
कुलदीप सिंह
यह सच है कि कोचिंग शिक्षण एक व्यवसाय है। उसमें गुरू शिष्य का संबन्ध न होकर के ग्राहक व्यापारी का संबन्ध ज़्यादा होता है। छात्र अपने हित के लिए पाठ्यक्रम (कॉर्स) खरीदता है उसका चयन संस्थान की गुणवत्ता में वृद्धि करता है अतः संस्थान मार्केटिंग के लिए राजनीतिक दलों से भी ज्यादा बड़े बड़े होर्डिंग हर गांव गली शहर चौराहे पर टांग दिया करता है।
प्रिंट मीडिया, प्रेस मिडिया और आज कल सोशल मीडिया को माध्यम बनाकर छात्र छात्राओं को लुभाने का पूरा प्रयास किया जाता है। सरकारी सेवा से प्राप्त सुविधाएं और समाज में इसकी प्रतिष्ठा के कारण विधार्थी भी येन केन तरीके से सफ़लता प्राप्त करने हेतू प्रयासरत रहता है। सफ़लता के होर्डिंग, सफ़लता के उत्सव और बड़े बड़े सेमिनार में सुनने को आएं हजारों हज़ार बेरोजगार छात्रों का बड़ा सा समूह, सम्मान समारोह और उनसे वायरल छोटी छोटी रील किसी को भी बहुत जल्दी सामाजिक प्रतिष्ठा दिला सकता हैं।
इस समय हम सभी अपनी एक विशेष पहचान बनाने के लिए अधिक उत्सुक रहते है। इस कोचिंग संस्कृति के पनपने के कारणों की तलाश की जाएं तो हमें बहुत गहराई में उतरना होगा। आख़िर यह सब कुछ कैसे विकसित हुआ तो कुछेक कारण उल्लेखित है:–
1 विद्यालय स्तर पर हमारा शिक्षा तंत्र पूर्ण रूप से धराशाही हो चुका है। आज विद्यालय ज्ञान की गुणवत्ता की बजाय सुविधाओं पर अधिक ध्यान देने में व्यस्त है। बच्चों के लिए स्कूल का चयन करते समय हमारे मायने उसकी अवसंरचना, फेसिलिटी, पब्लिक इमेज, फैंसी ड्रेस आदि सब है। ऐसे में मांग के अनुसार शिक्षण संस्थानों ने भी अपनी आपूर्ति व्यवस्था में बदलाव कर दिया। आज स्कूल अध्यापकों के ज्ञान, शिक्षण विधियों और छात्र शिक्षक सवांद की बजाय सुविधाओं को बढ़ाने और उसके प्रचार प्रसार में व्यस्त है।
2 बालक की नींव ही इतनी कमज़ोर रह जाती है कि कंगूरे का पहला पत्थर रखते ही परते उघड़ने लगती है। उसके बाद पासिंग मार्क्स के लिए रटंत विद्या के सहारे 90+ अंक लाकर भी बालक अपने फ़ैसले लेने में सक्षम नहीं होता है।
3 उच्च शिक्षा में हालात इससे भी बदतर है। सरकारी कॉलेजों में शिक्षा ग्रहण करना तो खुद को भविष्य के लिए खतरे में डालने जैसा हो चुका है। कॉलेज में न तो व्यवस्थित रूप से कक्षाएं लगती है और न ही व्याख्याताओं को समय पर आकर व्याख्यान देने की आदत है। झूठे उपस्थिति रजिस्टर बनवा कर सभी छात्र अपनी शिक्षण योग्यताओं में प्रतिवर्ष एक कक्षा का इजाफा करते है। इतने सब के बावजूद रही सही कसर वन वीक ने पूरी कर दी है। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि परीक्षा में 90 से 95% सवाल उसी वन वीक में से ही आते है।
4 व्याख्यानों की बोझिल और बोरिंग यंत्रवत तकनीक, पढ़ाने के पुराने तरीके, 90/95 के बनाएं नॉट्स आज भी कामचलाऊ तौर ही प्रयुक्त होते है। इससे विद्यार्थी की रुचि जगा पाना मुश्किल है। बिना रुचि के वाद सवांद के नवीन ज्ञान का निर्माण असंभव है।
