शिशिर शुक्ला
हमारा देश वर्तमान में विभिन्न चुनौतियों का सामना कर रहा है। यदि गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए, तो इन चुनौतियों में सबसे बड़ी चुनौती बढ़ती जनसंख्या से उत्पन्न विविध समस्याओं से निपटने की है। विश्व के अनेक देशों के साथ-साथ भारत के ऊपर भी जनसंख्या विस्फोट की महाविपदा अपना कहर बरपा रही है। जहां विश्व के क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत हमारे भारत की सीमाओं में समाहित है, वहीं विश्व की कुल जनसंख्या का 17.5 प्रतिशत यहां वास करता है। दिन प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या की समस्या धीरे-धीरे अपना विकरालतम रूप धारण करती जा रही है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत में औसतन प्रति मिनट 25 बच्चे जन्म लेते हैं। यदि जनसंख्या वृद्धि इसी तीव्र दर से होती रही, तो वर्ष 2030 तक भारत जनसंख्या के मामले में चीन को पछाड़कर विश्व में प्रथम स्थान पर पहुंच जाएगा।
इस ज्वलंत समस्या को तह तक समझने के लिए सर्वप्रथम इसे उत्पन्न करने वाले कारणों पर दृष्टिपात करना आवश्यक है। हमारे देश में जनसंख्या की अनियंत्रित वृद्धि का एक प्रमुख कारण है- यहां के जनमानस में व्याप्त रूढ़िवादी मानसिकता। अशिक्षा के अभिशाप के कारण हमारे देश में रूढ़िवादी व अतार्किक विचारों की संकीर्णता आज भी जन जन के मन मस्तिष्क में विद्यमान है। जहां एक ओर दुनिया मंगल पर जीवन की तलाश में लगी है, वहीं हमारे यहां लोग आज भी “बच्चे ईश्वर की देन” एवं “मोक्ष प्राप्ति हेतु पुत्र” जैसे संकुचित विचारों से ओतप्रोत हैं। पुत्रप्राप्ति की कामना जनसंख्या की अनियंत्रित वृद्धि में एक बड़ी भूमिका अदा करती है। हमारे देश में दुर्भाग्यवश आज भी बेटा व बेटी को एकसमान दर्जा प्राप्त नहीं है। पुत्र की प्राप्ति को सौभाग्य का प्रतीक एवं पुत्रीजन्म को एक अभिशापतुल्य समझा जाता है। इसके अतिरिक्त भारत की गर्म जलवायु, जन्म दर एवं मृत्यु दर के बीच असंतुलन, समाज की पुरुषप्रधानता, स्त्री शिक्षा का अभाव, दूरदर्शिता व जागरूकता की कमी आदि कुछ अन्य कारक हैं जो जनसंख्या वृद्धि के लिए उत्तरदायी हैं। आज भी वृहद परिवार को शक्ति एवं प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता है। जन्मदर एवं साक्षरता दर में कहीं न कहीं व्युत्क्रमानुपात का संबंध होता है। इसे भारत के दो राज्यों -केरल एवं बिहार का उदाहरण लेकर भली-भांति समझा जा सकता है।
जनसंख्यावृद्धि वस्तुतः एक ऐसी समस्या है, जोकि अनेक समस्याओं को उत्पन्न करती है। तीव्र जनसंख्यावृद्धि का सबसे भयंकर एवं गंभीर दुष्परिणाम बढ़ती हुई बेरोजगारी के रूप में दिखाई देता है। जनसंख्या बढ़ने के साथ ही धरा पर उपलब्ध विभिन्न संसाधनों के दोहन की दर भी स्वतः ही बढ़ जाती है। संसाधनों का अतिशय दोहन होने पर वे समाप्त होने के कगार पर पहुंचने लगते हैं एवं साथ ही साथ पर्यावरण पर भी कुप्रभाव पड़ता है। जनसंख्या के बढ़ने से कृषि भूमि तीव्र गति से आवासीय भूमि में परिवर्तित हो रही है, जिसका दूरगामी दुष्परिणाम खाद्य संकट की विकराल स्थिति है। एक बड़े पैमाने पर ग्रामीण जनसंख्या