
हम गा रहे रंग दे मेरा बसंती चोला, सरफरोशी की तमन्ना आज हमारे दिल में है
भारत का 1975 में विश्व कप जीतना आठ ओलंपिक स्वर्ण के साथ मील का पत्थर
भारत के शिखर से फिसलने का कारण हॉकी के नियमों के बदलने के साथ इसकी सूरत बदल जाना
सत्येन्द्र पाल सिंह
नई दिल्ली : हॉकी के जादूगर दद्दा मेजर ध्यानचंद की हॉकी विरासत के वाकई सही वारिस हैं मेरठ में जन्मे उनके 74 बरस के मंझले बेटे अशोक कुमाार सिंह। अपने पिता ध्यानचंद की तरह हॉकी की जादूगरी के चलते ही उनके साथी हॉकी खिलाड़ी उन्हें ‘कारीगर कह कर पुकारते हैं। अशोक कुमार सिंह के विजयदाई गोल से भारत ने शनिवार को 15 मार्च, 1975 यानी 50 बरस पहले अब तक का अपना इकलौता एफआईएच पुरुष हॉकी विश्व कप खिताब अजित पाल सिंह की कप्तानी में जीता था। भारत की 1975 में हॉकी विश्व कप जीतने वाली टीम के 16 सदस्यों में 11 अभी जीवित है और भगवान सभी को दीर्घायु करे जबकि इनमें से पांच -सुरजीत सिंह रंधावा, माइकल किंडो, सेंटर फारवर्ड शिवाजी पवार, राइट हाफ वरिंदर सिंह और मोहिंदर सिंह मुंशी-दिवंगत हो चुके हैं और अशोक कुमार ने इन सभी को अपने समय का विलक्षण हॉकी खिलाड़ी बताया। भारत के हॉकी विश्व कप जीतने के 50 बरस पूरे होने पर प्रस्तुत है अशोक कुमार सिंह से देश की हॉकी यात्रा पर की गई खास बातचीत है। अशोक कुमार सिंह भारत के लिए 1971 से लेकर 1978 तक लगातार चार हॉकी विश्व कप में खेले और उन्होंने भारतीय हॉकी के शिखर तक पहुंचने की खुशी और फिर एस्ट्रो टर्फ के इससे नीचे फिसलने का दौर देख देखा। अशोक कुमार सिंह की तरह भारत के लिए लगातार चार हॉकी विश्व कप खेलने के गौरव उनके समकालीन अपने समय के बेहतरीन फुलबैक सुरजीत सिंह रंधावा और धनराज पिल्लै को हासिल है।
अशोक कुमार कहते हैं, ‘भारत के हॉकी के शिखर से फिसलने का कारण दुनिया में हॉकी के नियमों के बदलने के साथ इसकी शक्ल और सूरत का बदल जाना और इसे घास की बजाय सीधे एस्ट्रो टर्फ पर खेला जाना है। आप खुद ही देख ले कि 70, 80 व 90 के दशक में भारत के पास कितनी एस्ट्रो टर्फ थी।आज भी हॉकी में यूरोपीय देशों की तुलना में हमारे पास कितने कम एस्ट्रो टर्फ हैं । तब हम पूरे 70 मिनट सभी 11 खिलाड़ी खिलाड़ी खेलते थे। आज तो रोलिंग सब्सिटयूशन यानी आप किसी भी वक्त किसी भी खिलाड़ी को बाहर बुला कर उसकी जगह दूसरे खिलाड़ी को मैदान पर भेज सकते हैं। ऑफ साइड का नियम खत्म हो चुका है। आज हॉकी टीम में सबसे बढ़िया खिलाड़ी वह है जो सबसे ज्यादा गोल करता है और सबसे ज्यादा गोल बचाता है।
किसी खिलाड़ी के गोल करने में उसके पीछे बाकी खिलाड़ियों के योगदान की चर्चा कम ही होती है। 1976 के ओलंपिक में जाने वहां एस्ट्रो टर्फ पर खेलने से पहले अभ्यास में हमें घास के मैदान पर गोबर का लेप कर कहा कि यह एस्ट्रो टर्फ है। आज तो हॉकी में बस जीत और हार बची है। आज हॉकी की जादूगरी की खत्म हो गई है। हॉकी की वह जादूगरी जिसके लिए मेजर ध्यानचंद जाने जाते थे और इसी की चर्चा आज तक दुनिया करती है। भारत को मिली बराबर हार से हॉकी और इसके खिलाड़ियों का रुतबा कम हो गया । पहले दिल्ली सहित देश के अन्य शहरों में हॉकी के इतने क्लब थे कि बराबर बच्चे हॉकी में हॉकी