स्याही की सादगी: प्रियंका सौरभ की चुपचाप क्रांतिकारी कहानी

The Simplicity of Ink: The Quietly Revolutionary Story of Priyanka Saurabh

रविवार दिल्ली नेटवर्क

हर युग में कुछ आवाज़ें होती हैं जो चीखती नहीं, बस लिखती हैं — और फिर भी गूंजती हैं। ये आवाज़ें न नारे लगाती हैं, न मंचों पर दिखाई देती हैं, लेकिन उनके शब्द पिघलते लोहे की तरह समाज के ज़मीर को गढ़ते हैं। प्रियंका सौरभ ऐसी ही एक आवाज़ हैं — जो लेखनी की नोंक से स्त्रीत्व, संघर्ष और संवेदना का नया भूगोल रच रही हैं।

एक गाँव, एक सपना, और एक लड़की:
हरियाणा के हिसार जिले का एक साधारण सा गाँव — आर्य नगर। यहाँ से उठी एक असाधारण सोच, जिसने कलम को हथियार नहीं, हथेली बनाया — समाज के चेहरे पर सहलाती भी रही और थपकी देती रही। प्रियंका का साहित्यिक सफर किसी किताब की कहानी जैसा लगता है — लेकिन उसकी जड़ें उस मिट्टी में हैं, जहाँ लड़कियों को आज भी चुप रहना सिखाया जाता है।

राजनीति विज्ञान में एम.ए. और एम.फिल करते हुए उन्होंने देश की नीतियों को न सिर्फ़ समझा, बल्कि उनके प्रभाव को महसूस भी किया। फिर उन्होंने एक सरकारी नौकरी को चुना, लेकिन समाज की सेवा को सिर्फ़ दफ्तर की दीवारों तक सीमित नहीं रखा।

महामारी और साहित्य का पुनर्जन्म:
जब 2020 की महामारी आई, तो पूरी दुनिया ठहर गई — लेकिन प्रियंका की कलम चल पड़ी। जहाँ ज़्यादातर लोग Netflix और डर के बीच फंसे थे, वहाँ उन्होंने ‘समय की रेत पर’ लिखा — एक ऐसा निबंध संग्रह, जो उस दौर की मनःस्थिति, असमंजस और सामाजिक दरारों को बेबाकी से सामने लाता है।

यह उनकी लेखकीय यात्रा की सिर्फ़ शुरुआत थी। इसके बाद एक के बाद एक कई किताबें आईं — ‘दीमक लगे गुलाब’, ‘निर्भया’, ‘परियों से संवाद’, और महिलाओं के लिए लिखी गई ‘Fearless’।

स्त्रीत्व की अनकही परिभाषा:
प्रियंका की रचनाएं किसी आदर्शवादी स्त्री विमर्श की नक़ल नहीं हैं। वे उस जमीन से उपजी हैं, जहाँ महिलाओं के सपने अक्सर परिवार की ‘इज्ज़त’ से दबा दिए जाते हैं। ‘निर्भया’ उनकी कलम का ऐसा प्रतिरोध है जो चीखता नहीं, लेकिन सन्नाटा चीर देता है।

वह ‘स्त्री विमर्श’ नहीं लिखतीं, बल्कि ‘स्त्री का विस्मृत इतिहास’ फिर से दर्ज करती हैं। वह सवाल उठाती हैं — क्या महिला सिर्फ़ संघर्ष की कहानी है? या वह समाज को बदलने का सपना भी है?

