सुरेश हिन्दुस्थानी
वर्तमान में भारत और इंडिया नाम की चर्चा राजनीतिक क्षेत्र में भी सुनाई देने लगी है। हम यह भली भांति जानते हैं कि भारत को पुरातन काल से कई नामों से संबोधित किया गया। जिसमें जम्बूद्वीप, भारतवर्ष, आर्यावर्त, हिंदुस्तान और इंडिया के नाम का उल्लेख मिलता है। लेकिन यह भी एक बड़ा सच है कि इंडिया शब्द गुलामी की याद दिलाता है, क्योंकि यह शब्द अंग्रेजों ने दिया। अंग्रेजों ने भारत की सांस्कृतिक विरासत को मिटाने का भरसक प्रयास किया। सांस्कृतिक रूप से एकता का भाव स्थापित करने वाले समाज के बीच दरार डालने की राजनीति की गई। जिससे देश भी कमजोर होता चला गया और समाज कई वर्गों में विभाजित हो गया। आज भी सामाजिक भेदभाव की इस खाई को और चौड़ा करने का लगातार प्रयास किया जा रहा है, जिससे भारतीय समाज को सावधान होने की आवश्यकता है, नहीं तो वही अंग्रेजों की इंडिया वाली मानसिकता विकराल रूप धारण कर हमारे सामने बड़ा संकट पैदा कर सकती है।
अब आवश्यकता इस बात की है कि इंडिया शब्द को मिटाकर उसके स्थान पर भारत को स्थापित किया जाए। भारत में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का संचालन करने वाले जनप्रतिनिधि संसद के दोनों सदनों, विधानसभाओं और नगरीय परिषद सभाओं में भी हिन्दी और अंग्रेजी में प्रश्न पूछते समय और उत्तर देते समय देश और देशवासियों को अपमानित कर देने वाले शब्द इंडिया और इंडियन का नहीं, बल्कि हमें गर्वित कर देने वाले भारत शब्द से हमारे देश को संबोधित करें। पूरी दुनिया अभी हिन्दुस्तान को इंडिया नाम से संबोधित करती है। हमें गर्व उस समय होगा जब पूरा विश्व हिन्दुस्तान को इंडिया नहीं, बल्कि भारत के नाम से संबोधित करेगा। पूरा देश एक मत से खड़ा होकर सिर्फ यही जवाब देता कि बहुत हुआ अब और नहीं झेलेंगे अंग्रेजों की गुलामी। अब हिन्दुस्तान गुलामी की जंजीरें तोड़कर न केवल अपने पैरों पर खड़ा है, बल्कि पूरे विश्व को अपने साथ लेकर प्रगति पथ पर दौड़ाने की नेतृत्व क्षमता भी रखता है। इस कारण अब अंग्रेजियत की हर वह निशानी मिटानी होगी जो हमें गुलामी की याद दिलाकर निराशा के अंधेरे कुंए में धकेलने का काम करती है।
इसके अलावा अगर भारत देश के बारे में आध्यात्मिक भाव से अध्ययन किया जाए तो केवल यही कहा जा सकता है कि भारत में आध्यात्म ही एक ऐसा क्षेत्र है जिसका मुकाबला विश्व का कोई भी देश नहीं कर सकता। हम जानते हैं कि भारत में जो भी धार्मिक नगरी हैं वहां कई अंग्रेज ऐसे मिल जाते हैं जो अपने देश से केवल घूमने के उद्देश्य से आते हैं, लेकिन भारत की सांस्कृतिक धारा में इस प्रकार रम जाते हैं कि फिर यहीं के होकर रह जाते हैं फिर अपने देश में जाने का नाम भी नहीं लेते। क्या भारतीय संस्कृति का यह उदाहरण वैश्विक सर्वग्राह्यता का प्रतीक नहीं है। इतना ही नहीं, वर्तमान में पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति के प्रति लोगों का झुकाव निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। हमारे आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया जाए तो वह भी भारत नाम को ही उच्चारित करते हैं, इंडिया नाम तो उसमें नहीं है। तभी तो कहा गया है कि हिमालयं समारभ्य यावदिंदुसरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्ष्यते। हमारे देश को देव निर्मित माना जाता है। इसी प्रकार उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति:। इस श्लोक में भारत वर्ष में निवास करने वाली संतति के बारे में बताया है कि यहां की जनता भारतीय है, इंडियन नहीं।
जिस भारत की कल्पना हमारे मनीषियों ने की थी, वैसा भारत बनाने के लिए इंडिया नाम से मुक्ति दिलानी होगी। क्योंकि इंडिया के संस्कार और भारत के संस्कार एक जैसे नहीं हो सकते। आज हमारे देश में जिस प्रकार से संस्कारों की कमी दिखाई दे रही है, वह मात्र और मात्र इंडिया की मानसिकता के कारण ही है। भारत में यह सब नहीं चलता। हम इंडियन नहीं, भारतीय बनें। तभी हमारी भलाई है और यही राष्ट्रीय हित भी है। इसके बाद फिर से वैसा ही सांस्कृतिक भारत उदित होगा, जो विश्व गुरु की झलक प्रस्तुत करेगा।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)