स्टिक थामे और मैदान पर अभ्यास करते दिख जाते थे। हॉकी की चर्चा सिर्फ अखबारों के पन्नों तक सीमित होकर रह गई। पहले हॉकी कर बच्चा गली, मोहल्ले और सड़क पर खेलता और बराबर अपने कौशल को निखारता था। हॉकी खिलाड़ियों ने भारत के लिए खेलने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा लिया लेकिन इसमें उनका अपना परिवार पीछे छूट गया। हमारे कोच ओलंपियन बलबीर सिंह दोसांज साहब कहते थे हॉकी मं मैदान पर जीत कर गले में माला पहनो और जब तक घर तक पहुंचों यह मुरझा जाएगी। साथ ही हमारे हॉकी में शिखर से फिसलने का कारण चयन में पक्षपात रहा और हमेशा चार पांच खिलाड़ी हर दौर में ऐसे रहे जो बराबर खेले जबकि बाकी काबिल खिलाड़ी भले ही मौके के लिए तरसते रह गए।
वह बताते हैं, ‘मुझे 15 मार्च, 1975 में क्वालालंपुर में पूरे टीम प्रयास से हमारी भारतीय हॉकी टीम का पहला और अब तक का इकलौता विश्व कप खिताब जीतना आज भी याद है। यह भी संयोग की बात है 15 मार्च, 1975 को जब हमने अब तक का इकलौता हॉकी विश्व कप जीता था उस दिन भी शनिवार था। अब जब इस जीत के 50 बरस पूरे हो रहे हैं तो संयोग से इस 15 मार्च को भी शनिवार है। हमारी भारतीय हॉकी टीम के लिए 1975 के हॉकी विश्व कप की यह इकलौती जीत आठ ओलंपिक स्वर्ण के साथ साथ भारत के हॉकी इतिहास में एक मील का पत्थर है। शनिवार 15 मार्च, 1975 को फाइनल के दिन मैंने शनि देव पर तेल चढ़ा कर गया था। फाइनल की सुबह मेरे कमरे में हमारी कोच मुल्क के आजाद होने के बाद हमारे कोच लगातार तीन ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय टीम के सदस्य रहे स्वर्गीय सरदार बलजीर सिंह दोसांज और मैनेजर बोधी साहब मेरे कमरे में आए । मेरे कमरे में मेरे साथ पी ई कालिया थे। उनके साथ एक शख्स थे और उन्होंने हमारी टीम के सभी साथियों को नीले रंग की कपड़े की कतरन दी और फाइनल में इसे अपनी जेब में रख खेलने उतरने की गुजारिश थी।
पाकिस्तान के खिलाफ क्वालालंपुर में हॉकी विश्व कप फाइनल खेलने जाने से पहले कोच बलबीर साहब और मैनेजर बोधी साहब के साथ हमारी भारतीय टीम को मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च सभी में पूजा करने गई थी। तब हम शहीद फिल्म के देशभक्ति से ओतप्रोत गीत रंग दे बसंती चोला, सरफरोशी की तमन्ना आज हमारे दिल में है गा रहे थे। सरदार हरचरण सिंह गुरुग्रंथ साहब की बाणी गुनगुना रहे तो असलम शेर खां अल्ला हो अकबर का नारा लगाते हुए फाइनल से पहले खुद को पूरी तरह जोश से सराबोर करने पर पर ध्यान लगा रहे थे। पाकिस्तान के खिलाफ फाइनल में विजयदाई गोल भले ही मैने किया लेकिन इसमें हमारी भारतीय टीम के मेरे सभी साथियों सुरजीत सिंह, हरचरण सिंह, बीपी गोविंदा, शिवाजी पवार, माइकल किंडो सभी का योगदान था। मैं फाइनल में अपने गोल की बाबत यही कहूंगा कि मैं तो बस कारक था और इसी हकदार पूरी भारतीय टीम थी। मैं बेशक मानता हूं कि हॉकी विश्व कप हो, ओलंपिक हो, राष्ट्रमंडल खेल या एशियाई खेल इसमें खिताब जीतने में बेशक 80 फीसदी बतौर हॉकी खिलाड़ी आपका अहम कौशल होता है लेकिन इसके लिए 20 फीसदी आपके ईष्ट आपके भगवान, वाहे गुरु, अल्लाह और यीशु की कृपा या उसकी सही निगाह भी जरूरी होती है।’