शब्दों की नहीं, दृष्टिकोण की क्रांति:
प्रियंका का लेखन किसी आंदोलन जैसा नहीं है — वह एक धीमी बारिश की तरह है जो आत्मा की ज़मीन को भिगोता है। उनकी भाषा में कोई नाटकीयता नहीं, कोई चमत्कार नहीं — बस यथार्थ है, और उसे देखने का साहस।

उनका लेखन पढ़ते हुए लगता है जैसे कोई अपनी माँ की चिट्ठी पढ़ रहा हो — सीधा, सच्चा और दिल के बेहद करीब। उन्होंने हमेशा उन आवाज़ों को जगह दी है जो अक्सर दबा दी जाती हैं — अकेली महिलाएं, विकलांग बच्चे, बुज़ुर्गों की उदासी, और शिक्षित पर चुप समाज।

कर्म और कलम का सामंजस्य:
सरकारी नौकरी और लेखन का मेल अक्सर असंभव लगता है, लेकिन प्रियंका ने दोनों को एक दूसरे का पूरक बना दिया। वह स्कूल में पढ़ाती हैं, बच्चों को सोचने की आदत सिखाती हैं — और फिर घर आकर समाज को लिखकर आईना दिखाती हैं।

उनके लिए लेखन सिर्फ़ एक काम नहीं, जिम्मेदारी है। जैसे कोई नर्स हर ज़ख्म को सहला कर भी मुस्कुराती है, वैसे ही प्रियंका हर सामाजिक पीड़ा को महसूस कर, उसमें कविता ढूंढ लाती हैं।

सम्मान नहीं, सवालों की तलाश:
उन्हें ‘सुपर वुमन 2023’ का खिताब मिला — लेकिन उनके लेखों में कोई ‘महानता’ की चकाचौंध नहीं है। वह हर उस औरत को महान मानती हैं जो हार के बाद भी फिर खड़ी होती है, हर उस शिक्षक को जो परीक्षा के बाहर सोच सिखाता है, और हर उस बच्चे को जो “क्यों?” पूछना नहीं छोड़ता।

प्रियंका की असली उपलब्धि वह सम्मान नहीं हैं, जो आयोजनों में मिलते हैं — बल्कि वे पल हैं, जब कोई पाठक उनके लेख को पढ़कर कहे, “मैंने अपने भीतर कुछ बदलता हुआ महसूस किया।”

प्रियंका सौरभ क्यों ज़रूरी हैं?
क्योंकि आज जब साहित्य ब्रांडिंग का शिकार हो गया है, प्रियंका अब भी अपने शब्दों को जमीन से उठाती हैं, प्रकाशन की चमक से नहीं। क्योंकि जब मीडिया टीआरपी के पीछे भागता है, वह उन कहानियों को उठाती हैं जो टीआरपी नहीं, टीआर (तप, रचना) की मांग करती हैं। क्योंकि जब महिलाएं सोशल मीडिया के ‘फिल्टर’ में फँसी हैं, वह अपने चेहरे से नहीं, अपनी सोच से सुंदर बनती हैं।

उपनिषद की स्त्री, इंटरनेट की दुनिया में: प्रियंका उस पुरानी परंपरा की लेखिका हैं, जहाँ ज्ञान और करुणा का संगम होता है — लेकिन उनकी लेखनी नए समय के हर कोने को पहचानती है। वे परंपरा की धड़कनों को आधुनिकता के स्टेथोस्कोप से सुनती हैं।

उनकी सोच ‘बोल्ड’ नहीं है, लेकिन स्पष्ट है। उनकी भाषा ‘जादुई’ नहीं है, लेकिन आत्मा को छूती है। वे ‘ट्रेंड’ नहीं करतीं, लेकिन एक दिशा ज़रूर दिखाती हैं।

प्रियंका सौरभ का जीवन इस बात का प्रमाण है कि एक साधारण इंसान भी समाज को असाधारण रूप से छू सकता है — अगर वह लिखना जानता हो, और लिखने से डरता न हो।

उन्होंने सिद्ध कर दिया कि साहित्य आज भी क्रांति कर सकता है — बिना मोर्चा खोले, बिना शोर मचाए, बिना किसी हैशटैग के।

उनकी कहानी नारे नहीं देती, बल्कि एक सवाल छोड़ती है —
“जब हर ओर शोर है, तब क्या आप अब भी सुन पा रहे हैं — वो एक स्त्री की चुपचाप चलती कलम की आवाज़?”