प्रेम प्रकाश
राम मंदिर के मुख्य शिखर पर धर्म ध्वज फहराने की बड़ी घटना का साक्षी जो लोग बनने जा रहे हैं उनमें अनुसूचित और पिछड़े वर्ग के लोग सर्वाधिक हैं। आयोजन का यह लोक स्वरूप और उससे जुड़ा विवेकपूर्ण औचित्य यह दिखाता है कि सनातन आस्था को तमाम विभाजनकारी आक्षेपों से ऊपर रखते हुए आज का भारत अपने राष्ट्रीय विवेक को गढ़ने में सफल रहा है। यह बीते एक दशक में भारतीय चित्त और मानस में आया बड़ा परिवर्तन है, जिसका प्रतिबिंबन देश में एक के बाद एक लोकतांत्रिक निर्णयों और राजधर्म में भी दिख रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो बाबरी मस्जिद के पूर्व पक्षकार इकबाल अंसारी राम मंदिर पर धर्म ध्वजारोहण कार्यक्रम का निमंत्रण पाकर अभिभूत नहीं होते।
दरअसल, भारत अपने चित्त, मानस और काल को आज निज और स्वायत्त बोध से न सिर्फ जोड़ रहा है, बल्कि इससे वह भविष्य के लिए ऊर्जा और दिशा का भी निर्धारण कर रहा है। दिशा, बोध और आदर्श की यह त्रिवेणी असाधारण है। इसमें एक तरफ जहां परंपरा का सतत बोध है, वहीं अपने आध्यात्मिक-सांस्कृतिक आदर्श और नायकत्व को लेकर गहरी समझ भी है। भारत की इस सांस्कृतिक विलक्षणता पर समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया ने बहुत सुंदर तरीके से विचार किया है। इस विषय पर उनका महत्वपूर्ण आलेख है- राम, कृष्ण और शिव। इसमें उन्होंने ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित भारत की नायक परंपरा को लेकर कहा है कि राम, कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हैं। राम की पूर्णता मर्यादित व्यक्तित्व में है, कृष्ण की उन्मुक्त या संपूर्ण व्यक्तित्व में और शिव की असीमित व्यक्तित्व में, लेकिन हर एक पूर्ण है। वैसे भी पूर्णता में विभेद कैसे हो सकता है। पूर्णता तो समावेशी होता है। आज जब अयोध्या में नवनिर्मित राम मंदिर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा धर्म ध्वज फहराए जाने की चर्चा हर तरफ है तो सनातन आस्था का सर्व-स्पर्शी और सर्व-समावेशी चरित्र एक बार फिर उभर कर सामने आता है।
यह भी एक दिलचस्प संयोग ही है कि वर्ष 2014 में जब देश की राजनीति और सांस्कृतिक विवेक ने राष्ट्रवादी अंगड़ाई ली तो भारतीय आस्था के पुराने केंद्र नए सिरे से रेखांकित हुई। भारतीय नायकत्व की त्रयी के रूप में काशी, अयोध्या और मथुरा का महत्व और उसे लेकर लोक आस्था और स्वीकृति कोई नई बात नहीं है। आज की तारीख में बात करें तो बड़ी बात यह जरूर है कि देश की सनातन आस्था का यह नव-आलोड़न न तो किसी संवैधानिक मूल्य का हनन करता है और न ही देश में स्थापित विधि और न्याय की स्थापित व्यवस्था का। इसलिए यह अकारण नहीं कि आज भारत को लेकर देश के भीतर और बाहर जिन दो नेताओं का आइकोनिक वैल्यू सबसे बड़ा है उनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सर्वप्रमुख हैं। यह भी कि घर-परिवार से लेकर चौक-चौराहे और इंटरनेट की खिड़कियों तक पसरा आस्था और नेतृत्व का यह ऑप्टिकल व्यू इकहरा नहीं है, बल्कि यह नए दौर में भारत के नवनिर्माण का बनता नया आधार और विस्तार है। अगर ऐसा नहीं होता तो अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के कुछ माह पूर्व बिहार के मिथिला क्षेत्र में माता जानकी की जन्मस्थली के रूप में विख्यात पुनौराधाम के पुनर्निर्माण को लेकर व्यापक लोक स्वीकृति और प्रसन्नता की स्थिति नहीं देखने को मिलती।
