
बृज खंडेलवाल
डॉक्टर्स डे पर हम उन चिकित्सकों को सलाम करते हैं जो हिप्पोक्रेटिक शपथ का पालन करते हुए मरीज़ों की भलाई को सर्वोपरि रखते हैं और “नुकसान न पहुँचाने” का वादा निभाते हैं। भारत के डॉक्टर्स का विश्व में मान है, प्रतिष्ठा है। ज्यादातर प्रोफेशनल डॉक्टर्स सेवा भावना से एथिकल और ह्यूमन मूल्यों और परंपराओं का निर्वहन कर रहे हैं, लेकिन काली करतूतों को अंजाम देने वाले चिकित्सकों की बढ़ती संख्या चिंतनीय विषय है।
हॉस्पिटल्स में रेप, मर्डर, हिंसा, विवाद के केसों में लगातार इजाफा हो रहा है। संयम और मर्यादाओं का चीर हरण हो रहा है। एक पवित्र छवि के नीचे, अनैतिक प्रथाएँ, ज़बरदस्त लापरवाही और मुनाफ़े की दौड़ स्वास्थ्य सेवाओं में भरोसे को खोखला कर रही हैं।
घातक मेडिकल गलतियों से लेकर नर्सिंग होमों के धोखाधड़ी तक और कमीशन-भरे पर्चे लिखने तक—हाल के मामले दिखाते हैं कि कैसे कुछ डॉक्टर और अस्पताल अपने पवित्र कर्तव्य से गद्दारी कर रहे हैं।
मेडिकल नज़रअंदाज़ी और अयोग्यता ने कई दिल दहला देने वाली त्रासदियाँ पैदा की हैं। 2023 में, दिल्ली के एक अस्पताल में एक 32 साल की महिला की रूटीन सीज़ेरियन ऑपरेशन के दौरान मौत हो गई। जाँच में पता चला कि डॉक्टर ने उसके ऑक्सीजन लेवल पर नज़र ही नहीं रखी—एक ऐसी गलती जिससे एक परिवार तबाह हो गया।
इसी तरह, 2024 में मुंबई में एक 45 साल के आदमी का पैर गैंगरीन की ग़लत डायग्नोसिस के चलते काटना पड़ा। डॉक्टर ने टेस्ट कराने में देरी की, जिससे हालत बेकाबू हो गई। ये घटनाएँ अकेली नहीं हैं। राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) के मुताबिक, भारत में हर साल 1,500 से ज़्यादा मेडिकल लापरवाही के मामले दर्ज होते हैं, जिनमें से कई में मरीज़ जीवनभर के लिए अपंग हो जाते हैं या मौत हो जाती है। ये त्रासदियाँ ट्रेनिंग, निगरानी और जवाबदेही की सिस्टमैटिक विफलता को उजागर करती हैं।
नर्सिंग होम या लूट का अड्डा?
बुज़ुर्गों के लिए सुरक्षित पनाहगाह माने जाने वाले नर्सिंग होम कुछ मामलों में शोषण के अड्डे बन गए हैं। 2024 में, बेंगलुरु के एक नर्सिंग होम पर फ़र्ज़ी टेस्ट और ग़ैर-ज़रूरी इलाज के नाम पर परिवारों से लाखों ऐंठने का खुलासा हुआ। बुज़ुर्ग मरीज़, जो ख़ुद के लिए आवाज़ नहीं उठा सकते, खस्ताहाल हालात में महीनों रखे गए, जबकि उनके परिवारों को लूटा गया।
कोलकाता के एक और मामले में, एक नर्सिंग होम चेन पर इंश्योरेंस पैसे हड़पने के लिए रिकॉर्ड फ़र्ज़ करने के आरोप लगे—जबकि साफ़-सफाई और पोषण जैसी बुनियादी देखभाल भी नहीं दी गई। ऐसे धोखे कमज़ोर लोगों का शिकार करते हैं और देखभाल के स्थानों को मुनाफ़े की मशीन बना देते हैं।
दवा कारोबार: कमीशन की खेती
दवाओं का व्यावसायीकरण हिप्पोक्रेटिक शपथ को और कमज़ोर कर रहा है। भारत में, डॉक्टरों का टेस्ट कराने या ख़ास दवाएँ लिखने पर कमीशन लेना एक खुला राज़ है। 2023 में द इंडियन एक्सप्रेस ने खुलासा किया कि दिल्ली की कुछ डायग्नोस्टिक लैब्स डॉक्टरों को टेस्ट फीस का 30% तक कमीशन देती हैं, जिससे ग़ैर-ज़रूरी MRIs और ब्लड टेस्ट की बाढ़ आ गई है। मरीज़, जो अक्सर अनजान होते हैं, इन फ़ालतू प्रक्रियाओं का आर्थिक और स्वास्थ्य ख़ामियाज़ा भुगतते हैं।
इसी तरह, फार्मा कंपनियाँ डॉक्टरों को जेनेरिक दवाओं की बजाय ब्रांडेड दवाएँ लिखने के लिए प्रोत्साहित करती हैं, जिससे मरीज़ों का खर्चा बढ़ता है। इंडियन जर्नल ऑफ़ मेडिकल एथिक्स के एक अध्ययन में पाया गया कि 40% डॉक्टरों ने माना कि वे दवा कंपनियों से तोहफ़े या कमीशन लेते हैं—एक ऐसी प्रथा जो इलाज के तरीक़ों को प्रभावित करती है और मरीज़ों पर महंगे बिलों का बोझ डालती है। यह मुनाफ़ा-केंद्रित मॉडल इलाज की बजाय कमाई को प्राथमिकता देता है, जो चिकित्सा नैतिकता का सीधा उल्लंघन है।
ICU में अनावश्यक लंबे समय तक रखना एक और डरावना ट्रेंड है। 2024 में चेन्नई के एक मामले में, 70 साल के एक टर्मिनल मरीज़ को ठीक न होने की कोई उम्मीद न होने के बावजूद हफ़्तों ICU में रखा गया। परिवार का आरोप था कि अस्पताल ने बिलिंग बढ़ाने के लिए पैलिएटिव केयर (दर्द निवारक देखभाल) पर चर्चा में देरी की, जिससे 20 लाख रुपये का बिल बन गया।
ऐसी प्रथाएँ परिवारों की भावनात्मक कमज़ोरी का फ़ायदा उठाती हैं, उन्हें मामूली या बेकार के इलाज के लिए कर्ज़ में धकेल देती हैं। इंडियन जर्नल ऑफ़ क्रिटिकल केयर मेडिसिन के मुताबिक, ICU का अत्यधिक इस्तेमाल अक्सर मेडिकल ज़रूरत की बजाय वित्तीय दबाव की वजह से होता है, जहाँ अस्पताल महंगे वार्डों को कमाई का ज़रिया बना लेते हैं। इससे न सिर्फ़ परिवारों पर आर्थिक बोझ पड़ता है, बल्कि असली ज़रूरतमंदों को ICU बेड भी नहीं मिल पाते।
नैतिकता का पतन: बाज़ार के आगे झुकता इलाज
ये सभी ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हरकतें हिप्पोक्रेटिक शपथ से दूर होते चिकित्सा तंत्र को दिखाती हैं। वर्ल्ड मेडिकल एसोसिएशन का कहना है कि नैतिक देखभाल में मरीज़ की भलाई सबसे ऊपर होनी चाहिए, लेकिन भारत का स्वास्थ्य तंत्र बाज़ार के दबाव के आगे झुक जाता है।