नरेंद्र तिवारी
राजनीति में संख्या बल के अपने मायने हैं। प्रदेश का सीएम वहीं बनेगा जो विधायक दल का नेता होगा यहीं बात राष्ट्रीय स्तर पर पीएम पद के लिए भी लागू होती हैं। 1999 में जब अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार महज एक वोट से गिर गयी थी। तब वास्तविक रूप से राजनीति में संख्या बल की महत्ता समझ आई थी। दूसरी राजस्थान में अब समझ आयी जब राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने काँग्रेस हाईकमान की इच्छा के विपरीत अपने समर्थक विधायकों से विधानसभा अध्यक्ष को इस्तीफा दिलाकर संख्या बल की ताकत से कांग्रेस हाईकमान सहित देश को अवगत कराया। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थक विधायकों की संख्या और विधानसभा अध्यक्ष को सौपें इस्तीफों से सचिन पायलेट का मुख्यमंत्री बनना फिलहाल सम्भव नहीं दिखता हैं। इन परिस्थियों में तात्कालिक तौर पर जरूर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपनी मंशा में काँमयाब दिखाई दे रहे हो किन्तु यह काँमयाबी लम्बी दूर तक चलने वाली नहीं दिखाई दे रहीं है। अब ऐसा लगने लगा है कि राजस्थान में गहलोत युग का अंत बेहद निकट हैं। गहलोत युग का अंत दिखाई देने के पीछे उनकी बढ़ती उम्र हैं ही, उनके द्वारा हाईकमान की इच्छा के विरुद्ध कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनाव में शर्तो के साथ शामिल होने का प्रस्ताव ओर मुख्यमंत्री के पद के प्रति मोह का प्रदर्शन करना भी उनके युग के अंत का संकेत नजर आता हैं। किसी नेता की प्रादेशिक स्तर पर पूछपरख का कारण उसकी पार्टी के प्रति निष्ठा और राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पार्टी में मजबूत पकड़ को ही माना जाता हैं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के राजस्थान में ताकत का मूलाधार उनका 10 जनपद के समक्ष मजबूत होना था। विधायको के संख्याबल का कमाल भी वह इसी ताकत के बल पर दिखा पाए हैं। अशोक गहलोत की अपनी पार्टी के प्रति निष्ठा और हाईकमान का आशीर्वाद ही उनकी मुख्य ताकत हैं। राजस्थान में खासकर कांग्रेस में तेजी से घटित राजनैतिक घटनाक्रम में अशोक गहलोत अब तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जरूर काबिज दिखाई दे रहें हैं किन्तु मुख्यमंत्री होने के बावजूद वें अपने राजनैतिक जीवनकाल के सबसे कमजोर दौर से गुजरते भी दिखाई दे रहे हैं। क्या राजस्थान के जादूगर अशोक गहलोत का जादू अब बेअसर दिखाई देने लगा हैं ? या फिर वें पुनः अपनी सियासी चालो से अपने राजनैतिक वजूद को बचाने में काँमयाब हो सकेंगे ? यह सवाल फिलहाल राजनैतिक हलकों की बहस का मुख्य विषय बन गया हैं। दरअसल राजनीति के इस माहिर खिलाड़ी की कमजोर होती राजनीतिक प्रतिष्ठा से जुड़े कयासों के पीछे मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का लालच महत्वपूर्ण कारण हैं। मुख्यमंत्री पद का मोह न दबा पाने में गहलोत अपनी अहमियत को गवा बैठे। राजस्थान का सारा नाटक गहलोत के इशारे पर हुआ हैं यह जानते हुए भी कांग्रेस आलाकमान राजस्थान की सरकार चले जाने के भय से चुप जरूर है। किंतु गहलोत की वह स्थिति अब आलाकमान के सामने नहीं रहीं जो उन्हें ताकतवर बनाती थी। अब जबकि राजस्थान के राजनैतिक आकाश में अशोक गहलोत कमजोर होतें जान पड़ रहे हैं। मुख्यमंत्री पद की लालसा में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर चुनाव न लड़ने का फैसला भी गहलोत के राजनैतिक भविष्य के थमने के संकेत हैं। राजस्थान की जनता हर पांच साल में सरकार भी बदल देती है। भारतीय जनता पार्टी के लिए 2023 का अवसर बेहद अच्छा है, किंतु राजस्थान में भाजपा भी गुटबाजी से पीड़ित हैं। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ओर प्रदेश अध्यक्ष सतीश पुनिया के मध्य जारी खींचतान भी राजस्थान में भाजपा के दो गुटों में विभाजित होने के संकेत हैं। राजस्थान के आगामी घटनाक्रमो में भाजपा की गुटबाजी भी साफ नजर आई। इस गुटबाजी के असर से प्रतिपक्ष नेता गुलाबसिंह कटारिया भी बहुत हद तक ग्रसित है जो राजस्थान भाजपा के लिए 2023 के विधानसभा चुनाव में अच्छे संकेत नहीं हैं। राजस्थान में कांग्रेस के पास सचिन पायलेट जैसा युवा चेहरा तो है जो राजस्थान ही नहीं देश की राजनीति के आकर्षण का केंद्र हैं। सचिन पॉयलेट की मुख्यमंत्री बनने की जल्दबाजी ने पार्टी के विरुद्ध किये विद्रोह ने उनकी छवि को भी कुछ हद तक बिगाड़ा हैं और उन्हें कमजोर भी साबित किया हैं। यहीं कारण रहा कि योग्यता और हाईकमान की इच्छा के बावजूद सचिन से राजस्थान के मुख्यमंत्री का पद दूर होता जा रहा हैं। सचिन को विद्रोह के दाग धोने की जरुरत हैं। उन्हें राजस्थान की जनता और काँग्रेस नेताओं में विश्वास जमाने की आवश्यकता हैं। वर्ष 2023 का चुनाव सम्भवत हाईकमान सचिन पायलेट के भरोसे लड़ेगा। राजस्थान में पायलेट का युवा चेहरा, भाजपा में जारी गुटबाजी, अशोक गहलोत का कमजोर पड़ता जादू सचिन पायलेट का स्वर्णिम काल हो सकता हैं। इसके लिए सचिन को संभलकर राजनीति करने की आवश्यकता होगीं। सचिन को यह मानकर चलना चाहिए कि अशोक गहलोत का लंबा राजनैतिक अनुभव है, वें राजनीति की चालो को चलने के माहिर खिलाड़ी भी हैं। अपनी चालो से सचिन को रोकने का हर सम्भव प्रयास करेंगे। सचिन को रोकने का हर प्रयास राजस्थान की जनता के मन मे सचिन के लिए प्यार और सहानुभूति का कारण बनेगा सचिन के लिए चली गयी अशोक गहलोत की हर चाल गहलोत के प्रभाव को कम करेगीं। देश सहित राजस्थान की आमजनता भी सकारात्मक राजनीति को पंसद करती है। ओर नकारात्मक राजनीति को दंडित भी करती हैं। उम्र के इस पडाव में गहलोत की नकारात्मक राजनीति उनके कम होते वजूद का कारण बनेगी। सचिन पायलेट को 2023 तक बेहद होशियारी से राजनीति करने की जरूरत हैं। एक गलत कदम उन्हें राजस्थान के मुखिया के पद से दूर कर सकता हैं। शायद पायलेट भी अपने अनुभव से सीखने की कोशिश करेंगे।