इस सिलसिले को आगे भगवान बुद्ध और महावीर से जुड़े स्थलों के संवर्धन और विकास के साथ जोड़कर देखें तो यह प्रेरणा और आस्था से जुड़े लोक मूल्यों के साथ एक सशक्त राष्ट्र के तौर पर भारत के उभार के सांस्कृतिक स्थापत्य को दिखाता है। इस असाधारण स्थापत्य के एक छोर पर जहां भारत की आर्थिक तरक्की है, वहीं दूसरे छोर पर इसके लिए संबल के तौर पर उसका सांस्कृतिक बोध है।
बात करें 25 नवंबर को अयोध्या के राम मंदिर पर धर्म ध्वजारोहण की तो यह कुल मिलाकर भारतीय संस्कृति का जय बोध और उसकी आखिल उद्घोषणा है। यह सब विवाह पंचमी के शुभ मुहूर्त पर संपन्न होने जा रहा है। मान्यताओं के मुताबिक यह वही दिन है, जब भगवान राम और माता सीता का विवाह संपन्न हुआ था। धर्म ध्वज को लेकर जो सनातन मान्यता है, उसके मुताबिक यह शक्ति, महिमा और संरक्षण की प्रखर लोक उद्घोषणा है। शास्त्रों में इसे ऊर्जा और अध्यात्म तेज का प्रकटीकरण कहा गया है। राम मंदिर पर पर फहरने जा रही ध्वज का केसरिया रंग इसलिए भी खास है क्योंकि यह लंबे समय से वीरता, त्याग, बलिदान और भक्ति का प्रतीक रहा है। ध्वज पर अंकित सूर्य का चिन्ह ऊर्जा, प्रकाश और जीवन का द्योतक है, तो इसके केंद्र में अंकित ‘ॐ’ ब्रह्मांड के प्रथम और परम उच्चारण है, जो आध्यात्मिक शक्ति और दिव्यता को दर्शाता है। ध्वज पर अंकित कचनार की प्रजाति के कोविदार वृक्ष अयोध्या का राजवृक्ष है। इस बात के कई उल्लेख मिलते हैं कि भरत जब राम को मनाने चित्रकूट गए थे, तब उनके रथ पर कोविदार अंकित ध्वज था जिसे लक्ष्मण ने दूर से ही इसे पहचान लिया था कि अयोध्या की सेना आ रही है।
वस्तुतः भारत आज सांस्कृतिक पुनर्निर्माण के उस दौर में है, जिसमें वैश्विक समकाल के बीच वह अपनी विशिष्टता को तो रेखांकित कर ही रहा है, तमाम तरह की मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए के लिए ऊर्जा और दिशा का भी निर्धारण कर रहा है। गति, दिशा और बोध की की यह त्रिवेणी असाधारण है। इसमें कल्याणकारी लोक परंपरा का सातत्य तो है ही, अपने आध्यात्मिक-सांस्कृतिक आदर्श और नायकत्व को लेकर गहरी समझ भी है।
यह बड़ी बात है कि एक ऐसे दौर में जब दुनिया में हर तरफ आदर्श और मर्यादा का लोप और क्षरण हो रहा है, तो भारत अपनी परंपरा और यशस्वी प्रतीकों के साथ आगे बढ़ रहा है। लोक और परंपरा के इस समावेशन में सबके लिए मान और स्थान है। यह रामराज्य की वह विराट संकल्पना है, जो संविधान की मूल प्रति के साथ भारतीय जनमानस के हृदय पर भी अंकित है। देश की सत्ता और राजनीति की सतही व्याख्या से कई बार बदलते देश और देशकाल को सही तरीके से देख-समझ नहीं पाते हैं। लिहाजा मौजूदा समय की यह भी एक दरकार है कि बदलते भारत के बोध और विवेक को हम तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर देखें।





