
अजेश कुमार
भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाता है। यह केवल आकार या मतदाताओं की संख्या के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी संवैधानिक संस्थाओं की मजबूती और चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता के कारण ऐसा माना जाता है। चुनाव आयोग इस लोकतंत्र की रीढ़ मानी जाती है। वही संस्था, जो यह सुनिश्चित करती है कि हर पांच साल पर या जब भी चुनाव हों, वे स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से संपन्न हों। मगर, जब इसी संस्था की निष्पक्षता पर ही सवाल उठने लगें, तो यह किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सबसे बड़ा खतरा साबित हो सकता है।
आज भारत में यही स्थिति उभरती दिख रही है। मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के खिलाफ विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लॉक महाभियोग लाने की तैयारी कर रहा है। यह कदम सिर्फ एक संवैधानिक प्रक्रिया भर नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की बुनियाद और संस्थागत निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े करता है। आखिर देश के सर्वोच्च चुनाव अधिकारी पर विपक्ष इतना आक्रामक क्यों है? क्या यह केवल राजनीतिक बयानबाजी है, या सचमुच चुनाव आयोग की निष्पक्षता संदिग्ध हो चुकी है? और सबसे अहम सवाल, क्या भारत की संवैधानिक व्यवस्था इतनी मजबूत है कि ऐसे विवादों से लोकतंत्र की बुनियाद हिलने से बचाई जा सके?
विपक्षी दलों का आरोप है कि ज्ञानेश कुमार अपनी भूमिका में निष्पक्ष नहीं दिख रहे। कांग्रेस महासचिव के.सी. वेणुगोपाल का आरोप है कि हाल ही में हुई प्रेस कॉन्फ़्रेंस में सीईसी ने एक स्वतंत्र संवैधानिक प्राधिकारी की तरह नहीं, बल्कि बीजेपी प्रवक्ता की तरह बात की। यह आरोप साधारण बयानबाजी नहीं है, क्योंकि यह सीधे-सीधे चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर प्रहार करता है। विपक्ष का कहना है कि जब राहुल गांधी और अन्य नेताओं ने मतदाता सूची में धांधली, बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर), महाराष्ट्र व हरियाणा में वोटर लिस्ट में गड़बड़ी जैसे गंभीर मुद्दे उठाए, तो सीईसी ने ठोस जवाब देने की बजाय मजाक उड़ाया और तंज कसा।
दूसरी तरफ, ज्ञानेश कुमार का बचाव है कि ये सारे आरोप निराधार और राजनीतिक हैं। उनका कहना है कि अगर वाकई वोट चोरी जैसी कोई संगीन बात है, तो विपक्ष को शपथपत्र देकर औपचारिक रूप से आरोप सिद्ध करना चाहिए। वरना यह केवल चुनावी प्रणाली और लाखों ईमानदार चुनावकर्मियों की छवि धूमिल करने की कोशिश है। यहां सवाल सिर्फ व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप का नहीं है, बल्कि पूरे लोकतंत्र की विश्वसनीयता का है, क्योंकि यदि मतदाता ही यह मानने लगें कि चुनाव आयोग पक्षपाती है, तो मतदान की वैधता पर गंभीर संदेह खड़ा हो जाएगा।
विवाद का मूल बीज राहुल गांधी की 7 अगस्त की प्रस्तुति से जुड़ा है। उन्होंने करीब एक घंटे तक विभिन्न उदाहरण पेश किए और दावा किया कि मतदाता सूची में जानबूझकर गड़बड़ियाँ की जा रही हैं। उनका आरोप है कि यह तकनीकी त्रुटि नहीं, बल्कि विपक्षी मतदाताओं को सूची से हटाने की सुनियोजित रणनीति है। उन्होंने बिहार में चल रहे एसआईआर को भी वोट काटने की साजिश करार दिया।
तेजस्वी यादव ने भी इस मुद्दे को उछालते हुए कहा कि बिहार में पुनरीक्षण प्रक्रिया जल्दबाजी और मनमानी से की जा रही है। उनके मुताबिक, लाखों गरीब और हाशिये के तबके के मतदाता सूची से गायब हो रहे हैं। यही कारण है कि कांग्रेस और राजद ने वोटर अधिकार यात्रा की शुरुआत की, ताकि इस मुद्दे को संसद से बाहर जनता के बीच भी जीवित रखा जा सके। यदि, विपक्ष इस मुद्दे को केवल बयानबाजी तक सीमित रखता, तो शायद इसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाता। मगर, जब इसे जनआंदोलन का रूप देने की तैयारी दिख रही है, तब यह लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती बन जाती है।
चुनाव आयोग ने सभी आरोपों को खारिज करते हुए विपक्ष से सबूत मांगें हैं। ज्ञानेश कुमार ने यहां तक कहा कि राहुल गांधी को या तो हलफ़नामा देकर प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए या फिर पूरे देश से माफी मांगनी चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि वोट चोरी जैसे शब्द केवल चुनाव आयोग पर ही नहीं, बल्कि देश के करोड़ों मतदाताओं की ईमानदारी पर हमला हैं। महाराष्ट्र के उदाहरण में उनका कहना था कि जब ड्राफ्ट लिस्ट प्रकाशित हुई थी, तब आपत्ति क्यों नहीं उठाई गई? बिहार के मामले में उन्होंने याद दिलाया कि एसआईआर की प्रक्रिया 2003 में भी अपनाई गई थी और तब इसे विवादास्पद नहीं माना गया था। यह तर्क सतही तौर पर मजबूत दिखते हैं, लेकिन राजनीतिक माहौल में इन्हें आयोग की आक्रामक और पक्षपातपूर्ण भाषा कहकर खारिज किया जा रहा है। यहां तक कि आयोग का बचाव भी राजनीतिक रंग में रंगा हुआ प्रतीत हो रहा है।
अब बड़ा सवाल यह है कि क्या विपक्ष सचमुच महाभियोग के जरिए मुख्य चुनाव आयुक्त को हटा सकता है? संविधान के अनुच्छेद 324(5) के तहत, मुख्य चुनाव आयुक्त को केवल उन्हीं परिस्थितियों में हटाया जा सकता है, जिनमें सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को हटाया जाता है। इसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित होना आवश्यक है और आरोप साबित होने चाहिए कि सीईसी ने दुर्व्यवहार किया है या वे अक्षम हैं।
यह प्रक्रिया इतनी कठिन इसलिए रखी गई है, ताकि राजनीतिक दबाव में चुनाव आयोग की स्वायत्तता प्रभावित न हो सके। यही कारण है कि किसी अन्य चुनाव आयुक्त को भी सीईसी की सिफारिश के बिना नहीं हटाया जा सकता। व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में, जब संसद में बीजेपी नीत एनडीए का स्पष्ट बहुमत है, विपक्ष के लिए यह लक्ष्य लगभग असंभव है। महाभियोग की पहल करना संभव है, लेकिन उसे पारित कराना फिलहाल राजनीतिक वास्तविकता से परे है।
ज्ञानेश कुमार पहले ऐसे सीईसी हैं, जिन्हें 2023 के मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और कार्यकाल) अधिनियम के तहत नियुक्त किया गया। इस कानून में प्रावधान है कि चुनाव आयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी होने चाहिए और उनके पास चुनाव प्रबंधन का अनुभव होना चाहिए। चयन समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और एक केंद्रीय मंत्री शामिल होते हैं।
विपक्ष का तर्क है कि इस कानून ने नियुक्ति प्रक्रिया को सरकार-परस्त बना दिया है, क्योंकि प्रधानमंत्री और कैबिनेट मंत्री मिलकर समिति में बहुमत रखते हैं, और विपक्ष के नेता की भूमिका औपचारिक रह जाती है। यही कारण है कि ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति के साथ ही विपक्ष ने उन पर सरकार-नजदीकी का ठप्पा लगा दिया। महाभियोग की प्रक्रिया शुरू करने का विपक्ष का कदम महज संवैधानिक लड़ाई नहीं, बल्कि एक राजनीतिक रणनीति भी है। विपक्ष यह संदेश देना चाहता है कि वह चुनाव आयोग को सरकार का उपकरण बनने नहीं देगा। भले ही प्रस्ताव पारित न हो, लेकिन इस चर्चा से विपक्ष को यह लाभ मिल सकता है कि वह जनता के बीच खुद को लोकतंत्र का असली रक्षक साबित करे। हालांकि, इसमें जोखिम भी है। यदि, विपक्ष अपने आरोपों को ठोस सबूतों से साबित करने में विफल रहा, तो यह धारणा बन सकती है कि उसने केवल चुनाव आयोग की साख गिराने के लिए आरोप लगाए। यह स्थिति उल्टा असर डाल सकती है और जनता में यह संदेश जा सकता है कि विपक्ष चुनावी हार से पहले ही बहाने बना रहा है।
भारत का लोकतंत्र इस भरोसे पर टिका है कि चुनाव आयोग निष्पक्ष है और हर मतदाता का वोट सुरक्षित है। यदि, यह भरोसा टूटता है तो चुनाव महज एक रस्मी प्रक्रिया बनकर रह जाएंगे, जिसमें परिणाम पहले से तय मान लिए जाएंगे। यही कारण है कि सीईसी को हटाने की प्रक्रिया कठिन बनाई गई है। मगर, केवल कानूनी सुरक्षा पर्याप्त नहीं है। वास्तविक मजबूती चुनाव आयोग के आचरण, भाषा और निर्णयों से आती है। अगर, किसी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में मुख्य चुनाव आयुक्त की भाषा राजनीतिक प्रतीत होती है, तो वह खुद अपनी संस्था की साख को कमजोर करता है। ऐसे में जरूरी है कि आयोग न केवल निष्पक्ष हो, बल्कि निष्पक्ष दिखे।
कुल मिलाकर, विपक्ष का महाभियोग प्रस्ताव केवल एक संवैधानिक औपचारिकता नहीं है, बल्कि यह एक चेतावनी है कि देश में चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर गहरा अविश्वास पनप रहा है। यह सरकार बनाम विपक्ष का मुद्दा नहीं, बल्कि लोकतंत्र की बुनियाद को हिलाने वाला संकट है। भारत के लोकतंत्र की मजबूती इस पर निर्भर करती है कि चुनाव आयोग पर जनता का भरोसा कितना कायम रहता है। विपक्ष को चाहिए कि वह अपने आरोप ठोस सबूतों के साथ रखे, और चुनाव आयोग को चाहिए कि वह अपनी भाषा और आचरण से हर संदेह को दूर करे। सबसे अहम सवाल यही है कि क्या भारत का लोकतंत्र इतनी परिपक्वता दिखा पाएगा कि इन सवालों का समाधान केवल राजनीतिक खींचतान से नहीं, बल्कि संस्थागत पारदर्शिता और जवाबदेही से हो? अगर नहीं, तो वह दिन दूर नहीं जब चुनाव केवल उत्सव बनकर रह जाएंगे, पर उनकी आत्मा निष्पक्षता और विश्वास खो जाएगी।