अभिव्यक्ति की आजादी पर कभी सख्त तो कभी नरम सुप्रीम कोर्ट

The Supreme Court is sometimes strict and sometimes soft on freedom of expression

संजय सक्सेना

कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी को सुप्रीम कोर्ट से मिली अंतरिम राहत के बाद विभिन्न क्षेत्रों से मिश्रित प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। यह मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सांप्रदायिक सौहार्द, और न्यायिक प्रक्रियाओं के बीच संतुलन को लेकर महत्वपूर्ण बहस का केंद्र बन गया है। बता दें 21 जनवरी 2025 को, सुप्रीम कोर्ट ने इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ गुजरात के जामनगर में दर्ज एफआईआर पर अंतरिम रोक लगा दी है। यह एफआईआर उनके द्वारा सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई एक वीडियो क्लिप को लेकर दर्ज की गई थी, जिसमें बैकग्राउंड में ‘ऐ खून के प्यासे बात सुनो’ कविता चल रही थी। शिकायतकर्ता का आरोप था कि यह कविता भड़काऊ है और सांप्रदायिक तनाव बढ़ा सकती है।

कुछ विपक्षी नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की आलोचना यह तर्क देते हुए की कि न्यायपालिका को ऐसे मामलों में सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिए जहां सांप्रदायिक सौहार्द प्रभावित हो सकता है। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि क्या यह निर्णय कानून के समक्ष सभी के लिए समानता के सिद्धांत के अनुरूप है। उधर, कानूनी विशेषज्ञों ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना है। उन्होंने कहा कि यह मामला पुलिस और न्यायपालिका के लिए एक संकेत है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामलों में संवेदनशीलता और समझ की आवश्यकता है। इसी तरह से कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इमरान प्रतापगढ़ी के समर्थन में आवाज उठाई, यह कहते हुए कि उनकी कविता का उद्देश्य अहिंसा और प्रेम का संदेश देना था, न कि सांप्रदायिक तनाव बढ़ाना। उन्होंने यह भी कहा कि कला और साहित्य को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में सुरक्षित रखा जाना चाहिए।

बात सोशल मीडिया की कि जाये तो यहां पर जनता की प्रतिक्रियाएं मिश्रित रहीं। कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का समर्थन किया, जबकि अन्य ने चिंता व्यक्त की कि इस तरह के निर्णय सांप्रदायिक सौहार्द को प्रभावित कर सकते हैं।

दरअसल, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(एं) प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। हालांकि, यह अधिकार पूर्णतः असीमित नहीं है; अनुच्छेद 19(2) के तहत, राज्य को कुछ निश्चित परिस्थितियों में इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाने का अधिकार है, जैसे कि देश की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, अदालत की अवमानना, मानहानि, या अपराध के लिए उकसाना। 2016 में, सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और 500 के तहत आपराधिक मानहानि कानून की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति प्रफुल्ल सी पंत की खंडपीठ ने निर्णय दिया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार पूर्ण नहीं है और इसे दूसरों की प्रतिष्ठा के अधिकार के साथ संतुलित किया जाना चाहिए। अदालत ने कहा,‘हमने माना है कि दंडात्मक प्रावधान संवैधानिक रूप से वैध हैं। अभिव्यक्ति की आजादी कोई असीम अधिकार नहीं है।’

बहरहाल, यहां यह भी याद रखना चाहिए कि 2020 में इसी सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण को उनके दो ट्वीट्स के लिए अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया, जिनमें उन्होंने न्यायपालिका की आलोचना की थी। इस फैसले की व्यापक आलोचना हुई, जिसमें इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरनाक प्रभाव डालने वाला बताया गया। ह्यूमन राइट्स वॉच ने इस निर्णय पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि इससे न्यायपालिका की वैध आलोचना पर खौफनाक असर पड़ सकता है।

जनवरी 2023 में, सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने निर्णय दिया कि किसी मंत्री द्वारा दिए गए बयान को सरकार का आधिकारिक बयान नहीं माना जा सकता। अदालत ने कहा कि मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और उच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई अतिरिक्त पाबंदी की आवश्यकता नहीं है। यह मामला उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मंत्री आजम खान के एक बयान से संबंधित था, जिसमें उन्होंने एक आपराधिक घटना को राजनीतिक साजिश बताया था।

लब्बोलुआब यह है कि सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों से स्पष्ट होता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है, लेकिन यह पूर्ण नहीं है और इसे अन्य अधिकारों और समाज के हितों के साथ संतुलित किया जाना आवश्यक है। अदालत के फैसले इस संतुलन को स्थापित करने का प्रयास करते हैं, हालांकि इन निर्णयों पर विभिन्न दृष्टिकोणों से बहस और आलोचना होती रही है। इससे इतर सुप्रीम कोर्ट अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कभी काफी सख्त को कभी बेहद नरम नजर आता है। कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी को भले ही सुप्रीम कोर्ट से राहत मिल गई हो,लेकिन वह विवादित शेरों शायरी से सुर्खियां बटोरते रहते हैं। कभी वह माफिया अतीक अहमद की शान में कसीदे पढ़ने के चलते भी विवादों में रह चुके हैं।

शायरी के जरिये सियासत की दुनिया में दाखिल होने वाले इमरान प्रतापगढ़ी ने कुछ वर्ष पूर्व प्रयागराज में एक कार्यक्रम के दौरान खतरनाक गुंडे अतीक अहमद की जमकर तारीफ की थी। इमरान प्रतापगढ़ी, अतीक अहमद की शान में कसीदे पढ़ते हुए कह रहे हैं कि,’इलाहाबाद वालों मेरी एक बात याद रखना, कई सालों तक कोई अतीक अहमद होगा। मुझे इस बात का अंदाज़ा है कि एक शख्स इस शहर में बैठा यही, जो सबकुछ संभाल लेगा।’ प्रतापगढ़ी ऐसी ही शेरो शायरी माफिया मुख्तार अंसारी की शान में भी पढ़ चुके थे,जिसकी चंद लाइनों मे उन्होंने अपने को मुख्तार के रूप में पेश करते हुए कहा था,‘ एक पटाखा भी फोड़ा तो बम लिख दिया, जितनी मोहब्बत है इस मुल्क से,उससे कहीं ज्यादा मैं वफादार हूं। हाँ मैं मुख्तार हूँ, हाँ मैं मुख्तार हूॅ।