वाजपेयी जी ऐसे प्रधानमंत्री, जिन्होंने भारतीय राजनीति को सुदृढ़ मानवीय स्वरूप दिया

Vajpayee ji was a Prime Minister who gave a strong human form to Indian politics

प्रो. जसीम मोहम्मद

भारतीय राजनीति के सबसे सौम्य और शांत, पर निर्णय में दृढ़ निश्चयी अटल बिहारी वाजपेयी आज होते, अपनी 101 वाँ ( सौवीं वर्षगांठ) जन्मदिन मना रहे होते! वह कभी भी सत्ता के भूखे राजनेता जैसे नहीं दिखे। यहाँ तक कि जब वह राष्ट्रीय राजनीति की केंद्रीय सत्ता के केंद्र में थे, तब भी उनमें एक ऐसी शांति थी, जो उन्हें रुककर सुनने के लिए लोगों को मजबूर कर देती थी। 25 दिसंबर 1924 को जन्मे, वाजपेयी जी ऐसे समय में बड़े हुए, जब भारत अभी भी अपनी आवाज़ ढूँढ़ रहा था। जब देश 25 दिसंबर 2025 को उनकी एक सौ एक वीं जयंती ( सौवीं वर्षगाँठ) मनाने की तैयारी कर रहा है, तब यह साफ हो जाता है कि वाजपेयी ने भारत की कहानी पर हावी होने की कोशिश नहीं की – उन्होंने इसे समझने की कोशिश की। वह ऐसे घर से आए थे , जहाँ किताबें, अनुशासन और कविताएँ रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा थीं। उनके परिवेश का यह आरंभिक प्रभाव उनके व्यक्तित्व के साथ सदैव रहा। उनका मानना था कि शब्दों में मर्यादा और ज़िम्मेदारी होती है। इसीलिए वह सोच-समझकर विषय का चुनाव करते थे, शांत होकर धीरे बोलते थे और कभी चिल्लाते नहीं थे। एक ऐसे पेशे में, जहाँ अक्सर शोर, विचार की जगह ले लेता है, वाजपेयी का मानना था कि खामोशी भी बोलती है और कभी -कभी मौन की आवाज़ अधिक मुखर होती है। लोगों ने उन पर भरोसा किया, क्योंकि उन्होंने उन्हें प्रभावित करने की कोशिश नहीं की।

