शिक्षा में प्रतियोगिता हो प्रतिस्पर्धा नहीं

शिशिर शुक्ला

यह अत्यंत कष्टप्रद एवं चिंताजनक बात है कि इस वर्ष 25 छात्रों के द्वारा शिक्षा से तंग आकर आत्महत्या जैसा कदम उठाया गया। आत्महत्या की अधिकतर घटनाएं कोटा में हुई हैं। कोटा जोकि इंजीनियरिंग एवं मेडिकल परीक्षाओं की कोचिंग के लिए प्रसिद्ध था, अब आत्महत्या के लिए भी मशहूर होने लगा है। विद्यार्थियों के द्वारा की जाने वाली आत्महत्या के पीछे दो ही कारण हैं- एक तो शिक्षा एवं परिवेश में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण असफल हो जाने का डर एवं दूसरा असफलता मिलने पर निराशा एवं अवसाद से परिपूर्ण मानसिकता। वास्तव में कोटा जैसे शहर आज कोचिंग के रूप में शिक्षा नहीं बल्कि व्यापार का केंद्र बन चुके हैं। हाई स्कूल अथवा इंटरमीडिएट की कक्षा उत्तीर्ण करने के उपरांत विद्यार्थी मेडिकल अथवा इंजीनियरिंग की दिशा में जाने का सपना या तो स्वयं देखता है अथवा उसके अभिभावकों के द्वारा उसे एक तरह से जबरन दिखाया जाता है। बड़े-बड़े शहरों की स्थिति यह है कि विद्यार्थी नवी अथवा दसवीं पास करके ही कोटा में अपना डेरा जमा लेता है और कोचिंग संस्थानों का ग्राहक बनकर बारहवीं तक की शिक्षा के लिए पूर्णरूपेण उन पर निर्भर हो जाता है। कोचिंग संस्थान विद्यार्थी को बारहवीं तक की शिक्षा को महज औपचारिकता के रूप में देखने के लिए मजबूर कर देते हैं और उसे एक ऐसे माहौल में धकेल देते हैं जहां प्रतिस्पर्धा के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। नतीजा यह होता है कि जिस उम्र में विद्यार्थी को स्वस्थ मानसिक प्रतियोगिता एवं शिक्षा से परिपूर्ण माहौल चाहिए होता है, उस उम्र में उसे एक कठिन लक्ष्य को प्राप्त करने का दबाव एवं अनावश्यक प्रतिस्पर्धी वातावरण प्राप्त हो जाता है। अब यदि विद्यार्थी इस वातावरण के साथ सामंजस्य बिठा पाता है तो ठीक अन्यथा शनैःशनैः वह असफलता और मानसिक परेशानियों से घिरता चला जाता है। इसी का दुष्परिणाम होता है कि विद्यार्थी जब अपने मन की व्यथा को किसी से नहीं कह पाता तो वह सीधे आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है।

यदि गहन चिंतन किया जाए तो निष्कर्ष यह निकलेगा कि इस बढ़ती हुई आत्महत्या की प्रवृत्ति के पीछे विद्यार्थियों के साथ-साथ गैर जिम्मेदार अभिभावक एवं धन लोलुपता से परिपूर्ण कोचिंग संस्थान भी पूर्णतया उत्तरदायी हैं। बहुत से अभिभावक ऐसे होते हैं जो स्वयं प्रतिस्पर्धा का कीड़ा अपने दिमाग में पाले रहते हैं और वही प्रतिस्पर्धा अपने बच्चों पर भी थोप देते हैं। यह जाने बिना कि उनका बच्चा बुद्धिमता एवं शैक्षिक योग्यता के पैमाने पर कहां टिक रहा है, वे सीधे उसे एक बड़े लक्ष्य के मार्ग पर कदम बढ़ाने को विवश कर देते हैं। कोटा जैसे शहरों में कोचिंग संस्थानों में प्रवेश दिलाकर वे संभवत: यह मान लेते हैं कि अब उनका बच्चा इंजीनियर या डॉक्टर बनकर ही घर आएगा। ऐसे अभिभावकों को पूर्ण रूपेण लापरवाह एवं गैरजिम्मेदार कहना ही उचित होगा।

सत्य तो यह है कि प्रत्येक अभिभावक को अपने बच्चों से भावनात्मक लगाव रखते हुए यह जानने का प्रयत्न करना चाहिए कि उसकी रुचि किस दिशा में है। किशोरावस्था वास्तव में संक्रमण की एक अवस्था होती है। इस अवस्था में बच्चे में संवेदनशीलता की पराकाष्ठा होती है। जीवन की चुनौतियां को स्वीकार करना एवं उनसे निजात पाना इस अवस्था तक बच्चों ने सीखा नहीं होता है और अब ऐसी स्थिति में बच्चों को सीधे ऊंचे ऊंचे सपनों के तूफान में धकेल देना निश्चित रूप से एक मूर्खतापूर्ण कदम होता है। बच्चा कोचिंग संस्थानों की तरफ रुख तो करता है लेकिन उसके पीछे भावनात्मक मार्गदर्शन नहीं अपितु होड़ से भरा हुआ एक धक्का मौजूद होता है। अब बात करते हैं कोचिंग संस्थानों की, तो संभवत: कभी ऐसा था कि इन संस्थानों में सीमित संख्या में ही छात्र प्रवेश लेते थे और ये वही छात्र होते थे जो वास्तव में मानसिक स्तर पर प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार होते थे। किंतु आज का माहौल तो यह है कि कोचिंग संस्थान विद्यार्थी को पैसा खींचने की मशीन के अतिरिक्त कुछ नहीं समझते। उन्होंने अपना एक फ्रेम तैयार किया है और जो भी विद्यार्थी उस फ्रेम में फिट नहीं हो पाता उसे नाकारा और निकम्मा घोषित कर दिया जाता है। प्रोत्साहन एवं भावनात्मक समर्थन जैसी चीज तो मानो हर स्तर पर गायब सी हो चुकी है।

