अंधविश्वास की बलिवेदी पर भारत की आत्मा

The soul of India is sacrificed on the altar of superstition

सोनम लववंशी

हम 21वीं सदी में विज्ञान, तकनीक, शिक्षा और वैश्विक उपलब्धियों के नए कीर्तिमान गढ़ते जा रहे हैं। मंगल तक मानव ने कदम बढ़ा दिए हैं, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसी क्रांतिकारी खोजें मानवीय सभ्यता के विकास की मिसाल बन चुकी हैं। लेकिन इसी विज्ञान युग में जब यह खबर आती है कि एक गांव में डायन के शक में पांच लोगों को मार डाला गया, या किसी युवक की बलि तांत्रिक अनुष्ठान में दी गई, तो सवाल खड़ा होता है कि क्या हम वाकई 21वीं सदी में जी रहे हैं? भारत आज भी दो विरोधाभासी ध्रुवों पर खड़ा दिखाई देता है। एक ओर तकनीकी दक्षता का वैश्विक दावा, दूसरी ओर सामाजिक चेतना का अंधकार। इन खबरों ने यह साफ कर दिया है कि अंधविश्वास की जड़ें कितनी गहरी हैं जिसे केवल कानून या शिक्षा से उखाड़ पाना कठिन है। बिहार के पूर्णिया जिले में डायन बताकर पांच लोगों की हत्या हो जाना या मध्यप्रदेश के गांव में युवक की नरबलि देना कोई इकलौती घटनाएं नहीं हैं। यह उन हजारों घटनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं जो आज भी भारत के विभिन्न कोनों में लगातार घट रही हैं। सरकारें इन पर चुप हैं, न कोई राष्ट्रीय मुहिम है, न कोई ठोस रणनीति। हां, कुछ सामाजिक संगठनों की कोशिश जरूर है, लेकिन वे अंधविश्वासियों की आंख की किरकिरी बन जाते हैं। वे न तो उन पर विश्वास करते हैं, न ही उन्हें अपना जरूरी समझते हैं। विडंबना यह है कि पढ़ा-लिखा तबका भी अंधविश्वास के दलदल में लिथड़ा हुआ है। विज्ञान को ‘बेबुनियाद’ और ‘धर्म विरोधी’ कहने वाले लोग आज भी जादू-टोने, तंत्र-मंत्र, ग्रह-नक्षत्रों और बाबाओं के पास समाधान खोजते नजर आते हैं।

यह कोई नई बात नहीं कि अंधविश्वास भारत में केवल ग्रामीण या अशिक्षित क्षेत्रों तक सीमित रहा है। शहरी और शिक्षित समाज भी इस मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं है। टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले ‘भूत-प्रेत’ और ‘तांत्रिक’ धारावाहिकों से लेकर बड़े-बड़े बाबाओं के विशाल साम्राज्य तक, सब इस प्रवृत्ति को खाद-पानी दे रहे हैं। अनुयायी यह मानते हैं कि उनके बाबा के पास ऐसी ‘आलोकिक शक्तियाँ’ हैं जो उनके हर संकट को दूर कर सकती हैं, जबकि सच यह है कि बाबा स्वयं अपने संकट तक नहीं दूर कर पाते। यदि उनके पास ऐसी शक्तियाँ होतीं तो वे वर्षों तक जेल में न होते, या अपने ‘चमत्कारों’ से वहां से बाहर निकल आते। बीते दिनों मध्यप्रदेश के एक शांत से दिखने वाले गांव में एक युवक का सिर एक चबूतरे पर रखा मिला। धड़ थोड़ी दूरी पर पड़ी थी। पुलिस पहुंची, जांच की, और पाया कि वहां तांत्रिक क्रियाओं में प्रयुक्त सामग्री बिखरी पड़ी थी नींबू, अगरबत्तियां, सिंदूर, हड्डियां, लकड़ी की मूर्तियां। वहां मौजूद हर वस्तु चीख-चीख कर कह रही थी। यह हत्या नहीं, नरबलि थी। इक्कीसवीं सदी के भारत में नरबलि! कल्पना कीजिए उस मां की जो बेटे के लिए रात भर प्रतीक्षा कर रही होगी। कल्पना कीजिए उस बहन की जो राखी का धागा लिए अपने भाई की कलाई ढूंढ़ रही होगी। यह आज के भारत की वह चुभती हुई सच्चाई है जिसे देखकर रूह भी कांप जाती हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2000 से 2021 के बीच करीब 3000 से अधिक हत्याएं डायन के शक में कर दी गईं। इनमें अकेले झारखंड में 593 मामले दर्ज हुए। मध्यप्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़, बिहार और असम, इन सभी राज्यों में हर साल दर्जनों महिलाओं को समाज की क्रूरता निगल जाती है, क्योंकि उन्होंने विरोध किया, संपत्ति रखी, या फिर बस इसलिए क्योंकि वे अकेली थीं।

