दुनिया को युद्ध की नहीं, बुद्ध की जरूरत है

The world needs Buddha, not war

ललित गर्ग

बुद्ध जयन्ती/बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध अनुयायियों का ही नहीं, बल्कि मानवता में आस्था रखने वालों का एक प्रमुख त्यौहार है। बुद्ध जयन्ती वैशाख पूर्णिमा को मनायी जाती हैं। वैसे पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का जन्म, संबोधि एवं निर्वाण हुआ है। उनके जन्म से सिद्धार्थ बनने एवं बुद्धत्व तक की यात्रा एवं इससे जुड़ी कीर्ति किसी एक युग तक सीमित नहीं हैं। बुद्ध का लोकहितकारी चिन्तन एवं कर्म कालजयी, सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वदैशिक है और युग-युगों तक समाज का मार्गदर्शन करता रहेगा। गौतम बुद्ध एक प्रकाशस्तंभ है, जिसका प्रकाश केवल बाहरी दुनिया को ही नहीं, बल्कि भीतरी दुनिया को भी आलोकिक करता है। बुद्ध को सबसे महत्वपूर्ण भारतीय आध्यात्मिक महामनीषी, देवपुरुष, सिद्ध-संन्यासी, समाज-सुधारक धर्मगुरु माना जाता हैं। बुद्ध को भगवान विष्णु का नौवां अवतार भी माना जाता है, इस दृष्टि से हिन्दू धर्म में भी वे पूजनीय है। उन्हें धर्मक्रांति के साथ-साथ व्यक्ति एवं विचारक्रांति के सूत्रधार भी कह सकते हैं। उनकी क्रांतिवाणी उनके क्रांत व्यक्तित्व की द्योतक ही नहीं वरन् धार्मिक, सामाजिक विकृतियों एवं अंधरूढ़ियों पर तीव्र कटाक्ष एवं परिवर्तन की प्रेरणा भी है, जिसने असंख्य मनुष्यों का जीवन-निर्माण किया एवं उनकी जीवन दिशा को बदला।

बुद्ध संन्यासी बनने से पहले कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ थे। वे महलों में बंद न रह सके। उन्होंने सबसे पहले स्वयं ज्ञान-प्राप्ति का व्रत लिया था और वर्षों तक वनों में घूम-घूम कर तपस्या करके आत्मा को ज्ञान से आलोकित किया। उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को जिस चैतन्य एवं प्रकाश के साथ जीया है, वह भारतीय ऋषि परम्परा के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय है। स्वयं ने सत्य की ज्योति प्राप्त की, प्रेरक जीवन जीया और फिर जनता में बुराइयों के खिलाफ आवाज बुलन्द की। लोकजीवन को ऊंचा उठाने के उन्होंने जो हिमालयी प्रयत्न किये, वे अद्भुत और आश्चर्यकारी हैं। बुद्ध ने 27 वर्ष में राजपाट छोड़ा, गहन साधना एवं स्व की खोज के लिये भ्रमण करते हुए काशी के समीप सारनाथ पहुंचे, जहाँ उन्होंने धर्म परिवर्तन किया। यहाँ बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचें कठोर तप किया। कठोर तपस्या के बाद सिद्धार्थ को बुद्धत्व ज्ञान की प्राप्ति हुई और उसके बाद वह महान संन्यासी गौतम बुद्ध के नाम से जाने गये और अपने ज्ञान से समूचे विश्व को ज्योतिर्मय किया। कहा जाता है कि बुद्ध इतने गहरे ध्यान एवं साधना में लीन हो गये कि सारे देवता भी घबरा गये कि यह दुर्लभता एवं अलौकिक-गहन साधना से मिली संबोधि बुद्ध के लीन रहने से व्यर्थ न चली जाये। इसी संबोधि से तो विश्व का कल्याण होना है। इसलिये देवताओं ने बुद्ध से जागृत रहने एवं प्राप्त संबोध से विश्व का कल्याण करने की प्रार्थना की। देवताओं की प्रार्थना को बुद्ध ने स्वीकारा और महानिर्वाण की अवस्था को त्याग कर जगत का कल्याण करने को अग्रसर हुए।

बुद्ध ने जब अपने युग की जनता को धार्मिक-सामाजिक, आध्यात्मिक एवं अन्य यज्ञादि अनुष्ठानों को लेकर अज्ञान में घिरा देखा, साधारण जनता को धर्म के नाम पर अज्ञान में पाया, नारी को अपमानित होते देखा, शुद्रों के प्रति अत्याचार होते देखे-तो उनका मन जनता की सहानुभूति में उद्वेलित हो उठा। लोकजीवन को ऊंचा उठाने के लिये उन्होंने जो हिमालयी प्रयत्न किये, वे अद्भुत और आश्चर्यकारी है। बुद्ध के अनुसार जीवन में हजारों लड़ाइयां जीतने से बेहतर स्वयं पर विजय प्राप्त करना है। यदि स्वयं पर विजय प्राप्त कर लिया तो फिर जीत हमेशा तुम्हारी होगी। गौतम बुद्ध कहते हैं कि व्यक्ति कभी भी बुराई से बुराई को खत्म नहीं कर सकता है। इसे खत्म करने के लिए व्यक्ति को सत्य, प्रेम एवं करूणा का सहारा लेना पड़ता है। प्रेम से दुनिया की हर बड़ी चीजों को जीता जा सकता है। बुद्ध के अनुसार, खुशियां बांटने से हमेशा बढ़ती हैं, कभी कम नहीं होती हैं। गौतम बुद्ध के अनुसार, जीवन में तीन चीजें कभी भी छुपाकर नहीं रखी जा सकती है, वो है- सूर्य, चंद्रमा और सत्य।

