खबरों के साधन बढ़े पर खबर का स्तर गिरा

The sources of news increased but the quality of news fell

अशोक मधुप

भारत में पत्रकारिता एक समय पर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानी जाती थी। समाज की आवाज़ उठाने, सत्ता से सवाल पूछने और जनभावनाओं को मंच देने में इसकी भूमिका अविस्मरणीय रही है। लेकिन बीते कुछ वर्षों में पत्रकारिता का स्तर चिंताजनक रूप से गिरा है, जबकि पत्रकारों की प्रसिद्धि, प्रभाव और पहुंच पहले से कहीं अधिक बढ़ी है। यह विरोधाभास क्यों? पत्रकार बड़े होते जा रहे हैं, पर पत्रकारिता क्यों सिकुड़ रही है?आज फेसबुक पत्रकार, न्यूज पोर्टल चलाने वाले पत्रकार ,यूटयूब चैनल चलाने वाले पत्रकारों की देश में बाढ़ सी आ गई है।दैनिक अखबार भी तेजी से बढ़ रहे हैं। आन लाइन समाचार पत्रों की रोज गिनती बढ़ती जा रही है। जिसे देखो पत्रकारिता कर रहा है।इतना सब होने के बावजूद पिछले कुछ साल में खबर की विश्वसनीय घटी है। पत्रकारिता का स्तर गिरा है।पत्रकार का सम्मान घटा है।पहले माना जाता कि अखबार में छपा है तो सही होगा ,किंतु मीडिया में आई खबर की आज कोई गारंटी देने को तैयार नहीं। आज का पत्रकार खबर लिख रहा है किंतु खबर की गांरटी से भाग रहा है। वह यह दावा करने को कोई तैयार नही कि जो खबर उसने लिखी है, वह सही है। विश्वनीय है। जब तक खबरों को चेहरों से बड़ा नहीं समझा जाएगा और पत्रकारिता को फिर से जनसेवा के रूप में नहीं देखा जाएगा, तब तक यह गिरावट जारी रह सकती है।

पत्रकारिता के नए हाल पर न्यूज पोर्टल और यूटयूब चैनल पर चलती फर्जी खबरों का लेकर देश के लगभग 20 अखबारों ने एक अभियान शुरू किया है। इसके तहत वे प्रचार कर रहे हैं कि न्यूज पक्की और सच्ची खबर−प्रिंट मतलब पक्का सबूत । इन्होंने ये अभियान तो शुरू किया किंतु अभियान चलाते समय वे ये भूल गए कि वे भी फेसबुक और यूटयूब चैनल चला रहे हैं,इतना जरूर है कि इनके पास प्रोफेशनल की टीम है, इसलिए इनकी खबरें ज्यादा प्रभाणित है, ज्यादा विश्वसनीय हैं।

पत्रकारिता कभी मिशन था। आजादी के आंदेलन तक मिशन रहा। धीरे− धीरे इसमें व्यापारी आने लगे।औद्योगिक घराने उतर गए।इनका उद्देश्य समाज सेवा नही रहा, व्यापार हो गया। ये व्यापार करने लगे।वह छापने लगे जिस्से इन्हें लाभ हो।इन्होंने पत्रकारिता और अखबारों के नाम पर दुकाने खोल लीं। लेकिन इन्होंने समाज की जरूरतों का ध्यान रखा। करोड़ों रूपये लगाकर ये सर्वे कराते कि किस उम्र का पाठक क्या पढ़ना चाहता है,उस रिपोर्ट के आधार पर ये खबरे कराते। लेख लिखाते।बस अपने हितों का ध्यान रखते।इन प्रतिष्ठानों को पैसा मिलने लगा तो इनसे जुड़े पत्रकारों और कर्मचारियों को आकर्षक वेतन और कमीशन मिलने लगे। मिशन की भावना पत्रकारिता से गायब हो गई।मीडिया संस्थान अब स्वतंत्र नहीं रहे। बड़े मीडिया हाउस कॉरपोरेट पूंजी से संचालित हो रहे हैं और कई बार सरकार के नजदीक दिखते हैं। इससे खबरों की निष्पक्षता और निर्भीकता पर प्रश्नचिह्न लगते हैं।नतीजा—जांच रिपोर्टिंग, जमीनी सच्चाई और सत्ता से सवाल पूछने की परंपरा लगभग गायब होती जा रही है।

गांव देहात से छोटे – मोटे पत्रकार अब भी मिशन के तहत लगे थे। डेरा सच्चा सौदा के राम रहीम के किस्से भी स्थानीय ऐसे ही एक सांध्य दैनिक समाचार पत्र से प्रकाश में आए। सिरसा के सांध्य दैनिक ‘पूरा सच’ के संपादक रामचंद्र छत्रपति, राम रहीम और डेरा सच्चा सौदा पर आश्रम में होरही ख़बरें लिख रहे थे । वहां हो रहे कारनामों का भांडाफोड़ कर रहे थे। उन रामचंद्र छत्रपति को गोलियां मारी गईं। हत्या करा दी गई। आरोप राम रहीम पर आया।सीबीआई जांच हुई और अपराध साबित हुआ।