ने सुविधाओं की तलाश में शहर की ओर पलायन प्रारंभ किया है। शहर जोकि पहले से ही मूलभूत सुविधाओं को लेकर दबाव की स्थिति में हैं, उनके लिए नए बसने वाले लोगों को झेलना क्षमता से बाहर की बात हो जाती है। अंततः, परिणाम यह है कि जीवन की मूलभूत सुविधाओं यथा- भोजन, जल, आवास इत्यादि का परिदृश्य भयावह सा प्रतीत होने लगा है। प्रत्येक क्षेत्र में भीड़ बढ़ने से रोजगार की समस्या उत्पन्न होना स्वाभाविक बात है। आजीविका हेतु संघर्षरत युवा वर्ग भ्रष्टाचार जैसे अभिशाप का दंश झेलने को विवश हो रहा है। व्यवस्था के प्रति असंतोष की परिणति शनैः शनैः आक्रोश में होने लगती है एवं जब यह आक्रोश अपनी सीमा को लांघ जाता है, तब युवावर्ग चारित्रिक पतन एवं अपराध के मार्ग पर चलने को विवश हो जाता है। जनसंख्यावृद्धि ने देश में बेरोजगारों की एक फौज खड़ी कर दी है, जिससे देश का आर्थिक विकास प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ है। अपर्याप्त संसाधनों के कारण गरीबी, कुपोषण, भुखमरी और महंगाई जैसी भयावह स्थितियां दिनप्रतिदिन देश को अपनी चपेट में लेने पर उतारू हैं। जनसंख्या की समस्या ने देश को चुनौतियों की एक ऐसी सौगात दे दी है, जिससे जूझना एवं निपटना संभवत: अत्यंत दुरूह कार्य है। गरीबी एक ऐसा कारक है जोकि जनसंख्यावृद्धि का कारण भी है एवं दुष्परिणाम भी।
बढ़ती जनसंख्या एवं इससे जनित समस्याएं भारतवर्ष के लिए गहन चिंतन का विषय है। वास्तव में यदि जनसंख्या के अनुपात में प्रत्येक प्रकार के संसाधन भी उपलब्ध हों, तो जनसंख्या का आधिक्य चिंता का विषय कदापि नहीं होगा। किंतु हमारे देश में जनसंख्या के अनुपात में संसाधन उपलब्धता अति न्यून है। यहां की जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग आज भी मूलभूत आवश्यकताओं एवं सुविधाओं की पूर्ति के लिए परेशान है। इस ज्वलंत समस्या के निराकरण हेतु, छोटे से बड़े, प्रत्येक स्तर पर पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ ठोस कदम उठाकर एक सार्थक पहल करने की आवश्यकता है। हमें सात्विक विचार एवं संयमित जीवनशैली को अपनाने के लिए जन-जन को जागरूक करना होगा। साथ ही “दूधो नहाओ पूतो फलो” की मान्यता के स्थान पर “हम दो हमारे दो” जैसी अवधारणाओं पर बल देना होगा। इस दिशा में शासन के स्तर से भी गंभीरतापूर्वक कदम उठाए जाने की महती आवश्यकता है। सरकार को महिला शिक्षा पर जोर देकर महिलाओं को संकीर्ण व अतार्किक मानसिकता से बाहर निकलने का अवसर देना चाहिए। सीमित परिवार अर्थात एक या दो बच्चों वाले परिवार हेतु कुछ विशेष सुविधाओं का बंदोबस्त शासन स्तर से होना चाहिए। अर्थशास्त्री माल्थस के अनुसार, “यदि जनसंख्या को आत्मसंयम व कृत्रिम संसाधनों के द्वारा नियंत्रित न किया गया, तो प्रकृति अपने क्रूर हाथों से इसे नियंत्रित कर सकती है”। इस कथन की सत्यता को समय-समय पर आने वाली प्राकृतिक आपदाओं में अनुभव किया जा सकता है। सारांशतः यही कहा जा सकता है कि यदि जनसंख्या वृद्धि की ज्वलंत समस्या के त्वरित समाधान हेतु कोई सकारात्मक कदम न उठाया गया, तो वह दिन दूर नहीं जब मानव को पृथ्वी पर खड़े होने के लिए जगह नहीं मिलेगी।