महात्मा गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। उन्होंने अपने जीवन में हमेशा लोगों को अहिंसा, सत्य, संयम, प्रेम और करुणा का भाव सिखाया। बुद्ध पूर्णिमा पर अलग-अलग देशों में वहां के रीति-रिवाजों और संस्कृति के अनुसार समारोह आयोजित होते हैं। बुद्ध तो सम्राटों के सम्राट थे, राजाओं के राजा थे। इसलिये बुद्ध पूर्णिमा का दिन सिर्फ उनका जन्मोत्सव ही नहीं, उनका मरणोत्सव भी है, उनका ज्ञानोत्सव भी है एवं उनका संबोधि उत्सव भी है। बुद्ध पूर्णिमा को श्रीलंकाई ‘वेसाक’ उत्सव के रूप में मनाते हैं जो ‘वैशाख’ शब्द का अपभ्रंश है। बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए यह दिन ध्यान, तप, और करूणा के अभ्यास का प्रतीक है, जबकि हिंदू धर्म में इसे ईश्वर के अवतार के रूप में पूजा जाता है।

महात्मा बुद्ध ने मध्यममार्ग अपनाते हुए अहिंसा युक्त दस शीलों का प्रचार किया तो लोगों ने उनकी बातों से स्वयं को सहज ही जुड़ा हुआ पाया। उनका मानना था कि मनुष्य यदि अपनी तृष्णाओं पर विजय प्राप्त कर ले तो वह निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार उन्होंने पुरोहितवाद पर करारा प्रहार किया और व्यक्ति के महत्त्व को प्रतिष्ठित किया। जो मनुष्य बुद्ध की, धर्म की और संघ की शरण में आता है, वह सम्यक् ज्ञान से चार आर्य सत्यों को जानकर निर्वाण की परम स्थिति को पाने में सफल होता है। ये चार आर्य सत्य हैं – पहला दुःख, दूसरा दुःख का हेतु, तीसरा दुःख से मुक्ति और चौथा दुःख से मुक्ति की ओर ले जाने वाला अष्टांगिक मार्ग। इसी मार्ग की शरण लेने से मनुष्य का कल्याण होता है तथा वह सभी दुःखों से छुटकारा पा जाता है। निर्वाण के मायने है तृष्णाओं तथा वासनाओं का शान्त हो जाना। साथ ही दुखों से सर्वथा छुटकारे का नाम है- निर्वाण। बुद्ध का मानना था कि अति किसी बात की अच्छी नहीं होती है। मध्यम मार्ग ही ठीक होता है। बुद्ध ने कहा है – वैर से वैर कभी नहीं मिटता। अवैर (मैत्री) से ही वैर मिटता है – यही सनातन नियम है।

गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म का प्रवर्तन किया और अत्यन्त कुशलता से बौद्ध भिक्षुओं को संगठित किया और लोकतांत्रिक रूप में उनमें एकता की भावना का विकास किया। उनका अहिंसा एवं करुणा का सिद्धांत इतना लुभावना था कि सम्राट अशोक ने दो वर्ष बाद इससे प्रभावित होकर बौद्ध मत को स्वीकार किया और युद्धों पर रोक लगा दी। आज भी युद्ध एवं आतंक के दौर में बुद्ध का मार्ग ही कारगर है। क्योंकि बौद्ध मत एवं बुद्ध की शिक्षाएं देश की सीमाएँ लांघ कर विश्व के कोने-कोने तक अपनी ज्योति फैला रही है। आज भी इस धर्म की मानवतावादी, शांतिवादी, बुद्धिवादी और जनवादी परिकल्पनाओं को नकारा नहीं जा सकता और इनके माध्यम से भेद भावों से भरी व्यवस्था एवं हिंसा की मानसिकता पर जोरदार प्रहार किया जा सकता है। आज दुनिया को युद्ध नहीं, बुद्ध की आवश्यकता है। यही धर्म आज भी दुःखी, पीड़ित एवं अशान्त मानवता को शान्ति एवं सहजीवन प्रदान कर सकता है। ऊँच-नीच, भेदभाव, जातिवाद पर प्रहार करते हुए यह लोगों के मन में धार्मिक एकता का विकास कर रहा है। विश्व शान्ति एवं परस्पर भाईचारे का वातावरण निर्मित करके कला, साहित्य और संस्कृति के विकास के मार्ग को प्रशस्त करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। मूलतः बौद्ध मत हिन्दू धर्म के अनुरूप ही रहा और हिन्दू धर्म के भीतर ही रह कर महात्मा बुद्ध ने एक क्रान्तिकारी और सुधारवादी आन्दोलन चलाया। सामााजिक क्रांति के संदर्भ में उनका जो अवदान है, उसे उजागर करना वर्तमान युग की बड़ी अपेक्षा है। ऐसा करके ही हम एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकेंगे। बुद्ध ने समतामूलक समाज का उपदेश दिया। जहां राग, द्वेष होता है, वहां विषमता पनपती है। जरूरत है उन्नत एवं संतुलित समाज निर्माण के लिए महात्मा बुद्ध के उपदेशों को जीवन में ढालने की। बुद्ध-सी गुणात्मकता को जन-जन में स्थापित करने की। ऐसा करके ही समाज को स्वस्थ बना सकेंगे। कोरा उपदेश तक बुद्ध को सीमित न बनाएं, बल्कि बुद्ध को जीवन का हिस्सा बनाएं, जीवन में ढालें।