
अभिषेक यादव
राजस्थान के झालावाड़ में पीपलोदी गांव में तकरीबन आधा दर्जन बच्चों ने पढ़ने के दौरान अपनी जान गवा दी, शायद हमारे डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम जहां पर भी होंगे इस खबर को सुनकर जरूर उनका हृदय क्रंदन कर चुका होगा, पढ़ने के दौरान भला कोई बच्चा अपनी जान कैसे गंवा सकता है, यह अद्भुत कारनामा भारत ही कर सकता है, जो चंद्रयान भी बना सकता है लेकिन स्कूल की छत ठीक नहीं कर सकता!!!! इन सात बच्चों की मौत का जिम्मेदार कोई और नहीं केवल भारत का सिस्टम है और हमारे लोगों की लापरवाही, हमारे जनप्रतिनिधि फुर्सत होने के बावजूद भी, बजट होने के बावजूद भी, कभी स्कूलों का निरीक्षण नहीं करते ! लेख का शीर्षक इसलिए लिखा गया है कि दिवंगत हुआ कोई बच्चा अगर बड़ा होता तो शायद भारत का बहुत बड़ा वैज्ञानिक या बहुत बड़ा विद्वान होता! लेकिन उसको यह मौका नहीं दिया, क्यों नहीं दिया यह इसलिए नहीं मिला कि जनप्रतिनिधि के पास यह समय ही नहीं है कि वह जाकर देख सके की स्कूल की छतें गिर रही है ,बच्चे मर रहे हैं !जी हां ,यह अलग बात है कि अगर कोई वीआईपी मोमेंट हो तो व्यवस्था तुरंत हो जाएगी, यह अलग बात है कि अगर कोई बहुत बड़ा मंत्री ,अभिनेता आ रहा हो तो व्यवस्था तुरंत हो जाएगी, लेकिन स्कूल तक को देखने की व्यवस्था नहीं वह भी मानसून काल में! सरकारें समय नहीं निकल पा रही हैं ,वह भी इतने सुदूर इलाके में जहां किसी तरह बच्चों को पढ़ाई के लिए प्रेरित किया जाता है! वह पढ़ना चाहते हैं ,वह जीना चाहते हैं! वह भी कलाम बनना चाहते हैं लेकिन आप एक छत तक नहीं दे पा रहे उनको और इससे भी बुरा यह की ऐसी भी सूचना मिल रही है, कि एक बच्चे की अंत्येष्टि के लिए तो लकड़ियाँ तक भी नहीं मिली! मुआवजा 10 लाख रुपए देकर और संविदा में परिवार वालों को नौकरी देकर सरकार अपनी इतिश्री मान रही है, और उस मासूम की लाश जलाई गई टायरों में ! अगर यह संवेदनहीनता नहीं है ,तो फिर क्या हो सकती है ?यह विद्वान लोग ही बता सकते हैं !हमें सम्मिलित रूप से बतौर समाज शर्म आनी चाहिए कि हम गरीब बच्चों को ना तो जीने का मौका दे रहे हैं ,ना पढ़ने का मौका दे रहे हैं, और साथ ही साथ उनको जबरदस्ती इन मौत के ताबूतों में भेज रहे हैं ! अभी अगर कोई विमान देरी से चल पड़े या कोई दुर्घटना बड़ी ट्रेन में हो जाए तो खबरें फ्रंट पेज की होती है! लेकिन यह 7 बच्चे तो गरीब थे इनको तो सरकारी स्कूल में पढ़ना था इनकी तो नियति में था !यह पढ़ने गए थे वहां कुछ मौज मस्ती करने नहीं!उसके बावजूद उनके सपनों को ध्वस्त कर दिया गया ,उनके माता-पिता के कंधों पर जो बोझ आर्थियों का है उसकी कल्पना शायद शेषनाग ही कर सकते हैं ,जिन्होंने धरती का वजन उठा रखा है! इस शब्दों के साथ मैं इस लेख को विराम देना चाहता हूं ,पर दे नहीं पा रहा हूं, कारण की पीड़ा बहुत है ,और लिखना बहुत चाह रहा हूं ,पर लिख नहीं पा रहा हूं! इन सात बच्चों में से कोई श्री कलाम हो सकता था, कोई झांसी की रानी हो सकती थी ,कोई विवेकानंद हो सकते थे ,कोई स्वामी दयानंद हो सकते थे ,कोई खुद नरेंद्र मोदी भी हो सकते थे लेकिन मौका नहीं दिया हमने, हमने इनको पढ़ने भेजा था और हमने उनकी लाश उठाई !माई रो रही है मां-बाप तड़प रहे हैं, सरकार सो रही हैं ,हमें लेकिन चंद्रयान जरूर बनाना है ,वहां तो हमें पहुंचना जरूरी है ! स्कूलों की छत टूटती है टूट जाए ,चंद्रयान बनना जरूरी है ! अब तय आपको करना है कि कैसे होगा, कब होगा और कौन करेगा!