अटलविहारी वाजपेयी मज़बूत विश्वासों के साथ राजनीति में आए, लेकिन उन्होंने कभी भी विश्वास को हथियार के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया। उन्हें भारत पर गहरा विश्वास था, लेकिन उनका स्नेह धैर्यवान था, क्रोध के लिए उसमें कोई जगह नहीं थी! उन्होंने देश को दोहरानेवाले नारे के तौर पर नहीं, बल्कि बचानेवाले लोगों के तौर पर देखा। राष्ट्रवाद के बारे में उनका विचार चिंता से बना था – एकता, गरिमा और निष्पक्षता की चिंता। उनके विरोधियों ने भी उनमें कुछ अलग क़िस्म की चिनगारी देखी। संसद में, उन्होंने सरकारों की तीखी आलोचना की, फिर भी बिना किसी कड़वाहट के। वह किसी नीति का ज़ोरदार विरोध कर सकते थे और फिर भी शांत भाव से बात करने के लिए दूसरी तरफ जा सकते थे। यह असल में उनका आत्मविश्वास था। वाजपेयी जानते थे कि लोकतंत्र तभी ज़िंदा रहता है, जब लोग एक-दूसरे के प्रति इंसान बने रहते हैं। जब वह पहली बार सन् 1996 में प्रधानमंत्री बने, तब उनकी सरकार सिर्फ तेरह दिन चली। कई लोगों को इस स्थिति में अपमान महसूस होता, पर वाजपेयी को नहीं हुआ। उन्होंने उस पल का इस्तेमाल संसद में ईमानदारी से बोलने के लिए किया, अपना विज़न शांति से समझाया, यह जानते हुए भी कि वह जल्द ही पद छोड़नेवाले हैं। उस भाषण से उनका पारदर्शी चरित्र सबके सामने आया – उन्होंने पद से ज़्यादा सच्चाई को अहमियत दी। सत्ता में उनके बाद के साल कठोर निर्णयों और मुश्किल फैसलों से भरे थे। सन् 1998 के परमाणु परीक्षण ऐसा ही एक पल था। वाजपेयी ने इस फैसले का जश्न नहीं मनाया। उन्होंने इसका बोझ उठाया। वह जानते थे कि इसके नतीजे गंभीर होंगे, लेकिन उन्हें विश्वास था कि भारत हमेशा कमज़ोर नहीं रह सकता। जब दुनिया ने कड़ी प्रतिक्रिया दी, तो उन्होंने शांतिपूर्ण स्पष्टीकरण दिए, न कि उनका प्रतिरोध किया। उनके शक्ति और क्षमता का मतलब ज़ोर-ज़ोर से बोलना नहीं था। इसके तुरंत बाद, उन्होंने शांति के लिए हाथ बढ़ाया। वाजपेयी का मानना था कि दुश्मन से बात करने से कोई देश कमज़ोर नहीं होता; बात करने से मना करने पर भविष्य कमज़ोर होता है। उन्होंने इस विश्वास को चुपचाप बनाए रखा, तब भी जब बाद में घटनाओं ने इस भरोसे की परीक्षा ली। कारगिल युद्ध ने हर भारतीय के घर में दुख और गुस्सा भर दिया। वाजपेयी ने उस दर्द को गहराई से महसूस किया। फिर भी, उन्होंने भावनाओं को अपने फैसले पर हावी नहीं होने दिया। उन्होंने सशस्त्र बलों पर भरोसा किया और उनके साथ मज़बूती से खड़े रहे, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया कि दुनिया की नज़र में भारत नैतिक रूप से स्थिर रहे। उस समय उनका नेतृत्व भरोसेमंद, लगभग माता-पिता जैसा लगा। लोग अक्सर यह भूल जाते हैं कि वाजपेयी आम लोगों की ज़िंदगी की कितनी परवाह करते थे। सड़कें, फ़ोन और कनेक्टिविटी उनके लिए मायने रखती थीं, क्योंकि वह उनका महत्व और मानवीय मूल्य समझते थे। जब उनके नेतृत्व में हाईवे बने, तो उन्होंने परिवारों और आजीविका के बीच की दूरियाँ कम कर दीं। उनका मानना था कि टेक्नोलॉजी के माध्यम से आम आदमी की सेवा करनी चाहिए। टेलीकॉम सेवाओं के विस्तार का मतलब था कि गाँववाले अपने दूर के रिश्तेदारों से बात कर सकते थे और छात्र बड़े भविष्य की कल्पना कर सकते थे। ये बदलाव शांत, धीरे-धीरे होनेवाले, लेकिन स्थायी थे। वाजपेयी सुर्खियों के पीछे नहीं भागे; उन्होंने अपने काम का मूल्यांकन करने के लिए आनेवाले समय पर भरोसा किया।

