
निर्मल रानी
विगत दस वर्षों से देश का सामाजिक ढांचा छिन्न भिन्न करने के सत्ता संरक्षित प्रयास जिस तरह से किये जा रहे हैं उन्हें देखकर तो अब यही लगने लगा है कि हमारे देश की राजनीति और सत्ता अपने मूल उद्देश्य से भटक चुकी है। सत्ता के चाहवानों के लिये देश की विकासोन्मुख योजनाऑन ,नागरिकों को मिलने वाली मूलभूत सुविधाएं,बिजली पानी सड़क रोज़गार स्वास्थ शिक्षा मंहगाई नियंत्रण से कहीं ज़्यादा ज़रूरी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बन चुका है। वैसे भी जिन लोगों को नित्य सूर्योदय के साथ ही हाथों में लठ देकर नफ़रत का पाठ पढ़ाया जाता हो, जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले आरएसएस प्रमुख द्वितीय एम एस गोलवलकर स्वयं अपनी पुस्तक ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में ये विचार व्यक्त कर चुके हों कि -‘मुसलमान ईसाई और कम्युनिस्ट राष्ट्र के दुश्मन हैं। उस संगठन व उससे जुड़े अन्य संगठनों के लोगों से नफ़रत का ज़हर बोने के सिवा और क्या उम्मीद की जा सकती है ? इन्हें केवल मुसलमानों ईसाइयों और कम्युनिस्ट विचार के लोगों से ही नहीं बल्कि हर उन लोगों से भी नफ़रत है जो इनके साम्प्रदायिकतावादी और नफ़रती एजेंडे के ख़िलाफ़ हो। इसकी एक बड़ी व महत्वपूर्ण वजह यह भी है कि इस विचारधारा के लोगों के स्वतंत्रता संग्राम के समय के स्वयं अपने ‘ट्रैक रिकार्ड’ इतने ख़राब व शर्मनाक हैं कि उन्हें छिपाने के लिये उनपर होने वाली चर्चाओं से ध्यान भटकाने के लिये ही यह शक्तियां मुसलमानों,ईसाइयों और कम्युनिस्टों के साथ साथ देश के उन बहुसंख्य धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं को भी निशाना बनाती हैं जो इनके मूल चरित्र व विध्वंसक इरादों से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं। इन अतिवादी शक्तियों का एक ही मक़सद है कि येन केन प्रकारेण यह सत्ता में बनी रहें। इसलिये इन्होंने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को ही अपना सबसे आसान ‘शस्त्र ‘ चुन लिया है।
यही वजह है कि इन्हें देश का महान नायक टीपू सुल्तान बुरा लगता है। इन्हें प्रत्येक मुग़ल शासक से नफ़रत है। इन्हें किसी भी मुग़ल शासक में सिवाय बुराई के कोई भी अच्छाई नज़र नहीं आती। इन्हें उर्दू से नफ़रत,शेरो शायरी से बैर,पीरों फ़क़ीरों की मज़ारों से आपत्ति,उनके स्मारकों से नफ़रत उनके नाम पर बने शहरों क़स्बों मुहल्लों गलियों व मार्गों से बैर। गोया यह विचारधारा देश की एक ऐसी संगठित विचारधारा है जिसका जन्म ही नफ़रत की बुनियाद पर हुआ है। और निश्चित रूप से यही विचारधारा और इसी दैनिक प्रातःकालीन नफ़रती शिक्षा का ही परिणाम था जिसने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को हमसे असमय ही छीन लिया। केवल गाँधी को ही नहीं छीना बल्कि आज गाँधी का हत्यारा नाथू राम गोडसे इसी विचारधारा के लोगों के द्वारा महिमामंडित भी किया जाता है। कितना अफ़सोसनाक है कि इसी नफ़रती विचारधारा से जुड़े लोग गाँधी के हत्यारे की मूर्तियां भी लगाते दिखाई दे जाते हैं उस आतंकी हत्यारे की स्तुति भी करते हैं। और तो और गाँधी की हत्या का प्रदर्शन दोहरा कर उसका वीडियो भी वायरल कर दिया जाता है। जबकि ठीक इसके विपरीत अंग्रेज़ों की ख़ुशामद करने वाले, अंग्रेज़ों से मुआफ़ी मांगने तथा स्वतंत्रता सेनानियों की मुख़बिरी करने वाले लोग इनके आदर्श हैं ?
