो गई है। यह स्थिति केवल सरकार ही नहीं, पूरे राष्ट्र के लिए घातक है। इतिहास गवाह है कि जब-जब विपक्ष ने रचनात्मक भूमिका निभाई है तो लोकतंत्र और मजबूत हुआ है। 1977 में आपातकाल के विरोध से लेकर 1989 तक विपक्ष ने लोकतंत्र को बचाने और पुनर्जीवित करने का कार्य किया। लेकिन 2014 के बाद से जिस तरह विपक्ष अपरिपक्व, निरंतर बिखरा हुआ, नेतृत्वविहीन और नकारात्मक एजेंडे पर केंद्रित रहा है, उसने लोकतांत्रिक संस्कृति को आघात पहुँचाया है।
विदेशी ताकतें हमेशा से भारत की आंतरिक कमजोरी का फायदा उठाने की फिराक में रहती हैं। जब विपक्ष सरकार की नीतियों का विरोध करने के नाम पर राष्ट्र-विरोध, राष्ट्रीय सुरक्षा, सेना की कार्रवाई या विदेश नीति तक पर सवाल उठाने लगता है, तो इसका सीधा लाभ पाकिस्तान और चीन जैसे देशों को मिलता है। अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि को धूमिल करना विपक्ष का उद्देश्य नहीं होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से हालात यही इशारा कर रहे हैं। लोकतंत्र में मतभेद होना स्वाभाविक है, लेकिन मतभेद को ‘विघटन’ में बदल देना खतरनाक है। विपक्ष को याद रखना होगा कि उसकी जिम्मेदारी केवल सत्ता पाने की नहीं, बल्कि देश की स्थिरता और विकास को सही दिशा देने की भी है। अगर विपक्ष अपने दायित्वों को नकारात्मक राजनीति में खोता रहा तो यह न केवल उसके लिए बल्कि पूरे लोकतंत्र के लिए आत्मघाती सिद्ध होगा। आज समय की मांग है कि विपक्ष आत्ममंथन करे, अपनी नीतियों और रणनीतियों को परखे तथा केवल विरोध के लिए विरोध करने की बजाय वैकल्पिक दृष्टि और ठोस समाधान प्रस्तुत करे। यही सच्चे लोकतंत्र का तकाज़ा है और यही राष्ट्रहित का मार्ग।