विक्रम कुमार
मौजूदा हालात के भारत में बेरोजगारी की वास्तविक स्थिति किसी से भी छिपी हुई नहीं है । शुरुआती दिनों में बेरोजगारी एक समस्या बनी , बाद में बड़ी समस्या और आज यह अभिशाप बनकर हमारे बीच विद्यमान है । दिन – ब- दिन बेरोजगारी बढ़ने का सबसे बड़ा कारण जनसंख्या में होनेवाली तीव्र वृद्धि को मान जाता है । आज के दौर में युवा वर्ग अपने करियर को लेकर पहले से ज्यादा जागरुक और सजग है । वहीं अभिभावकों में भी नई जागरुकता का संचार हुआ है । अभिभावक पहले की अपेक्षा यथासंभव शिक्षा अपने बच्चों को मुहैया कराने का प्रयास करते हैं । दूसरी ओर बच्चे भी सजगता से प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के बाद उच्च शिक्षा पाने की हरसंभव कोशिश करते हैं । उच्चवर्गीय परिवारों के जो बच्चे हैं उन्हें तो माध्यमिक से उच्च शिक्षा ग्रहण करने तक में कोई कठिनाई नहीं आती पर मध्य एवं निम्नवर्गीय परिवार के बच्चों को कई कठिनाईयों से होकर गुजरना पड़ता है । कई तो कठिनाईयों का सामना कर निरंतर आगे बढ़ते हैं परंतु कई ऐसे भी होते हैं जो कठिनाईयों से आहत होकर पढा़ई बीच में ही छोड़ देते हैं । वो कौन सी परिस्थितियां हैं जो उन मध्यम एवं निम्नवर्गीय परिवार के छात्रों की राह में रोडा़ बनते हैं ? आखिर वे कौन से कारक हैं जो उनकी पढा़ई को बाधित कर उनकी प्रतिभा एवं मेधा को कुंठा एवं लाचारी में तब्दील करते हैं ? और जवाब है परिवार की कमतर आमदनी , महंगाई और प्रतिष्ठित प्रतियोगी नियोक्ताओं द्वारा लिए जाने वाले आवेदन, पंजीकरण या परीक्षा व परीविक्षा शुल्क । जी हां , हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं कि , मध्यम एवं निम्नवर्गीय परिवार की आर्थिक स्थिति आजादी के 72 वें वर्ष में भी अच्छी नहीं हो पाई है । बावजूद इसके प्रतियोगी परीक्षाओं में विभिन्न नामों से उनसे शुल्क की उगाही की जाती है । आज इन परिवारों की स्थिति यह है कि परिवार में आय के स्रोत कम हैं तथा व्यय के अधिक और इन परिवारों के पास कोई ढ़ंग का रोजगार भी नहीं है , और ऐसा नहीं है कि ये परिवार किसी धर्म अथवा जाति विशेष से ताल्लुक रखते हैं । लगभग सभी धर्मों और जातियों के अंदर इन परिवारों की संख्या बहुतायत होने के बावजूद सियासत के द्वारा चंद सियासी फायदों के लिए मेधा और प्रतिभा भी जातियों में बांट दिए गए हैं । मेधा और प्रतिभा धर्म अथवा जातिगत आधार पर नहीं आती , फिर यह विषमताएं क्यों ? बेरोजगार युवाओं से रोजगार देने के नाम पर शुल्क उगाही करना कहां तक जायज है ?
निम्न एवं मध्यमवर्गीय परिवार अपने बच्चों को किसी तरह से इंटर, स्नातक तक की पढा़ई करवाते हैं ये सोचकर कि अच्छी शिक्षा से अच्छी नौकरी मिलेगी लेकिन, जब ये बच्चे पढा़ई पूरी कर रोजगार की तलाश में प्रतियोगी परीक्षाओं का रूख अख्तियार करते हैं तब ये शुल्क उनके उज्ज्वल भविष्य के आड़े आने लगते हैं । मेरे मन में काफी दिनों से एक सवाल कौंध रहा है कि आखिर महंगाई, बेरोजगारी से त्रस्त इन परिवारों के बेरोजगार बच्चों से ये राशि क्यों ली जाती है ? एक सज्जन ने जवाब दिया आपके आवेदन करने से लेकर आपके बहाल होने तक का वो खर्च है जिसे संस्थान वसूल करता है । इस जवाब को सुनकर एक अन्य सवाल मेरे मन में कौंधने लगा कि , क्या सरकार अन्य मदों की तरह बेरोजगारी के मद को अपने बजट में नहीं ला सकती ? ला सकती है जनाब, पर अब की आनेवाली सभी सरकारों में बेरोजगारी के प्रति उदासीनता का भाव साफ देखा गया है । बेरोजगारी के मसले पर सरकार के अंदर इच्छाशक्ति का घोर अभाव देखने को मिला है । अगर गौर से सोचा जाए तो अब की सरकारें उन मदों पर भी भारी धनराशियां खर्च करती आई है जिससे देश अथवा देशवासियों का कुछ भला नहीं हो पाया है । क्या वैसे कुछ खर्चों को रोक कर या कम करके सरकार इन परिवारों के बच्चों पर खर्च नहीं कर सकती ? कभी-कभी सोचकर बड़ा अजीब लगता है कि, विधायकों , सांसदों, मंत्रियों तथा अन्य राजनेताओं के वेतन तथा सभी भूतपूर्व माननीयों के पेंशन पर अरबों रूपया बहाने वाली सरकारें अपनी संस्थाओं द्वारा इन बच्चों से शुल्क उगाही करवा रही है । अगर सरकार चाहे तो माननीयों के पेंशन में कटौती कर ऐसे परिवार के बच्चों को ही नहीं बल्कि सभी बेरोजगारों को प्रतियोगी परीक्षाओं में लगने वालें शुल्कों से मुक्त कर सकती है या राहत दे सकती है । चूंकि भारत में बेरोजगारी अपने चरम पर है और इसके फलस्वरूप बेरोजगार लोग भारी मानसिक तनाव एवं दवाब में हैं । बेरोजगारी से त्रस्त लोग लगातार तंगहाली के गर्त में जाने को मजबूर हैं । ऐसे में अगर उन्हें इस प्रकार अवांछित खर्चों से निजात दिला दिया जाए तो उनके अंदर उम्मीद की एक नई किरण की उत्पत्ति होगी ।वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए इस क्षेत्र में कदम उठाना अत्यंत आवश्यक है ।