5 B.Ed और BSTC डिप्लोमा कोर्स की तो बात करना ही व्यर्थ है। शिक्षक बनाने की ट्रेनिग कहे जाने वाले कॉर्स महज वन वीक आधारित हो चुके है। ऐसे में पास होकर निकले छात्र आख़िर कैसे अच्छे अध्यापक बनेंगे यह कल्पना करना मुश्किल है।
6 PHD रिसर्च के लिए सरकार छात्रों पर लाखों करोड़ो रुपए ख़र्च करती हैं। विगत कुछ वर्षों में कितनी सार्थक नवीन रिसर्च सफ़ल हुईं यह सुनने में ही नहीं आता है। इतनी मोटी रकम डकार कर छात्र लुत्फ़ आनन्द का भोग कर रहे हैं।
इतनी कमज़ोर नींव के बाद सरकारी सेवा में उतरने के लिए पुनः उसी ज्ञान के आधार पर परीक्षाएं उत्तीर्ण करनी होती है। ऐसे में कोचिंग संस्कृति का विकास होना कोई बड़ा आश्चर्य का विषय नहीं है। इस व्यवसायी दुनियां के लोग अधिक से अधिक कमाई के लिए हर संभव प्रयास करते है। उसमें पेपर चोरी से लगाकर झूठे विज्ञापन तक सब शामिल है।
इस फलती फूलती संस्कृति को ख़त्म करने के लिए समाज और सरकार को मिलकर एक योजनाबद्ध तरीके से काम करना होगा। अन्यथा आज़ के मोटिवेट स्पीकर, रील हीरो, हमारे आने वाले कल को बर्बाद करने में कोई कसर बाकी नहीं रहने देंगे।
सरकारी विज्ञप्ति या अधिसूचना जारी होने के तुरंत बाद यू ट्यूब पर ज्ञान बघारने वाले यह शिक्षक आज मुंह सिल कर चुप क्यों बैठे है। इस पर जरा विचार करना चाहिए। जिन छात्रों के दिए शुल्क से तुम लग्जरी लाइफ मेंटेंन करते हो, जिन लोगों ने आपको आदर्श बना रखा है, जो सम्मान में आपके चरण स्पर्श करते है। आज उन बेरोजगारों के हक़ में कोई आवाज़ क्यों नहीं सुनाई देती है। इसका अर्थ महज़ इतना है कि तुम सब मात्र उनकी आमदनी के माध्यम भर हो।
पुलिस सब इंस्पेक्टर भर्ती में कुछ अवांछित तरीकों से साक्षात्कार तक पहुंचे लोग जब मॉक इन्टरव्यू में साफ़ साफ़ कह रहे थे कि हमारी लेट्रल एंट्री है तो उस समय यह संस्थान आखिर मुक दर्शक क्यों बने रहें? इन्होंने सोशल मिडिया पर आकर ऐसे लोगों के विडीयो क्यों जारी नहीं किए? कौनसी ऐसी नैतिक मर्यादाएं उन्हें बांधे हुए थी? यह सब हमारे सही गलत से ज्यादा खुद के हित में ध्यान में रखकर किया गया है ट्रेंड भर है।
कोचिंग माफियों का पूरा समूह है और सब के सब आपस में मिले हुए है। अपवाद हर जगह होते है तो इस फील्ड में भी है । सरकार को इन पर सख्त होना पड़ेगा। पेपर सेटर लोगों की टीम बदलनी होगी, पेपर पैट्रन बदलने होंगे, उपस्थिति से लेकर मूल्यांकन तक हर क्षेत्र में तकनीक के प्रयोग को बढ़ावा देना होगा। पुरानी लचर व्यवस्था को जड़ से दूरस्थ करने की आवश्यकता है।
एक समिति बनाकर अच्छा प्लान तैयार करना चाहिए इसके बाद क्रमश यह संस्कृति ख़त्म करने का काम करना होगा। यह बदलाव एक फ़ैसले और एक दिन से नहीं आने वाले है। इसके लिए 10-12 वर्ष की लंबी योजना बनाकर काम करना होगा। तभी आने वाली पीढ़ी में परिवर्तन सार्थक हो पाएंगे।|