समय तेजी से बदल रहा है। आज पत्रकार अपना न्यूज पोर्टल ही नही चला रहे। यूटयूब् चैनल चला रहे है। फेसबुक लाइव पर लगे है।रोज नए ब्लागर पैदा हो रहे है।आज का पत्रकार खुद एक ‘ब्रांड’ बन चुका है। सोशल मीडिया ने रिपोर्टिंग को व्यक्ति-केंद्रित बना दिया है। पहले खबरें केंद्र में होती थीं, अब पत्रकार। टीवी डिबेट्स और यूट्यूब चैनलों पर पत्रकार अपनी पहचान, विचारधारा और नाटकीयता को प्राथमिकता देते हैं। खबर से ज़्यादा चर्चित चेहरा बनना आज का लक्ष्य बन गया है। पहले विज्ञापन के लिए उद्योगपतियों की ओर देखना पड़ता था, अब ऐसा नही है। अब आपकी साम्रग्री के हिसाब से गूगल भुगतान कर रहा है। जिनकी सामग्री अलग और नई है, वे मौज ले रहे हैं। इससे सबसे ज्यादा नुकसान ये हुआ कि कुछ अपने लाइक लेने , व्यूज और टीआरपी की दौड़ में मीडिया अतिंरजित खबरे चला रहा है। उसे खबरों के पुष्ट करने का समय नही।फर्जी खबरे चल रही हैं। अभी आपरेशन सिंदूर के दौरान किसी ने खबर चला दी कि भारतीय सैना पाकिस्तान में प्रवेश कर गई तो एक ने चला दिया कि भारत का लाहौर पर कब्जा हो गया।जबकि ऐसा कुछ नही था।

डिजिटल युग में टीआरपी और व्यूज़ ही सफलता का पैमाना बन गए हैं। गंभीर पत्रकारिता की जगह सनसनीखेज खबरें, गॉसिप, और ‘डिबेट तमाशा’ ने ले ली है। तथ्य की जगह धारणा, विश्लेषण की जगह उत्तेजना, और संवाद की जगह शोर ने कब्जा कर लिया है। एंकर शोर मचाकर चीखकर पाठकों को आकृषित करन में लगे हैं। खबरों के हैंडिग गलत लगाकर पाठक को खबर पढ़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जबकि खबरों में हैंडिंग के अनुरूप कुछ नही होता।इससे पत्रकारिता का स्तर और विश्वसनीयता तेजी से गिर रही है।अखबारों में झूठी खबरों को रोका जाता था।कोशिश रहती कि खबरों की विश्वसनीयता बनी रहे। व्यक्तिवादी तंत्र में अब ऐसा नही हो रहा। जल्दी दिखाने की होड़ में और टीआरपी बटोरने के लिए आधी− अधूरी खबरे चलने लगी है।मुंबई पर आतंकवादी हमले और कंधार विमान अपहरण कांड के दौरान मीडिया ने कुछ ऐसी खबरे चलाईं जिससे दुश्मन और आंतकवादियों को ज्यादा लाभ हुआ। इन्होंने देश हित नही देखा।मुंबई हमले को चैनल द्वारा लाइव दिखाने के कारण पाकिस्तान में बैठे हमलावरों के आका चैनल देखकर आंतकवादियों को दिशा निर्देश दे रहे थे। इसकी आलोचना भी हुई। मीडिया के लिए दिशा −निर्देश बनाने की मांग भी हुई।

धीरे− धीरे गांव-कस्बों की खबरें गायब हो चुकी हैं। रिपोर्टर अब स्टूडियो में बैठकर ‘नेरेटिव’ बनाते हैं। ग्राउंड पर जाने की ज़हमत नहीं उठाते। इससे पत्रकारिता का मूल उद्देश्य—जनता की आवाज़ को मंच देना—कमज़ोर हो गया है। अब ये जरूरी होता जा रहा है कि मीडिया में आने वाले पत्रकारिया या वीडियो पत्रकारिता का प्रशिक्षण लेकर आए। नए शासनादेश , देश हित और कानून की उन्हें जानकारी हो। सरकार द्वारा प्रत्येक पत्रकार के लिए ये प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिए।बार कौंसिल की तरह पत्रकार कौंसिल जैसी संस्था बने जो पत्रकारों पर नजर रखे।उनके लिए दिशा −निर्देश तैयार करे।ऐसा होता है तो सरकार को मीडिया पर नियंत्रण की जरूरत नही पड़ेगी।वरन सरकार को इस पर नियंत्रण के लिए कभी न कभी दिशा निर्देश जारी ही करने होंगे।जैसे की अभी आपरेशन सिंदुर के समय जारी किये गए।

नवोदित पत्रकारों के लिए पत्रकारिता अब ‘मिशन’ नहीं बल्कि ‘कैरियर’ बनती जा रही है। कई संस्थानों में उन्हें बहुत कम वेतन पर काम कराया जाता है, जिससे उनमें पेशे के प्रति समर्पण घटता है। वहीं वरिष्ठ पत्रकारों का आभा मंडल इतना विशाल हो गया है कि नए लोगों को उभरने का मौका कम मिलता है। इसलिए जरूरत है कि स्वतंत्र पत्रकारिता को बढ़ावा मिले।पब्लिक फंडिंग या सब्सक्रिप्शन आधारित मॉडल को प्रोत्साहित किया जाए।नए पत्रकारों को प्रशिक्षण और संरक्षण मिले।ग्राउंड रिपोर्टिंग को बढ़ावा दिया जाए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)