निर्मल रानी
गुजरात के मोरबी में माच्छू नदी पर बने एक प्राचीन व ऐतिहासिक ‘झूला पुल ‘ के गत 30 अक्टूबर की शाम अचानक टूट जाने से पेश आये दुर्भाग्यपूर्ण हादसे में एक बार फिर लगभग 145 मासूम देशवासियों की जान ले ली। झूला पुल टूटने के परिणाम स्वरूप सैकड़ों लोग माच्छू नदी में गिर गए और कई लोगों की नदी में डूबने या चोट लगने से मौत हो गई। हादसे के शिकार कई लोग अब भी लापता हैं इसलिये मृतकों की संख्या और भी बढ़ने की आशंका बनी हुई है। लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व मोरबी के राजा सर वाघजी ठाकोर द्वारा उस समय की आधुनिक यूरोपीय तकनीक का उपयोग करते हुये निर्मित कराये गये इस झूला पुल का उद्घाटन 20 फ़रवरी 1879 को मुंबई के तत्कालीन गवर्नर रिचर्ड टेम्पल के हाथों किया गया था। मोरबी रियासत के शाही दिनों की याद दिलाने वाला यह पुल एक प्राचीन ‘कलात्मक और तकनीकी चमत्कार’ के रूप में भी देखा जाता था।
बहरहाल,यह ऐतिहासिक पुल भी देश के विभिन्न राज्यों में समय समय पर होने वाले अनेक हादसों की ही तरह टूट गया। और हर बार की तरह इस बार भी देश की शासन व्यवस्था द्वारा वही पुराने घिसे पिटे राग अलापे गये। किसी को दुःख हुआ,कोई रोने का नाटक करने लगा,किसी ने मुआवज़ा घोषित किया,किसी ने मरने वालों पर दुःख कम तो बचाव कार्यों में दिखाई गयी तत्परता की तारीफ़ अधिक की। इस हादसे के लिये एक दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराने व विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा एक दूसरे पर ‘राजनीति ‘ करने का दौर भी पूर्ववत चला। इस हादसे के लिये कथित तौर पर ‘ज़िम्मेदार’ ठहरायी गयी व इसका रखरखाव करने वाली किसी नाममात्र कंपनी के कुछ लोगों को गिरफ़्तार कर ‘डबल इंजन ‘ की सरकारों ने भी अपनी तत्परता का परिचय देने की कोशिश की। काफ़ी समय से क्षतिग्रस्त व बंद पड़े इस पुल को गुजरात राज्य में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र जहां चंद दिनों पहले ही इसे पुनः जनता के लिये जल्दबाज़ी में शुरू कराने का सरकार पर आरोप लगाया जा रहा है और इसी जल्दबाज़ी को हादसे का मुख्य कारण भी बताया जा रहा है वहीं राज्य सरकार ने इस हादसे के बाद राज्य में एक दिन के राजकीय शोक की घोषणा कर मृतक,पीड़ित व प्रभावित लोगों के प्रति अपनी हमदर्दी का इज़हार करने की कोशिश की।
जितने लोगों ने सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफ़ॉर्म्स पर मोरबी में माच्छू नदी पर बने इस ‘झूला पुल ‘ के ध्वस्त होने संबंधित वीडिओज़ देखीं उससे शायद कुछ ही कम लोगों ने इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कोलकाता में 2016 में बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान दिया गया उनका वह चुनावी भाषण सुना जिसमें उन्होंने इसी तरह 31 मार्च 2016 को कोलकाता में विवेकानंद रोड फ़्लाई ओवर गिर जाने के बाद ममता बनर्जी सरकार पर निशाना साधते हुए कहा था- ‘यह भगवान की ओर से एक संकेत है कि किस तरह की सरकार चलाई गई। चूँकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उस समय इस दुर्घटना को, जिसमें 27 लोग अपनी जानें गँवा बैठे थे और विपक्षी भाजपा इसे चुनावी मुद्दा बनाकर ममता सरकार पर हमलावर थी,इसे ‘एक्ट ऑफ़ गॉड ‘ बताने जैसा ग़ैर ज़िम्मेदाराना बयान दिया था इसीलिये प्रधानमंत्री ने इस तर्क के जवाब में इसे ‘एक्ट ऑफ़ गॉड’ नहीं बल्कि एक्ट ऑफ़ फ़्रॉड बताया था। प्रधानमंत्री ने उस फ़्लाई ओवर हादसे पर ‘ज़बरदस्त राजनीति’ करते हुये अपने विशेष अंदाज़’ में और भी बहुत कुछ कहा था।
सवाल यह है कि चाहे वह मोरबी की ताज़ातरीन ‘झूला भंजन’ की घटना हो या कोलकाता की 31 मार्च 2016 की विवेकानंद रोड फ्लाईओवर दुर्घटना। यदि और पीछे चलें तो चाहे वह 13 जून 1997 को दिल्ली के ग्रीन पार्क स्थित उपहार सिनेमा हाल में लगी वह आग जिसमें 59 लोग झुलसकर या दम घुटने से मरे या देश में प्रायः ज़हरीली शराब पीकर मरने वाले लोग। ओवर लोड स्टीमर अथवा नाव में बैठने के बाद देश की अनेक नदियों में दुर्घटनावश डूबकर मरने वाले लोग हों या अगस्त 2017 में गोरखपुर में बी आर डी मेडिकल कॉलेज में सरकारी लापरवाही के चलते मरने वाले 30 से अधिक बच्चे,या इसी तरह की यू पी व बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाने वाली और भी अनेक घटनायें। सड़क पर आवारा घूमते पशुओं के हमले से या उनसे टकराकर मरने या घायल होने वाले लोग हों या ज़हरीला व प्रदूषित जल पीने से मरने व बीमार पड़ने वाले या फिर कोरोना काल में ऑक्सीजन की कमी से मरने वाले वह हज़ारों लोग जिनकी मौत से सरकार अपना पल्ला भी झाड़ चुकी है। शहरी बाढ़-बारिश व नहरों व तटबंधों के टूटने से होने वाली जान-माल की क्षति हो ग़रीबी,भुखमरी व क़र्ज़ के चलते मरने या आत्म हत्या करने वाले या कुपोषण का शिकार हमारे देश के नौनिहाल। इन जैसी और भी तमाम वास्तविकताओं से जूझते हमारे देश में एक बात तो सामान्य है कि इनमें आम तौर पर बेगुनाह व साधारण इंसान को ही जान व माल का नुक़सान उठाना पड़ता है। और दूसरी बात यह भी सामान्य है कि ऐसी घटनाओं के बाद पक्ष विपक्ष एक दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। लीपपोती की जाती है,शासन प्रशासन का प्रत्येक संबंधित विभाग या अधिकारी अथवा नेता सभी स्वयं को बचाने व दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश में लग जाते हैं।
इसका नतीजा यह होता है कि लीपापोती के इस खेल में कुछ दिन बीतते ही लोग ऐसे हादसों को भूलने लग जाते हैं। घटना का कारण क्या था,उसके ज़िम्मदारों को क्या दंड मिला यह बातें काल के गर्भ में समा जाती हैं। देश आगे बढ़ निकलता है और चतुर चालाक व शातिर राजनीति उससे जुड़ी भ्रष्ट,लापरवाह,ग़ैर जवाबदेह शासन व्यवस्था पुनः नये हादसों का ताना बाना बुनने में लग जाती है। झूठ,मक्कारी,आरोप प्रत्यारोप,स्वार्थ पूर्ण राजनीति से सराबोर इस व्यवस्था में चाहे कोई भी राज्य हो या किसी भी राजनैतिक दल की सरकार, देश में घटने वाली ऐसी दुर्घटनायें देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को यह बताने के लिये काफ़ी है कि विश्व गुरु बनने के ‘आउटर सिग्नल ‘ पर खड़ा और दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की दौड़ में शामिल हमारे देश और भारतीय व्यवस्था में इंसानी जान की क़ीमत क्या है।