सुनील कुमार महला
विश्व विकलांग दिवस हर साल 3 दिसंबर को मनाया जाता है। 2025 में यह दिन बुधवार, 3 दिसंबर को मनाया जाएगा। वास्तव में इस दिवस की शुरुआत की नींव 1981 में डाली गई थी, जब संयुक्त राष्ट्र महासभा) ने 1981 को ‘दिव्यांगजन वर्ष’ घोषित किया था। दूसरे शब्दों में कहें तो इस दिवस का मूल विचार 1981 के ‘इंटरनेशनल ईयर ऑफ डिसएबल्ड पर्सन्स’ से आया था। इसके बाद वर्ष 1983–1992 तक को ‘विकलांग व्यक्तियों का दशक’ घोषित किया गया तथा 1992 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा प्रस्ताव 47/3 के माध्यम से, 3 दिसंबर को आधिकारिक ‘अंतरराष्ट्रीय विकलांग दिवस’ घोषित किया गया।यही कारण है कि 1992 से हर साल लगातार दुनिया के लगभग हर देश में इसे मनाया जा रहा है।विश्व विकलांग दिवस मनाने के प्रमुख उद्देश्यों की बात करें तो इसमें क्रमशः विकलांगता (दिव्यांगता) से प्रभावित लोगों के अधिकारों, गरिमा, कल्याण और सामाजिक समावेशन के प्रति जागरूकता बढ़ाना, उनका विभिन्न क्षेत्रों जैसे कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि में समान भागीदारी, पूर्ण और सक्रिय समावेशन; विकलांगों के प्रति समाज के दृष्टिकोण, नीतियों, वातावरण में बदलाव की मांग करना कि विकलांगता कोई कमजोरी नहीं है; तथा विकलांगों के कानूनी, शैक्षिक, सामाजिक और कर्मचारी स्तर पर न्याय, अवसर समानता, पहुँच, समावेशन एवं सम्मान को सुनिश्चित करना है। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि इस वर्ष यानी कि 2025 में इस दिवस की थीम-‘समाज-प्रगति के लिए विकलांगता-समावेशी समाज का निर्माण’ रखी गई है। हाल फिलहाल, यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि अगर हमें हमारे समाज व देश को आगे बढ़ाना है, गरीबी कम करनी है, सभी के लिए रोजगार और बराबरी के अवसर बनाने हैं, तो विकलांग लोगों को भी पूरी तरह शामिल करना बहुत जरूरी है। उन्हें केवल मदद पाने वाले लोगों के रूप में नहीं, बल्कि समाज के लिए उपयोगी, योगदान देने वाले और समान अधिकारों वाले नागरिकों के रूप में देखा जाना चाहिए। यह दिवस सिर्फ विकलांगों के लिए सहानुभूति का दिन मात्र नहीं है।इसका उद्देश्य उन्हें सशक्त भागीदार के रूप में देखना है, जो समाज, अर्थव्यवस्था और देश के विकास में बराबर की भूमिका निभाते हैं।सच तो यह है कि विकास का कोई भी लक्ष्य तब तक पूरा नहीं माना जाता, जब तक इसमें विकलांग व्यक्तियों को शामिल न किया जाए। आज समाज में ‘विकलांग’ की जगह ‘दिव्यांगजन’ शब्द का प्रयोग किया जा रहा है, क्योंकि यह अधिक सम्मानजनक और सकारात्मक है। ‘विकलांग’ शब्द में कहीं न कहीं कमी का भाव झलकता है, जबकि ‘दिव्यांगजन’ यह बताता है कि इन व्यक्तियों में विशेष क्षमताएँ और प्रतिभाएँ भी होती हैं। किसी व्यक्ति को उसकी कमी से नहीं, उसकी योग्यता से पहचाना जाना चाहिए। इस शब्द का उपयोग समाज में संवेदनशीलता, सम्मान और समानता की भावना को बढ़ाता है। इसलिए, हर जगह हम सभी को ‘दिव्यांगजन’ शब्द का ही प्रयोग करना चाहिए, ताकि उनकी गरिमा बनी रहे और उन्हें बराबरी का स्थान मिले। यहां यह भी गौरतलब है कि हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2015 में अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में ‘विकलांग’ शब्द की जगह ‘दिव्यांग’ शब्द के प्रयोग का सुझाव दिया था। उनका मानना था कि जिन लोगों के शरीर में किसी प्रकार की कमी होती है, उनके भीतर कोई न कोई विशेष गुण या ‘दिव्य शक्ति’ अवश्य होती है, इसलिए उन्हें नकारात्मक अर्थ वाले शब्द से संबोधित करना उचित नहीं है। उनके इस सुझाव के बाद सरकार ने कई आधिकारिक दस्तावेजों और विभागों में भी ‘दिव्यांगजन’ शब्द का प्रयोग शुरू किया। बाद में ‘विकलांगजन सशक्तीकरण विभाग’ का नाम बदलकर ‘दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग’ किया गया। इस पहल का उद्देश्य समाज की सोच को सकारात्मकता की ओर ले जाना और सम्मानजनक भाषा के प्रयोग को बढ़ावा देना था। हाल फिलहाल, पिछले कुछ समय में विशेष रूप से यह स्पष्ट हुआ है कि विकलांग व्यक्ति अक्सर गरीबी, शिक्षा की कमी, असुरक्षित रोजगार और सामाजिक दूरी जैसी चुनौतियों से जूझते हैं।इसीलिए, जब तक उन्हें बराबरी के अवसर, सम्मान और सहभागी बनने का मौका नहीं मिलेगा, तब तक समाज का संपूर्ण विकास संभव नहीं है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि विकलांगता को अब ‘चिकित्सीय समस्या’ की तरह नहीं देखा जाता।संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि विकलांगता का मतलब है-समाज की वह कमी, जो किसी व्यक्ति को बराबरी का अवसर नहीं देती। यानी, समस्या व्यक्ति में नहीं, बल्कि अवसरों की कमी में है। बहरहाल, यदि हम यहां पर दिव्यांगता की बात करें तो यूएन के अनुसार, दुनिया की करीब 16% आबादी किसी न किसी रूप में दिव्यांगता के साथ जी रही है।यह संख्या अक्सर कम बताई जाती है, लेकिन वास्तविकता इससे कहीं बड़ी है। यदि हम यहां हमारे देश भारत की बात करें तो भारत में विकलांग व्यक्तियों की संख्या के बारे में आधिकारिक आंकड़े अभी 2011 की जनगणना पर आधारित हैं। इसके अनुसार देश में करीब 2.68 करोड़ दिव्यांग नागरिक हैं, जो कुल जनसंख्या का लगभग 2.21% हिस्सा बनाते हैं। इनमें पुरुषों की संख्या महिलाओं से थोड़ी अधिक है, और सबसे बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाकों में रहता है, जहाँ सुविधाएँ और अवसर सीमित होते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि असली संख्या इससे भी अधिक हो सकती है, क्योंकि 2016 में विकलांगता की श्रेणियाँ बढ़कर 21 कर दी गईं, लेकिन जनगणना अभी अपडेट नहीं हुई है। इस वजह से कई प्रकार की विकलांगताएँ आंकड़ों में पूरी तरह शामिल नहीं हो पातीं। इसलिए यह समझना जरूरी है कि भारत में दिव्यांग लोग कोई छोटी संख्या नहीं, बल्कि करोड़ों की आबादी हैं, जिन्हें सही अवसर, सुलभ सुविधाएँ और बराबरी का सम्मान देना हमारी संयुक्त जिम्मेदारी है। अंत में यही कहूंगा कि विश्व विकलांग दिवस हमें याद दिलाता है कि एक समावेशी समाज केवल नीतियों से नहीं, बल्कि हमारी सोच और व्यवहार से बनता है।हर व्यक्ति, चाहे उसकी शारीरिक या मानसिक स्थिति कैसी भी हो, सम्मान और बराबरी का हकदार है। विकलांगता कोई कमी नहीं, बल्कि विविधता का एक रूप है जिसे समझना और स्वीकारना जरूरी है। आज भी लाखों लोग शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और सामाजिक अवसरों से दूर हैं।ऐसी स्थितियों को बदलना सरकार, समाज और परिवार सभी की साझा जिम्मेदारी है।हमें यह मानना होगा कि अवसर मिलते ही विकलांग व्यक्ति भी हर क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देते हैं। सुलभ परिवेश, संवेदनशील नीतियां और जागरूक समाज मिलकर ही बदलाव ला सकते हैं। टेक्नोलॉजी, नवाचार और बेहतर ट्रेनिंग इनके लिए नए रास्ते खोल सकती है। हर स्कूल, दफ्तर और सार्वजनिक स्थान पर पहुँच-सुविधा अनिवार्य बननी चाहिए। सहानुभूति दिखाना अच्छा है, पर असली जरूरत बराबरी और सम्मान की है।विकलांगता से जुड़े मिथक और पूर्वाग्रह खत्म करना समय की मांग है। जब समाज समावेशन को मूल मूल्य बना लेगा, तभी वास्तविक परिवर्तन दिखाई देगा। यह दिन केवल कार्यक्रम मनाने का नहीं, बल्कि सोच बदलने का अवसर है। हमें यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी व्यक्ति अपनी परिस्थितियों के कारण पीछे न रह जाए। अंततः, एक राष्ट्र तभी विकसित कहलाता है जब उसके हर नागरिक को आगे बढ़ने का समान अवसर मिले।