विद्वेष व नकारात्मकता की इनकी राजनीति का आलम यह है कि इन्हें ख़ास समुदाय के ग़रीब मेहनती मज़दूरों,रेहड़ी ठेले रिक्शे वालों से नफ़रत है। रोज़गार उपलब्ध करना तो छोड़िये यह तो मुसलमान दुकानदारों का बहिष्कार करते दिखाई दे जायेंगे। इन्हें मुसलमानों के सोसाइटीज़ में फ़्लैट ख़रीदने से आपत्ति होती है। इन्हें नमाज़ पढ़ने रोज़ा इफ़्तार से एतराज़। मुसलमानों के हिन्दू त्योहारों में शिरकत से भी इन्हें आपत्ति है परन्तु इनकी उत्तेजक व आपत्तिजनक नारेबाज़ी व हुड़दंग की प्रिय जगह मस्जिद ही है। जब देखिये जहां देखिये मस्जिद के सामने डी जे व लाउडस्पीकर पर जानबूझकर शोर मचाते हैं भड़काऊ नारे लाउडस्पीकर पर लगाते हैं ताकि दूसरा पक्ष उत्तेजित होकर इनका जवाब दे और यह हुड़दंग साम्प्रदायिक उन्माद में बदल जाये। जहाँ देखिये इन्हें मस्जिदों में शिवलिंग नज़र आने लगता है। देश के संविधान व क़ानून की अनदेखी कर यह ऐसे विषयों को उन्माद में बदल देते हैं ताकि इन्हें साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का लाभ मिल सके।
और इस साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद हासिल सत्ता के माध्यम से इनके जो फ़ैसले हैं वह भी देश को गर्त में ले जाने वाले हैं। आज देश की सीमायें हर तरफ़ से असुरक्षित हैं। चीन हज़ारों किलोमीटर की ज़मीन क़ब्ज़ा किये बैठा है मगर इनकी रट यही रहती है कि हमारी ज़मीन में कोई नहीं घुसा है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप भारत के नागरिकों व भारतीय व्यवसायिक हितों को कितना नुक़्सान पहुंचा रहे हैं परन्तु मोदी एक शब्द भी बोलने का साहस नहीं करते। भारतीयों को कितने अपमानजनक तरीक़े से हथकड़ी बेड़ी पहनाकर अमेरिकी सैन्य विमान से भेजा गया इन्होंने कोई एतराज़ नहीं जताया जबकि अन्य किसी देश के नागरिकों के साथ अमेरिका ने ऐसा अपमानजनक व्यवहार नहीं किया। ‘ट्रंप से दोस्ती’ का क्या देश को यही सिला मिलना चाहिए था ? यदि आंतरिक मामलों को देखें तो इसी ‘धर्म की अफ़ीम ‘ की बुनियाद पर बनी सरकार ने देश में नोटबंदी कर देश की अर्थव्यवस्था को ज़ोरदार आघात पहुँचाया। आज तक कोई अर्थशास्त्री इनके इस फ़लसफ़े के बारे में यह नहीं बता पाया कि 8 नवंबर 2016 को जब प्रधानमंत्री मोदी ने टी वी पर ‘प्रकट’ होकर अचानक 500 और 1000/- रूपये की नोट यह कहकर चलन से बाहर की थी कि इससे काले धन पर लगाम लगेगी । उसी समय मोदी ने यह भी कहा था कि भ्रष्टाचार,कालेधन और जाली नोट के कारोबार में लिप्त देश विरोधी व समाज विरोधी तत्वों के पास मौजूद 500 और हज़ार रूपये के पुराने नोट अब केवल एक काग़ज़ के टुकड़े के सामान रह जायेंगे।
सवाल यह कि जब 500 व एक हज़ार की नोट से कालाधन व भ्रष्टाचार बढ़ता था फिर आख़िर दो हज़ार की नोट क्या सोचकर चलाई गयी थी ? और पुनः 500 की नोट चलाने व 2000 की नोट शुरू करने से भ्रष्टाचार,कालेधन और जाली नोट का चलन पहले से अधिक क्यों बढ़ गया ? और यह भी कि कुछ महीने बाद फिर 2000 की नोट बाज़ार से क्यों ग़ायब हो गयी ? इस ‘निराली अर्थ नीति ‘ का आख़िर उद्देश्य क्या था ? क्या यह देश को जानने का हक़ नहीं ? यू पी ए के समय बढ़ती मंहगाई पर विलाप करने व अर्धनग्न प्रदर्शन करने वालों की वर्तमान सरकार आज अनियंत्रित मंहगाई पर ख़ामोश है। बेरोज़गारी के आंकड़े अपना कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। परन्तु इन जैसी वास्तविकताओं से मुंह फेर नफ़रत के ये सौदागर गड़े मुर्दे उखाड़ते फिर रहे हैं और समाज में नफ़रत का ज़हर बो रहे हैं।