अशोक कुमार कहते हैं,‘भारत के बार्सीलोना (स्पेन) में पहले विश्व कप में तब हमने चैंपियन बने पाकिस्तान से सेमीफाइनल में 1-2 से हारने के बाद एमपी गणेश के गोल से केन्या को 1-0 से हरा कांसा, एम्सतलवीन(नीदरलैंड) बीपी गोविंदा के गोल से में पाकिस्तान को सेमीफाइनल में 1-0 से हराने के बाद मेजबान नीदरलैंड से फाइनल में निर्धारित और अतिरिक्त समय में सुरजीत सिंह के दो गोल से दो दो की बराबरी के टाईब्रेकर में 2-4 से हार खिताब जीतने से चूकने के बाद 1975 में सेमीफाइनल में मलयेशिया से 1-2 से पिछड़ने के बाद आखिरी मे असलम शेर खान के गोल से निर्धारित समय में 2-1 की बराबरी के बाद हरचरण सिंह के अतिरिक्त समय में गोल से 3-2 से जीत के बाद फाइनल में पाकिस्तान के खिलाफ सुरजीत सिंह के पेनल्टी कॉर्नर पर दागे गोल से एक एक की बराबरी पाने के बाद मेरे (अशोक कुमार सिंह) बिजली की सी तेजी से दागे गोल की बदौलत हमने 2-1 से जीत दर्ज कर पहली बार हॉकी विश्व कप जीतने का गौरव पाया। दरअसल गेंद मेरे फ्लिक पर इतनी तेजी से गोल में गई थी कि अंपायर जी विजयनाथन ने गोल देने में कुछ सेकंड लिए और इस पर पाकिस्तान ने शोर मचाया। आज अच्छी बात यह है कि हमने अपने आठ ओलंपिक स्वर्ण ,एक रजत और 2020 के टोक्यो और 2024 के पेरिस ओलंपिक में दुनिया के बेहतरीन ड्रैग फ्लिकर हरमनप्रीत के पेनल्टी कॉर्नर पर किए गोल और एक बार फर पीआर श्रीजेश के रूप में रक्षापंक्ति की मजबूत दीवार की मौजूदगी में लगातार दूसरी बार कुल चौथी बार कांसा जीत ओलंपिक में अपने पदकों की 13 कर ली। इनमें हमारे हॉकी विश्व कप में 1971 में कांसा, 1973 में रजत और 1975 में स्वर्ण पदक जीतना सोने पर सुहागा है। मैं उम्मीद करता हूं कि हमारी भारतीय टीम अब अगले साल नीदरलैंड और बेल्जियम की संयुक्त मेजबानी में होने वाले हॉकी विश्व कप में पदक जीत कर भारतीय हॉकी के गरिमामय इतिहास में कामयाबी का एक और पन्ना जोड़ सभी का मस्तक उंचा करेगी।
बेशक हरमनप्रीत सिंह ने पेरिस ओलंपिक में आठ मैचो में सबसे ज्यादा दस गोल किए लेकिन वह ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि भारत की अग्रिम पंक्ति ने बराबर उनके लिए पेनल्टी कॉर्नर बनाए। यह उम्मीद है कि हमारी हॉकी अब बराबर कामयाबी की नई दास्तां लिख उसे और बुलंदियों पर पहुंचाएगी। जहां तक एक टूर्नामेंट में हार पर हर नए साल नए कपड़ों की तरह कोच बदलने की बात है तो यह ठीक नहीं है। कोच ने बहुत बड़ी गलती की हो तो उसे बदला जाना ठीक है लेकिन किसी भी कोच को टीम को समझने और उससे बेहतर प्रदर्शन कराने के लिए पूरा वक्त देना बेहतर होगा।’
अशोक कुमार कहते हैं, ‘आज अच्छी बात यह है कि हमने अपने आठ ओलंपिक स्वर्ण ,एक रजत और 2020 के टोक्यो और 2024 के पेरिस ओलंपिक में दुनिया के बेहतरीन ड्रैग फ्लिकर हरमनप्रीत के पेनल्टी कॉर्नर पर किए गोल और एक बार फिर गोलरक्षक के रूप में पीआर श्रीजेश के रूप में रक्षापंक्ति की मजबूत दीवार की मौजूदगी में लगातार दूसरी बार कुल चौथी बार कांसा जीत ओलंपिक में अपने पदकों की 13 कर ली। इनमें हमारे हॉकी विश्व कप में 1971 में कांसा, 1973 में रजत और 1975 में स्वर्ण पदक जीतना सोने पर सुहागा है। मैं