हर बार एक जैसी कहानी गांव में कोई बीमार हुआ, फसल नष्ट हुई, या किसी की मौत हो गई। और कोई ‘बुज़ुर्ग’ पुरुष बोल उठा, “यह सब उसकी वजह से हुआ है।” फिर क्या भीड़ ने तय कर लिया कि वह डायन है। उसे घसीटा गया, पीटा गया, सिर मुंडवा दिया गया, नंगा किया गया, पत्थरों से मारा गया। कभी पेड़ से लटकाया गया, तो कभी गांव छोड़ने पर मजबूर कर दिया। ऐसा नहीं है कि सरकार ने इन घटनाओं के खिलाफ कदम नहीं उठाए। कानून बने। झारखंड में ‘डायन प्रथा उन्मूलन अधिनियम’, ओडिशा में ‘द ओडिशा प्रिवेंशन ऑफ विच-हंटिंग एक्ट’, असम में भी 2015 में एक कठोर कानून पारित हुआ। लेकिन क्या कानून उस औरत को बचा पाएगा जिसे गांव वालों ने अपने घर से जिंदा खींच लिया था? क्या कानून उस बच्चे की जान लौटा पाएगा जिसे बलि की बेदी चढ़ा दिया गया? 2010 में महाराष्ट्र के अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक डॉ. नरेंद्र दाभोलकर ने लिखा था “अंधविश्वास सिर्फ अज्ञानता नहीं, यह हिंसा है।” और वे खुद इसी अंधविश्वास के खिलाफ आवाज उठाने की सजा के रूप में 2013 में पुणे की सड़क पर गोली से छलनी कर दिए गए। देश में हर साल दर्जनों लोग ‘तांत्रिक अनुष्ठान’ के नाम पर मारे जाते हैं। 2014 से 2021 तक ही 103 से अधिक मानव बलि के मामले दर्ज हुए। और जो दर्ज नहीं हुए, उनकी संख्या इससे कई गुना बड़ी है। बिहार के सीतामढ़ी, पश्चिम बंगाल के बीरभूम, उत्तर प्रदेश के मैनपुरी, और अब मध्यप्रदेश ये कोई पुराने युग की घटनाएं नहीं हैं। ये हाल की रिपोर्ट की गई घटनाएं हैं। यह सोचकर रूह कांप जाती है कि किसी की आस्था किसी की मृत्यु बन जाती है। किसी का अंधविश्वास किसी मासूम का अंत बन जाता है। विज्ञान के युग में, जब मानव चांद और मंगल पर घर बसा रहा है, तब गांवों में आज भी झाड़-फूंक और जादू-टोना इंसानों के भाग्य का फैसला कर रहा है। सबसे दुखद यह है कि यह सब केवल गांवों तक सीमित नहीं। पढ़े-लिखे समाज में, बड़े शहरों में, डॉक्टर, इंजीनियर, अफसर, नेता, सभी ग्रह-नक्षत्र और वास्तु के हिसाब से निर्णय लेते हैं। अस्पतालों में भर्ती होने से पहले पंडित से ‘मुहूर्त’ पूछा जाता है। बच्चों के नामकरण से लेकर व्यापार की शुरुआत तक सब ‘ज्योतिषीय सलाह’ से तय होती है।

