
डॉ. सत्यवान सौरभ
हर घर की दीवारें अपने भीतर बहुत कुछ समेटे होती हैं—खुशियाँ, तकरार, उम्मीदें और त्याग। लेकिन उन सबके बीच कहीं एक चुपचाप जीता हुआ बेटा होता है, जिसे परिवार का “आधार स्तंभ” कहा जाता है, पर असल में वह एक ऐसा व्यक्ति होता है, जो अपनी पहचान खो बैठता है—परिवार के नाम पर, कर्तव्यों के नाम पर, और सबसे ज़्यादा “संस्कारों” के नाम पर।
परिवार में बेटे की भूमिका: जिम्मेदारी या बलिदान?
भारतीय समाज में बेटे को बचपन से यह सिखाया जाता है कि वह “वंश” चलाने वाला है, माता-पिता का “बुढ़ापे का सहारा” है, और घर की “इज्ज़त” उसी पर टिकी है। ये बातें सुनने में प्रेरणादायक लगती हैं, लेकिन जब बेटा इन्हें आत्मसात कर लेता है और पूरी ज़िन्दगी परिवार के लिए जीने लगता है, तब उसके अपने सपने, इच्छाएं और स्वतंत्रता धीरे-धीरे दबने लगते हैं।
उम्र की कमाई, रिश्तों की खपत
बहुत से बेटे अपने करियर की शुरुआत से ही यह सोचते हैं कि सबसे पहले घर को संभालना है—मां की दवाई, बहन की शादी, छोटे भाई की पढ़ाई, पिता की जिम्मेदारियां। वह अपने लिए कुछ नहीं सोचता। वह नौकरी करता है, घर चलाता है, सबकी ज़रूरतों को पूरी प्राथमिकता देता है, लेकिन जब उसके खुद के जीवन में कोई ज़रूरत उठती है, तो अक्सर उसे यही सुनने को मिलता है — “तू तो अपना देख ले अब, हम तो जैसे-तैसे जी लेंगे।”
मतलब निकलने पर बदनाम भी वही
दुःख तब होता है जब वही बेटा, जिसने बिना कोई शिकायत किए सबके लिए किया, एक दिन परिवार के लिए “बोझ” या “बददिमाग” घोषित कर दिया जाता है। कभी किसी फैसले में विरोध किया, तो कहा जाता है — “तू तो अब बदल गया है।” अगर वह अपनी पत्नी या बच्चों के साथ खड़ा हो, तो उसे “घर तोड़ने वाला” कहा जाता है।
यह वो समय होता है जब बेटा समझता है कि उसके किए सारे त्याग केवल कर्तव्य थे, कोई उपकार नहीं।
समाज की चुप्पी और व्यक्तिगत तड़प
हमारे समाज में ऐसे बेटों की कोई कहानी नहीं होती। न वो कोई “आदर” मांगते हैं, न “पुरस्कार”। वे तो बस इतना चाहते हैं कि जो उन्होंने किया, उसकी कद्र हो, उनकी भावनाओं को समझा जाए।
परिवार की एक अदृश्य राजनीति में बेटे अक्सर सबसे बड़े शत्रु बना दिए जाते हैं—खासकर तब जब वह अपने लिए थोड़ा सा भी जीने की कोशिश करते हैं।
क्या बेटा होना एक अपराध है?
“हर घर में एक बेवकूफ बेटा जरूर होता है…” यह वाक्य जितना तीखा है, उतना ही सच्चा भी। यह उस बेटे की बात करता है जिसे उसके अच्छे कामों के बाद भी, गलती की तलाश में जांचा जाता है। उसे ‘इमोशनल ATM’ की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
पर क्या हर घर को एक ऐसा बेटा चाहिए जो सिर्फ देता जाए, कभी ले न सके? क्या बेटा होना एक ऐसा ‘कर्तव्य’ है जिसमें खुद की पहचान मिटा देनी चाहिए?
समाधान क्या हो?
- संवाद ज़रूरी है – परिवार के भीतर पारदर्शी संवाद की संस्कृति होनी चाहिए, जहाँ बेटा अपनी भावनाएं खुलकर कह सके।
- त्याग को कर्तव्य में न बदलें – अगर बेटा कर रहा है, तो उसे प्यार और स्वीकृति भी मिले।
- समानता का व्यवहार – बेटा हो या बेटी, सभी से वही अपेक्षाएं हों। एक पर ही भार न डाला जाए।
- अपनेपन की निरंतरता – मतलब के समय तक नहीं, हर समय अपनेपन का भाव ज़रूरी है।
बेटा होना सौभाग्य है, लेकिन अगर वह केवल एक साधन बनकर रह जाए—खर्च करने के लिए, निचोड़ा जाने के लिए—तो वह रिश्ता खोखला हो जाता है। हर बेटे को समझने की जरूरत है कि खुद के लिए जीना भी ज़रूरी है, और हर परिवार को समझने की जरूरत है कि त्याग की कोई सीमा होती है।
कभी-कभी वो “बेवकूफ बेटा” ही सबसे बड़ा हीरो होता है — क्योंकि उसने कभी सवाल नहीं किया, बस निभाया।