जीवन की रक्षा के लिए भी विकास के समांतर धरती को बचाने का संकल्प लेना होगा

To save life, we will have to take a pledge to save the earth parallel to development

विजय गर्ग

सभ्यता की शुरुआत से ही प्रकृति और मनुष्य के बीच बहुत गहरा संबंध रहा है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, लेकिन आज ऐसा लगता है कि इंसान को प्रकृति की उतनी रह गई है। इसमें दोराय नहीं कि पर्यावरण परवाह नहीं रह सिमटता नजर आ पर संतुलन को बनाए रखना आवश्यक है, लेकिन विकास इंसानी सभ्यता का एक जरूरी पहलू है। पहले जहां जंगल थे, चारों तरफ हरियाली थी, वहां अब सब कुछ है। बढ़ती आबादी के समांतर विकास एक अपरिहार्य स्थिति है। मगर इस क्रम में अनेक जगहों पेड़ों की अनियंत्रित कटाई के साथ ही जंगलों की स्थिति ऐसी कर दी गई है, आज । पारिस्थितिकी के सामने एक बड़ा संकट खड़ा हो रहा में पिछले कुछ वर्षों से जंगल लगातार कम होते जा रहे हैं। ऐसे दौर में, जब पर्यावरण विशेषज्ञ दुनियाभर में घटते जंगलों पर चिंता जता रहे हों, पर चिंता जता रहे हों, भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआइ) की रपट ने थोड़ी राहत दी है। जिसमे भारत इसके मुताबिक, वर्ष 2021 से 2023 तक भारत का कुल वन और वृक्ष आवरण क्षेत्र 1,445 वर्ग किलोमीटर बढ़ा है। देश को हरा-भरा रखने में मध्य प्रदेश सबसे आगे है। अरुणाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और ओड़ीशा में भी दो साल पहले के मुकाबले हरियाली बढ़ी है। इससे संकेत मिलते हैं कि देश में कई वर्षों से जारी सामाजिक वन उत्सव और वृक्षारोपण “और वक्षारोपण जैसी योजनाओं का असर दिखने लगा है। है। हालांकि रपट में ये तथ्य चिंताजनक है कि उत्तराखंड और पूर्वोत्तर के राज्यों में वन एवं वृक्ष आवरण क्षेत्र घटा है।

पहली नजर में यह तथ्य राहत दे सकता है कि देश में में पिछले दो वर्षों में वन और वृक्ष क्षेत्र का दायरा देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र के एक चौथाई से ज्यादा (25.17 फीसद) हो गया है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर यह दायरा | की दृष्टि से लक्ष्य फिलहाल काफी बढ़ने के बावजूद पारिस्थितिकी सनक पारिस्थितिकीय स्थिरता कायम है। राष्ट्रीय वन नीति- 1988 के रखने के लिए देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का कम से कम एक तिहाई हिस्सा वन क्षेत्र होना चाहिए। एफएसआइ ने सर्वेक्षण रपट की रपट की शुरुआत वर्ष 1987 में की थी। तब से अब तक दो फीसद ही बढ़ी हिस्सेदारी करीब है। जाहिर है, दुनिया के दूसरे देशों की की तरह जनसंख्या ॥ वृद्धि, शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण भारत में भी जंगल प्राकृतिक तौर पर फल- फल नहीं पा रहे हैं। विकास परियोजनाओं की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता, , लेकिन खनन लिए जंगलों की कटाई बड़ी कटाई बड़ी समस्या है, पर सुप्रीम कोर्ट ने ने भी समय-समय पर चिंता जताई है।

गौरतलब है कि हरियाली क्षेत्र में जो बढ़ोतरी दर्ज की गई है, उसका अधिकतर हिस्सा प्राकृतिक वन क्षेत्र से बाहर है, जो वृक्षारोपण और कृषि आधारित वानिकी का नतीजा है। निश्चित रूप से इन प्रयासों का अपना महत्त्व है, लेकिन प्राका प्राकृतिक वन क्षेत्र के भरे-पूरे पेड़ों की तुलना शहरों में पौधरोपण अभियान से तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि लगाए गए पौधे पूरी तरह विकसित नहीं हो जाते। ऐसे में वन संशोधन अधिनियम (2023) को लेकर चल रही बहस की अहमियत भी बढ़ जाती है। इस संशोधन में गैर वर्गीकृत जंगल का संरक्षण हटाने की बात है। गौर करने की बात है कि इस श्रेणी में कुल वनक्षेत्र का सोलह फीसद से ज्यादा हिस्सा आ जाता है, जो बुनियादी ढांचा परियोजनाओं से संभावित से खतरे के दायरे में आ जाएगा। कहा जा सकता है, वृक्षारोपण और कृषि वानिकी के जरिए हरित क्षेत्र का दायरा बढ़ाने का प्रयास निश्चित रूप से सराहनीय है, लेकिन प्राकृतिक वन क्षेत्र का संरक्षण भी उतना ही अहम है।

दुनिया तेजी से शहरीकरण की ओर बढ़ रही है, लेकिन हकीकत यह है कि शहरीकरण हमारी प्रकृति के सामने कहीं ज्यादा चुनौती पेश कर रहा है।

शहरों के विकसित होने के साथ-साथ दुनियाभर में हरियाली का दायरा सिकुड़ रहा है और कंक्रीट के जंगल बढ़ रहे हैं। इतना ही नहीं, बिगड़ते पर्यावरणीय संतुलन और मौसम | चक्र में आते बदलाव के कारण पेड़-पौधों की प्रजातियों के अलावा जीव-जंतुओं की कई प्रजातियों के अस्तित्व पर भी अब संकट के बादल मंडरा रहे हैं। जबकि पर्यावरण का संबंध मानवीय जीवन में महत्त्वपूर्ण है। यों कहें कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। विकास अनिवार्य है, लेकिन आज विकास के आगे पर्यावरण को हाशिये पर छोड़ दिया गया है। को भविष्य की कोई चिंता ही नहीं है। आज बढ़ती भर में वनों की कटाई हो ऐसा लगता है कि मनुष्य आबादी की जरूरतों को पूरा करने के करने के लिए दुनिया भर में रही है। बिगड़ते पर्यावरण से देश की जड़ी- -बूटियां लुप्त होने के कगार पर हैं। फसलों और फलों के उत्पादन पर भी इसका प्रभाव पड़ने लगा है। बिगड़ते पारिस्थितिकी तंत्र का जो परिणाम सामने आने वाला है और कई अर्थों में मनुष्य को को झेलना भी 1 भी पड़ रहा है, उसके मद्देनजर वन और वन्यजीवों के संरक्षण को लेकर सजग होने का समय है। प्राकृतिक संतुलन को बनाए सरस वन बहुत आवश्यक हैं। इससे आर्थिक विकास का ढांचा डगमगाने लगा है। भूख, खाद्य असुरक्षा और गरीबी ने न केवल विकासशील और गरीब देशों पर असर डाला है, बल्कि विकसित देशों को भी परेशानी में डाल दिया है। ईंधन और जैव-विविधता से जुड़े संकटों ने भी आर्थिक विकास पर असर दिखाया है। इस विषम स्थिति में अपने जीवन की रक्षा के लिए भी हमें विकास के समांतर धरती को बचाने का संकल्प लेना होगा।