यहां पर एक अन्य बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि कहीं न कहीं हमारी शिक्षा व्यवस्था एवं शिक्षा प्रणाली भी इन सभी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। यदि आधारभूत शिक्षा को मजबूती के साथ विद्यार्थी के मन मस्तिष्क में उतारा जाए तो वह इंजीनियरिंग एवं मेडिकल की दिशा पकड़ने की नौबत आने तक निस्संदेह इतना कुशल हो जाएगा कि उसे किसी कोचिंग संस्थान की कोई खास आवश्यकता नहीं पड़ेगी। किंतु अधिकतर ऐसा होता है कि विद्यार्थी को आधारभूत सिद्धांत केवल इस स्तर तक सिखाए जाते हैं कि परीक्षा के प्रश्न पत्र में उनको लिखकर विद्यार्थी अंक हासिल कर लेता है और परीक्षा उत्तीर्ण कर लेता है, जबकि यदि उन्ही सिद्धांतों को जीवन में व्यावहारिक अनुप्रयोगों के आधार पर विद्यार्थी को समझाने का प्रयास किया जाए तो विद्यार्थी को वे सिद्धांत आजीवन याद रहेंगे और वह प्रतियोगिता के लिए स्वयं को कहीं बेहतर तरीके से तैयार कर सकेगा। आज की स्थिति है कि विद्यार्थी बारहवीं तक की प्रत्येक कक्षा में ट्यूशन अथवा कोचिंग का सहारा लेने को विवश है। इसका सीधा सा कारण यही हो सकता है कि विद्यालय के स्तर पर उसे पर्याप्त एवं संतोषजनक शिक्षा नहीं मिल पा रही है। यह कहीं न कहीं हमारी शिक्षा प्रणाली की बहुत बड़ी खामी है। कुल मिलाकर जब विद्यार्थी प्रतियोगिता के लिए अपरिपक्व होगा तो वह निश्चित रूप से असफल भी होगा। असफलता के साथ स्वयं के एवं अभिभावकों के सपनों का बोझ विद्यार्थी को आत्महत्या जैसा कदम उठाने के लिए मजबूर कर देता है। दिन प्रतिदिन कोचिंग संस्थानों में विद्यार्थियों के द्वारा आत्महत्या की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। इसके निराकरण हेतु संस्थानों के द्वारा जो कदम उठाए गए हैं उनके विषय में सोचकर हंसी आती है। उदाहरण के लिए विद्यार्थी के कमरे में लगे पंखे में स्प्रिंग लगाया गया है जो कि केवल बीस किलो वजन बर्दाश्त कर सकता है। हॉस्टल की लॉबी और बालकनी में बड़े-बड़े जाल लगाए गए हैं जिससे की छात्र ऊंचाई से कूदने न पाएं। यह सभी प्रयास कहीं न कहीं कोचिंग संस्थानों की स्वार्थपूर्ण एवं आत्मकेंद्रित मानसिकता की ओर इंगित करते हैं और यह बताते हैं कि कोचिंग संस्थानों को केवल और केवल अपने व्यापार एवं साख की फिक्र है। विद्यार्थी के मानसिक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य, सफलता अथवा असफलता से उन्हें कोई लेना देना नहीं है। विद्यार्थियों के द्वारा भी आत्महत्या के नए-नए तरीके अख्तियार किया जा रहे हैं। आत्महत्या की इन घटनाओं को रोकने के लिए परिवार, विद्यार्थी, समाज एवं सरकार प्रत्येक स्तर पर प्रभावी कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। सबसे जरूरी तो यह है कि अभिभावकों को अपने बच्चों के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ने की नितांत आवश्यकता है। उन्हें अपने बच्चों को उसी लक्ष्य की ओर भेजना चाहिए जिसकी ओर वह स्वाभाविक रूप से जाना चाहता है। कोचिंग संस्थानों पर सरकार के द्वारा प्रभावी अंकुश लगाया जाना चाहिए ताकि वे व्यवसायोन्मुखी मानसिकता से बाहर आकर शिक्षा एवं प्रतियोगिता पर ध्यान केंद्रित करें। कोचिंग संस्थानों के द्वारा आयोजित की जाने वाली आंतरिक परीक्षाओं में असफल होने वाले अथवा कम अंक हासिल करने वाले विद्यार्थियों को अलग से भावनापूर्ण सहायता दी जानी चाहिए ताकि उन्हें उनकी असफलता के कारण का पता लग सके एवं वे बिना अवसाद व निराशा की चपेट में आए स्वयं की कमियों को दूर कर पाएं। हाल ही में अभिभावकों के द्वारा यह भी कदम उठाया गया है कि वे अपने बच्चों के साथ स्वयं कोटा आ रहे हैं ताकि उनका बच्चा किसी भी तरह से अवसाद की अवस्था में आकर कोई गलत कदम न उठाने पाए। कहीं न कहीं इससे इंगित होता है कि अभिभावकों के मन में डर बैठ गया है। इतना निश्चित है कि विद्यार्थी जब तक अरमानों के पंख के स्थान पर अरमानों का बोझ लेकर चलेगा, तब तक आत्महत्या की इन घटनाओं पर अंकुश लगा पाना असंभव है।