जेल से सरकार चलाने पर रोक संबंधी तीन विधेयक-दागी जेल से नहीं चला पाएंगे सरकार

Three bills related to the ban on running the government from jail- tainted people will not be able to run the government from jail

प्रमोद भार्गव

अर्से से चुनाव सुधार के लिए ऐसी विसंगतियां दूर करने की मांग उठती रही है, जिनके चलते दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों के आरोपियों को चुनाव लड़ने के अधिकार के साथ, मुख्यमंत्री रहते हुए जेल से सरकार चलाने का अधिकार भी मिला हुआ है। किंतु अब केंद्र सरकार तीन संविधान संशोधन विधेयक लाकर इन विरोधाभासी कानूनों को बदलने की तैयारी में है, जो दागियों को जेल में रहते हुए सरकार चलाने की सुविधा देते हैं। कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष के भारी हंगामे के बीच लोकसभा में 130वां संविधान संशोधन विधेयक समेत तीन विधेयक पेश किए गए। इनमें गंभीर आपराधिक आरोप में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों के लगातार 30 दिनों तक जेल में बंद रहने की स्थिति में स्वमेव पद से हटाने का प्रविधान शामिल है।

दरअसल दागियों को चुनाव लड़ने से तब तक बाधित नहीं किया जा सकता है, तब तक वर्तमान विरोधाभासी कानूनों में परिवर्तन नहीं कर दिया जाता। इस मकसद पूर्ति के लिए केंद्र सरकार तीन विधेयक पारित कराने की इच्छुक है। पहला, संविधान में 130 वां संशोधन विधेयक-2025 है, जिसके तहत 30 दिन तक जेल में रहकर पद पर बने रहने वाले प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों को हटाने का प्रविधान है। पारित होने के बाद यह कानून केंद्र और राज्य सरकारों पर लागू होगा। दूसरा विधेयक केंद्र शासित प्रदेशों के लिए इन्हीं प्रविधानों के साथ लागू होगा। तीसरा विधेयक जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 (34) के तहत गंभीर आपराधिक आरोपों के कारण गिरफ्तार और हिरासत में लिए गए मुख्यमंत्री या मंत्री को हटाने का कोई प्रावधान नहीं है। अतएव धारा-54 में संशोधन करके आपराधिक मुख्यमंत्री एवं मंत्रियों को 30 दिन में हटाने का प्रविधान किया जाएगा। हालांकि इन सभी विधेयकों में जमानत की सुविधा दी गई है। यदि 30 दिन में जमानत नहीं मिलती है तो ये स्वयं अयोग्यता के दायरे में आ जाएंगे। यदि बाद में जमानत मिल जाती है तो फिर से पद पर बैठने के अधिकारी हो जाएंगे।

सरकार को संसद के दोनों सदनों से संशोधन विधेयक पारित कराने होंगे। वर्तमान में दलों के बीच जबरदस्त असहमति और टकराव है, अतएव ऐसा संभव होना कठिन है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी ऐसे किसी बदलाव को संविधान का खात्मा करने का बहाना करते हुए संसद में हल्ला मचाएंगे और अन्य जिन विपक्षी दलों की बुनियाद दागियों पर टिकी है, वह उनका समर्थन करेंगे। हालांकि भाजपा और उनके सहयोगी दलों में भी दागियों की संख्या कम नहीं है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यह अपेक्षा इसलिए की जा सकती है, क्योंकि एक तो वे चुनाव सुधार की मुखर पैरवी करते रहे हैं, दूसरे जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को खत्म करने का साहस दिखा चुके हैं। इसलिए तत्काल टकराव को टालने के नजरिये से गृहमंत्री अमित शाह ने इन विधेयकों को संसद की संयुक्त समिति को समीक्षा हेतु भेजने का प्रस्ताव रखा, जिसे लोकसभा अध्यक्ष ने स्वीकार भी कर लिया। चूंकि ये विधेयक विधायिका को अपराध मुक्त बनाने की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक हैं, इस कारण संयुक्त संसदीय समिति भी इन विधेयकों को समर्थन में दिखाई देगी ?

दरअसल जेल में बंद और जमानत पर छूटे दागियों को इसलिए राहत मिल जाती है, क्योंकि कानून की निगाह में आरोपी को दोष सिद्ध नहीं हो जाने तक निर्दोष माना जाता है। इसी आधार पर बंदी और दो साल से कम की सजा पाए लोगों को चुनाव में हस्तक्षेप के अधिकार मिले हुए हैं। देश में जाति और संप्रदाय आधारित विडंबनाएं इस हद तक हैं कि अनेक दागी चुनाव जीत भी जाते हैं। यहां तक की राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत जेल में बंद खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह ने पंजाब की खडूर साहिब लोकसभा सीट से विजय हासिल कर ली थी। इसी तरह टेरर फंडिग में तिहाड़ जेल में बंद इंजीनियर रशीद ने जम्मू-कश्मीर की बारामूला विधानसभा सीट से चुनाव जीत लिया था। इस परिप्रेक्ष्य में विचारणीय बिंदू यह भी है कि हत्या, बलात्कार, आतंक, अलगाव और हिंसा भड़काने वाले लोग यदि जीतकर संसद और विधानसभा में पहुंच जाते हैं, तब क्या इन सदनों की गरिमा या संविधान की महिमा बढ़ जाती है ? यदि नहीं बढ़ती तो राजनीतिक दल इन्हें टिकट क्यों देते हैं ? क्या उन्हें देश की अखंडता की चिंता नहीं है ? नागरिक शुचिता की अपेक्षा जहां मतदाता से की जाती है, वहीं संवैधानिक मर्यादा का पालन करने का दायित्व दल और निर्वाचित प्रतिनिधियों का है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 10 जुलाई 2013 को दिए एक फैसले के अनुसार किसी आपराधिक मामले में 2 वर्ष की सजा पाए दोषी सांसद, विधायक व अन्य जनप्रतिनिधियों के पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। जिस तारीख से सजा सुनाई गई है, उसी दिन से माननीयों की सदस्यता निरस्त मानी जाएगी। अदालत ने इस फैसले में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को रद्द कर दिया था। यह धारा दागी नेताओं को मुकदमे लंबित रहते हुए भी पद पर बने रहने की छूट देती थी, यह फैसला 2006 में दाखिल वकील लिली थॉमस की याचिका पर दिया गया था। किंतु इस फैसले के विरुद्ध केंद्र सरकार ने संसद में सर्वसम्मति से संशोधन विधेयक लाकर शीर्ष अदालत के फैसले को चुनौती दी थी। इस बिल में धारा 8 की उपधारा 4 में एक प्रावधान जोड़ा, ताकि दागी नेताओं की कुर्सी बची रहे और वे सदन की कार्यवाही में भागीदारी करते रहें। किंतु अदालत ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि उपधारा 4 भेदभाव पूर्ण है, क्योंकि यह दोशी ठहराये गए आमजन को तो चुनाव लड़ने से रोकती है, लेकिन जनप्रतिनिधि को सुरक्षा मुहैया कराती है। दरअसल दागियों के कंधे पर टिका विपक्ष ऐसे कानूनों का पक्षकार इसलिए है, जिससे वह संप्रदाय और जाति के ध्रुवीकरण के आधार पर जीते प्रतिनिधियों के बूते अपना वर्चस्व संसद में बनाए रखे।

संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा दोशी-करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जा सकते हैं। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता भी नहीं बन सकता हैं। तो वह जनप्रतिनिधि बनने के नजरिए से निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है ? संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत यह दोहरा मापदंड समानता के अधिकार का उल्लंघन है। समान न्यायिक व्यवहार की इस मांग को जनहित याचिका के जरिए लिली थॉमस और लोक प्रहरी नामक एनजीओ ने अदालत के समक्ष रखा था। याचिका में दर्ज इस विसंगति को शीर्ष न्यायालय ने अपने अभिलेख में प्रश्नांकित करते हुए तब कि मनमोहन सिंह सरकार से जवाब तलब भी किया था। केंद्र ने शपथ-पत्र देकर तर्क गढ़ा था कि ‘कई बार सरकार बनाने या गिराने में चंद वोट ही बेहद महत्वपूर्ण होते हैं, लिहाजा सजा मिलने पर किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता खत्म कर दी जाती है तो सरकार की स्थिरता ही खतरे में पड़ सकती है।’ सरकार ने यह भी तर्क दिया था ‘यह उन मतदाताओं के संवैधानिक अधिकार का हनन होगा, जिन्होंने उन्हें चुना है।’ जाहिर है, सरकार राजनीति में शुचिता लाने के बरक्श अपराध बहाली को तरजीह दे रही थी। अन्यथा सरकार क्या यह नहीं जानती कि जो प्रतिनिधि जेल में कैद है, वह क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है ? क्या सरकार इस संवैधानिक व्यवस्था से अनभिज्ञ है कि किसी प्रतिनिधि की मृत्यु होने, इस्तीफा देने अथवा सदस्यता खत्म होने पर छह माह के भीतर नया जनप्रतिनिधि चुनने की संवैधानिक अनिवार्यता है ? इस स्थिति में न तो कोई निर्वाचन क्षेत्र नेतृत्वविहीन रह जाता है और न ही किसी सरकार की स्थिरता खतरे में पड़ती है ? ऐसी दोशपूर्ण प्रणाली के चलते ही राजनीति का मूलाधार वैचारिक अथवा संवैधानिक निष्ठा की बजाय सत्ता के गणित में सिमट कर रह गया है।

दागियों के बचाव में राजनेता और कथित बुद्धिजीवी बड़ी सहजता से कह देते हैं कि दागी, धनी और बाहुबलियों को यदि दल उम्मीदवार बनाते हैं तो किसे जिताना है, यह तय स्थानीय मतदाता को करना होता है। बदलाव उसी के हाथ में है। वह योग्य, शिक्षित तथा स्वच्छ छवि के प्रतिनिधि का चयन करे। लेकिन ऐसी स्थिति में अकसर मजबूत विकल्प का अभाव होता है। अतएव मतदाता के समक्ष दो प्रमुख दलों के बीच से ही उम्मीदवार चयन की मजबूरी पेश आती है। लोक पर राजनेता की मंशा असर डालती है। जनता अथवा मतदाता से राजनीतिक सुधार की उम्मीद करना इसलिए बेमानी है, क्योंकि राजनीति और उसके पूर्वग्रह पहले से ही मतदाताओं को धर्म और जाति के आधार पर बांट चुके होते हैं। बसपा, सपा और एआईएमआईएम का तो बुनियादी आधार ही जाति है। वैसे भी देश में इतनी अज्ञानता, अशिक्षा, असमानता और गरीबी है कि लोग बांटी जा रही मुफ्त की रेवड़ियों के आधार पर मतदान करने लगे हैं। ऐसे में जिस स्तर पर भी केंद्र सरकार राजनीति में शुचिता और नैतिकता के कानूनी मानदंड स्थापित करने के प्रयास में है तो विपक्ष को राष्ट्रहित में समर्थन करने की जरूरत है।