हमारे संविधान का अनुच्छेद 51-ए (एच) कहता है कि “भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद तथा ज्ञानार्जन और सुधार की भावना का विकास करे।” लेकिन क्या यह कर्तव्य निभाया जा रहा है? क्या सरकारें इसके लिए नीतियां बना रही हैं? क्या स्कूल बच्चों में सवाल करने की आदत डाल रहे हैं? क्या समाज वैज्ञानिक सोच को सम्मान दे रहा है? हकीकत यह है कि जहां शिक्षा नहीं है, वहां तंत्र है। जहां स्वास्थ्य सेवाएं नहीं पहुंचतीं, वहां झाड़-फूंक है। जहां कानून सुस्त है, वहां ‘जनता की अदालत’ लगती है। और वहां फैसला होता है, जिसे समाज समझ नहीं पाया, उसे मिटा दो। आदिवासी इलाकों में अब भी तांत्रिक ‘देवदूत’ माने जाते हैं। झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा जैसे राज्यों में तांत्रिकों का बड़ा नेटवर्क है। वे दावा करते हैं कि वे बारिश ला सकते हैं, बच्चों की मौत रोक सकते हैं, बीमारियां मिटा सकते हैं। और अगर ऐसा न हो, तो दोषी कोई और है डायन, भूत, या कोई बलि की कमी। यह सिलसिला रुक नहीं रहा, बल्कि बढ़ रहा है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हर साल लगभग 100 से 150 के बीच हत्या और अपहरण के मामले अंधविश्वास से प्रेरित होते हैं। लेकिन यह संख्या असल तस्वीर से बहुत कम है, क्योंकि ज़्यादातर मामले दर्ज ही नहीं होते। गांव में पंचायतें सजा देती हैं, महिलाएं डरकर चुप रह जाती हैं, और समाज इसे परंपरा का नाम से देता है।

भारत का भविष्य इस पर निर्भर करता है कि हम इस पाखंड से कब उबरेंगे। जब तक हम अंधविश्वास को संस्कृति कहकर उसका महिमामंडन करते रहेंगे, तब तक यह देश उस उजाले को नहीं देख सकेगा, जो इसकी आत्मा को मुक्त कर सके। आज जरूरत इस बात की है कि गांव-गांव, घर-घर, स्कूलों और पाठ्यक्रमों में वैज्ञानिक सोच को एक आंदोलन की तरह बढ़ाया जाए। आज विज्ञान ने हमें चमत्कारिक इलाज दिए हैं, इंटरनेट से जोड़ा है, अंतरिक्ष तक पहुंचाया है, लेकिन अगर हमारे दिल और दिमाग अब भी पुरानी जंजीरों में जकड़े हैं, तो यह प्रगति खोखली है। अगर किसी को बुखार है, तो उसे अस्पताल ले जाना चाहिए, तांत्रिक के पास नहीं। अगर कोई बच्चा अचानक बीमार हो गया, तो डॉक्टर को बुलाना चाहिए न कि बलि का आयोजन किया जाए। अगर कोई औरत अकेली है, तो उसे अपनाना चाहिए, डायन कहकर मारना नहीं चाहिए। यह सोच सिर्फ कानून से नहीं आएगी, यह समाज को अपने भीतर से लानी होगी।

इतना ही नहीं हमें तय करना होगा कि क्या हम अतीत की गलतियों से सीखेंगे या उन्हें दोहराते रहेंगे। क्या हम भविष्य को तर्क और संवेदना की राह पर ले जाएंगे, या उसे पाखंड और क्रूरता की गुफा में धकेल देंगे? भारत तब तक सचमुच आज़ाद नहीं होगा, जब तक उसकी गलियों में किसी को डायन कहकर नहीं मारा जाएगा, जब तक किसी मां की गोद अपने बेटे की बलि के बाद सूनी नहीं होगी, जब तक कोई चबूतरा खून से लाल नहीं होगा। हमें इस बलिवेदी को तोड़ना होगा। अंधविश्वास के इस अंधकार को मिटाना होगा। और इसके लिए हमें खुद अपने भीतर की आंखें खोलनी होंगी क्योंकि यह वह धरती है, जहां विज्ञान का जन्म हुआ, जहां गणना के सूत्र बने, जहां शून्य का आविष्कार हुआ, जहां आकाश के रहस्यों को ऋषियों ने अपनी खुली आंखों से पढ़ा। यह वही भारत है, जहां सत्य को ब्रह्म कहा गया। लेकिन आज इसी धरती पर तंत्र-मंत्र, झाड़-फूंक, बलि, और अंधविश्वास के नाम पर इंसानियत का गला घोंटा जा रहा है। तो ऐसे में हमें और हमारे समाज को सामूहिक रूप से शर्मिंदगी महसूस करने की आवश्यकता है।