उम्मीद करता हूं कि हमारी भारतीय टीम अब अगले साल नीदरलैंड और बेल्जियम की संयुक्त मेजबानी में होने वाले हॉकी विश्व कप में पदक जीत कर भारतीय हॉकी के गरिमामय इतिहास में कामयाबी का एक और पन्ना जोड़ सभी का मस्तक उंचा करेगी। बेशक हरमनप्रीत सिंह ने पेरिस ओलंपिक में आठ मैचो में सबसे ज्यादा दस गोल किए लेकिन वह ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि भारत की अग्रिम पंक्ति ने बराबर उनके लिए पेनल्टी कॉर्नर बनाए। यह उम्मीद है कि हमारी हॉकी अब बराबर कामयाबी की नई दास्तां लिख उसे और बुलंदियों पर पहुंचाएगी। जहां तक एक टूर्नामेंट में हार पर हर नए साल नए कपड़ों की तरह कोच बदलने की बात है तो यह ठीक नहीं है। कोच ने बहुत गलती की हो तो उसे बदला जाना ठीक है लेकिन किसी भी कोच को टीम को समझने और उससे बेहतर प्रदर्शन कराने के लिए पूरा वक्त देना बेहतर होगा।‘
वह अपने 1975 के अब अपने दिवंगत साथियों को याद करते हुए कहते हैं, ‘भारतीय नौसेना के खेल भारतीय हॉकी टीम में जगह पाने वाले माइकल किंडो बतौर फुलबैक किसी भी स्थिति में बेहद शांत रहते थे और उन्हीं की तरह आदिवासी पृष्ठभूमि से आने वाले भारत के लिए चार ओलंपिक खेलने वाले दिलीप तिर्की में भी मैंने उनका सा धैर्य देखा। कब प्रतिद्वंद्वी टीम के फॉरवर्ड को अपनी डी में घुसने के लिए हॉकी कब किस समय अपनी हॉकी डालनी है इसकी किंडो की समझ गजब की थी।सुरजीत बेहतरीन फुलबैक के रूप में टीम की मजबूत दीवार तो थे ही पेनल्टी कॉर्नर पर गोल करने में उनका कोई सानी नहीं था और उनकी ड्रिब्लिंग भी लाजवाब थी। वरिंदर सिंह ने दाएं से हमेशा मेरे लिए बराबर गेंद बढ़ाई मेरे लिए गसोल करने के मौके बनाए। बहुत कम उम्र में दुनिया को अलविदा कहने वाले मोहिंदर सिंह मुंशी ने इस्लाहुद्दीन के पीछे साए की तरह लग कर उन्हें चलने नहीं दिया था।‘
अशोक कुमार कहते हैं, ‘आज हॉकी इंडिया अपने खिलाड़ियों के लिए बहुत सुविधाएं मुहैया कराने के साथ जीत पर पुरस्कृत भी करती है। हमारे हॉकी खेलने के समय परिवार पीछे छूट गया। 1975 में हॉकी विश्व कप जीतने के बरसों बाद कर्नाटक सरकार ने मुझे फाइनल में गोल करने के लिए बरसों बाद एक लाख का रुपये का इनाम दिया। इसके बाद हॉकी खेलने के लिए मैंने अपने जिस मोहन बागान क्लब के लिए अपनी बी कॉम अधूरी छोड़ी उसने मुझे इसके लिए तब सम्मानित किया जब जिम्नास्ट में दीपा कर्माकर ने ओलंपिक में चौथा स्थान पाया था और तब मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने मुझे एक लाख रुपये का इनाम दिया। हम जब 1975 में हॉकी विश्व कप फाइनल खेल थे तब 14 बरस के एक बच्चे रघुनंदन सिंह ने इसकी रेडियो पर महान कमेंटेटर जसदेव सिंह की ओजस्वी वाणी में इसकी कमेंट्री सुनी और मेरे फाइनल में विजयदाई गोल करने पर यह फैसला किया जब वह बड़े होंगे तो मुझे इसके लिए इनाम देंगे। 2019 में अजमेर में रघुनंदन सिंह से मेरी मुलाकात हुई। वह बैंक में नौकरी करते हैं। उन्होंने खेल दिवस पर 2019 में झांसी में 45 बरस बाद मुझे एक लाख रूपये की यह राशि मेरे 1975 के विश्व कप में गोल करने पर दी। मैं इससे अभिभूत हो गया। शायद मेरे लिए इससे बढ़कर और इनाम क्या हो सकता है।‘