जातीय संघर्ष कब तक?

ओम प्रकाश उनियाल

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां संविधान में सबके अधिकार समान हैं। विभिन्न प्रकार की जातियों के लोग यहां रहते हैं। आज जब हम खुद को आधुनिकता के रंग में रंग रहे हैं तो फिर अपनी सोच बदलने में क्यों हिचकिचा रहे हैं? छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर हिंसा पर उतर आना हमने अपनी आदत बना डाली है। हर मुद्दे या मांग पर राजनीति हावी हो जाती है। जिसके चलते हिंसा उग्र रूप धारण कर लेती है। जातिवाद फैलाकर एक-दूसरे के प्रति नफरत पैदा करने की कुत्सित चालों का जाल हर कोई बुनता रहता है। जो मुद्दा आपसी बातचीत से आसानी से सुलझ सकता है उसे जबरदस्ती भटकाने का प्रयास किया जाता है। राजनीतिज्ञ तो यही चाहते हैं कि किसी न किसी प्रकार का मुद्दा गरमाता रहे ताकि वे राजनीतिक रोटी सेंक सकें। हिंसा कई प्रकार की होती है। जातीय संघर्ष भी उसी का एक रूप है। एक-दूसरी जाति को नीचा दिखाने व एक-दूसरे पर हावी होने के प्रयास में जो आग भड़कती है वह कभी-कभी इतना विकराल रूप धारण कर लेती है कि हालात पर काबू पाना मुश्किल हो जाता है। जातीय हिंसा का इतिहास काफी पुराना है। भारत में ही नहीं विदेशों में भी जातीय संघर्ष की घटनाएं घटती रहती हैं। भारत में हाल ही में मणिपुर जिस प्रकार से जातीय संघर्ष की आग में सुलगा उससे वहां के लोग दहशत में हैं। मणिपुर में तीन प्रकार की जनजातियां वास करती हैं। मेइती, नागा और कुकी। मेइती समुदाय बहुसंख्यक हैं जबकि, नागा एवं कुकी आदिवासियों की संख्या उनसे कम है। मेइती समुदाय इंफाल घाटी में व नागा एवं कुकी पर्वतीय क्षेत्र में रहते हैं। इन समुदायों के बीच अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग को लेकर हिंसा भड़की। सरकार द्वारा मेइती समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के फैसले व आरक्षित वन क्षेत्र को आदिवासी समुदाय से खाली कराने के अभियान का विरोध आदिवासी नागा व कुकी कर रहे हैं। हिंसा किसी भी प्रकार की हो आपसी नफरत को तो जन्म देती ही है कई जिंदगियां भी लीलती है। अन्य प्रकार की हानि भी होती है।