भारतीय राजनीति की नियति बन चुकी गठबंधन की राजनीति ने रोज़ाना उनके धैर्य की परीक्षा ली। अलग-अलग राय, लगातार बातचीत और कमज़ोर गठबंधन किसी भी नेता को थका सकते हैं। वाजपेयी ने इसे धैर्य और गरिमा के साथ सँभाला। उन्होंने सबको ध्यान से सुना, जगह दी और अपमान से बचने का भरपूर प्रयास किया। लोग उनके साथ इसलिए रहे, क्योंकि उन्हें सम्मान महसूस हुआ। उन्होंने संसद का गहरे सम्मान के साथ व्यवहार किया। प्रधानमंत्री होने के बावजूद, उन्होंने आलोचना का स्वागत किया। उनका मानना था कि असहमति अनादर नहीं है। इस विश्वास ने उनके समय में लोकतांत्रिक संस्थाओं को मज़बूत बनाया। उन्होंने सत्ता को कभी भी अपनी निजी संपत्ति नहीं माना। उनकी अपनी भाषा हिंदी उनके दिल के करीब थी। उन्हें हिंदी से गहरा प्यार था, फिर भी उन्होंने इसे कभी थोपा नहीं। उनका मानना था कि संस्कृति प्यार से बढ़ती है, ज़ोर- ज़बरदस्ती से नहीं। उनके भाषण सच्चे, काव्यात्मक, सुनने के लायक़ और ईमानदार लगते थे, क्योंकि वे अनुभव की सचाई और गहरी भावनाओं से आते थे, न कि तैयार किए गए आक्रामकता से। कविता वाजपेयी का सहारा थी। कविताओं के ज़रिए उन्होंने शक, अकेलापन और थकान को ज़ाहिर किया। ये कविताएँ एक ऐसे नेता को दिखाती हैं, जो अपनी कमज़ोरी दिखाने से नहीं डरता था। इनसे लोगों को लगा कि जो लोग टॉप पर होते हैं, वे भी सवालों और अनिश्चितताओं से जूझते हैं।

वाजपेयी सार्वजनिक जीवन में अक्सर नैतिक कर्तव्य के बारे में बात करते थे। उनका मानना था कि नेताओं को न सिर्फ़ वोटर्स, बल्कि अपनी अंतरात्मा के प्रति भी जवाबदेह रहना चाहिए। इस विश्वास ने मुश्किल समय में उनके व्यवहार को निर्देशित किया। वह जानते थे कि नैतिकता के बिना सत्ता शासक और देश दोनों को नुकसान पहुँचाती है। जैसे-जैसे बीमारी ने उन्हें धीरे-धीरे सीमित किया, वाजपेयी बिना किसी ड्रामे के पीछे हट गए। उन्होंने ध्यान या सहानुभूति पाने की कभी कोशिश नहीं की। उन्होंने खामोशी को गरिमा के साथ स्वीकार किया। यह शांत विदाई उनके जीवन भर के इस विश्वास को दिखाती है कि लीडरशिप सेवा है, मालिकाना हक नहीं। जब अगस्त 2018 में उनका निधन हुआ, तो दुख राजनीतिक सीमाओं को पार कर गया। लोगों को लगा कि उन्होंने किसी ऐसे व्यक्ति को खो दिया है, जिस पर वे भरोसा करते थे, भले ही वे उनसे कभी मिले न हों। इस तरह का नुकसान तभी होता है, जब कोई नेता लोगों की ज़िंदगी को धीरे से भीतर तक छूता है।

जैसे ही भारत उनकी एक सौ एकवीं ( सौवीं वर्षगाँठ) जयंती मना रहा है, वाजपेयी की मौजूदगी फिर से ज़रूरी महसूस होती है। गुस्से और तेज़ी के इस दौर में, उनका शांत स्वभाव दुर्लभ और अनुकरणीय लगता है। गहरे बँटवारे के इस समय में, बिना नफ़रत के असहमत होने की उनकी क्षमता बहुत ज़रूरी लगती है। अटल बिहारी वाजपेयी की असली विरासत इसमें है कि उन्होंने राजनीति को कम कठोर और देश को ज़्यादा सुरक्षित महसूस कराया। उन्होंने दिखाया कि बिना दयाभाव और सहानुभूति को खोए अपने देश से गहरा प्यार करना, बिना दिल बंद किए मज़बूत विश्वास रखना संभव है। सौ साल बाद उन्हें याद करना एक तरह से एक दूरदर्शी नेतृत्वकर्ता के भरोसे और जीने के तरीके को याद करना है – विचारशील, संयमित और मानवीय – जिसकी भारत को आज भी पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरत हो सकती है। वाजपेयी जी के व्यक्तित्व एवं दूरदर्शी विचारों से हम कुछ ग्रहण कर भारत के विकास में कुछ नया और अतिरिक्त जोड़ सकें, तो यह उस महान् नेता के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी!