सर्वेश कुमार सिंह
हम पिछले 53 साल से विजय दिवस मना रहे हैं। हर साल जब 16 दिसम्बर आता है तो पाकिस्तान पर निर्णायक विजय और बांग्लादेश के उदय का पर्व मनाया जाता है। वर्ष 2022 में जब इस विजय के पचास वर्ष हुए तो भारत और बंगलादेश में बडा जश्न मनाया गया। लेकिन इस बार का विजय दिवस कछ अलग संदेश और मायने रखता है। यह दिन अब इस बात की समीक्षा और सिंहावलोकन को आमंत्रण देता है कि क्या भारत द्वारा 1971 में लिया गया फैसला और करीब 3843 भारतीय सैनिकों का बलिदान व्यर्थ चला गया है? क्या हम सिर्फ इस खुशफहमी में हैं कि हमने पाकिस्तान के दो टुकडे करके पूर्वी सीमा को सदैव के लिए सुरक्षित कर लिया है?
पांच अगस्त के बाद जो कुछ बंगलादेश में घट रहा है और वहां की काम चलाऊ सरकार यानि कि सलाहकार समूह जैसे फैसले ले रही है। उससे तो यही लगता है कि हम ठगे गए हैं। एक पडोसी पर उनकी ही इस्लामी सेना के अत्याचारों, हत्याओं, बलात्कारों की घटनाओं से तत्कालीन भारत सरकार का मन आहत हुआ था। एक अनुमान के अनुसार पाकिस्तान की सेना ने बंगलादेश में 30 लाख लोगों को बेमौत मार डाला था और 3 लाख महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाएं हुई थीं। इस अत्याचार और पापकर्मों की चीत्कार भारत के द्रवित मन ने सुनी थी। तत्कालीन भारतीय नेतृत्व ने पूर्वी पाकिस्तान को अपनी इच्छा शक्ति और प्रबल सैन्य शक्ति के बल पर बंगलादेश में बदल दिया था।
जब ढाका में भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोडा पाकिस्तानी सेना के कमांडर जनरल एएके नियाजी से आत्मसर्पण दस्तावेज पर 16 दिसम्बर को हस्ताक्षर करा रहे थे, तब किसी ने नहीं सोचा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा के इसी ढाका में एक बार फिर ऐसी सलाहकार सरकार नोबेल पुरस्कार विजेता मो यूनुस के नेतृत्व में आएगी जिसकी सरपरस्ती में भारतीय सेना की जीत के उपलक्ष्य और बंगलादेश की आजादी के प्रतीक उस प्रमिमा को जो इस समर्पण को दर्शाती थी, बंगलादेश के वही अतिवादी जेहादी तोड देंगे जिनके लिए भारतीय सेना ने बलिदान दिये। भारत की जनता ने एक करोड से अधिक बंगलादेशी शरणार्थियों को अपने यहां रखा और उनकी सभी तरह की मदद की। यह स्टेच्यु ढाका में स्थापित था। शेख हसीना की सरकार के पतन के बाद बंगलादेश में जो कुछ हुआ और अभी हो रहा है। इससे भारतीय जन मन अत्यधिक आहत है। वहां के अल्पसंख्यकों पर जिस तरह हमले हुए हैं और अभी जारी हैं। उन्हें प्रताणित किया जा रहा है। हिन्दू मन्दिरों को तोडा गया है। इस्कान और काली के मन्दिर तो ढाका और चटगांव में एकता और सेवा के प्रतीक बने थे। इन्हें जला दिया गया। इस्कान ढाका के पूर्व सचिव चिन्मयदास को सिर्फ इस लिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उन्होंने अत्याचारों के खिलाफ आवाज बुलंद की। जो बकील उनकी पैरवी के लिए गए उन्हें हमला करके गंभीर रूप से घायल कर दिया गया। उन्हें कोई वकील नहीं मिल रहा है, .यह भय की पराकाष्ठा है।
इन घटनाओं पर आज सम्पूर्ण भारत में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। भारत सरकार से मांग की जा रही है कि वह हस्तक्षेप करे। सरकार ने अपने स्तर से कई बार वार्ता की है चेतावनी भी दी है लेकिन बंगलादेश जो अब पूर्वी पाकिस्तान के पुराने अवतार में है, उस पर कोई असर नहीं हो रहा है। हाल में भारत के विदेश सचिव ने ढाका की यात्रा की। यह संदेश गया कि उनकी यात्रा और बंगलादेश की वर्तमान सलाहकार सरकार से वार्ता के बाद हालात सुधरेंगे। लेकिन हुआ इसका एकदम उल्टा। बंगलादेश में लोगों ने बीफ के प्रचार और होटलों में अनिवार्य करने के लिए आंदोलन शुरु कर दिये हैं। वे सडकों पर हैं और कह रहे हैं कि जो होटल गोमांस नहीं परोसेगा उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। ये सब भारत को न सिर्फ चिडाने क लिए किया जा रहा है बल्कि हिन्दुओं की भावनाओं पर कुठाराघात है।
आज समय है कि इस विषय पर विमर्श शुरु हो कि हम अपने पडोसी की पचास साल की तक हर तरह की मदद करते रहे और उसने हमारी भावनाओं की कतई भी कद्र नहीं की और न ही हमारे राष्ट्रीय हितों को कोई तवज्जो दी। इन्ही पचास सालों में बंगलादेश हूजी जैसे आतंकवादी संगठन का जन्मदाता बन गया। जिसने भारत में कई आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया है। भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों में आतंकवादी भेजने के लिए और उनके प्रशिक्षण के लिए लांचिंग पैड बन गया। अब हालत यह है कि पाकिस्तान के साथ बंगलादेश अपनी सीधी उडान सेवा बहाल करने जा रहा है। पाकिस्तान के लोगों के लिए वीजा सुविधा आसान की जा रही है। पाकिस्तान की सेना के साथ बंगलादेश सेना का समन्वय बढाया जा रहा है। अब इस स्थिति में भारत की नई भूमिका क्या हो। सबसे पहली प्राथमिकता है कि बंगलादेश के अल्पसंख्यक हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध और इसाई समुदायों की जान मान की रक्षा हो, वह कैसे होगी यह विचार भारत सरकार को करना है। अगर समय रहते सरकार ने ये कर लिया तो भारतीय जनता को संतोष होगा अन्यथा सरकार के खिलाफ बढते असंतोष को भी रोका नहीं जा सकेगा।
बगलादेश का उद्भव और भारत की भूमिका पर एक टिप्पणी जो करीब दो साल पहले बलोचिस्तान की निर्वासित सरकार की प्रधानमंत्री डा नायला कादरी ने की थी,उसका उल्लेख यहां समीचीन होगा। भारत भ्रमण पर आयी डा कादरी ने एक स्थानीय चैनल को साक्षात्कार देते समय कहा था कि भारत ने 1971 में बडी गलती की थी। उस समय बंगलादेश भारत के कब्जे में था, लाहौर तक भारतीय सेना पहुंच चुकी थी। ऐसे में अलग देश बनाने की बजाय बंगलादेश का भारत में विलय कर लिया जाना चाहिए था। उनकी इस प्रतिक्रिया को उस समय अतिरेक में कही गयी बात माना गया क्योंकि वे पाकिस्तान के खिलाफ बलूचों के संघर्ष को नेतृत्व प्रदान कर रही हैं। उनकी पाकिस्तान से नाराजगी जग जाहिर है। लेकिन, अब 5 अगस्त 2024 को जो हुआ और उसके बाद हो रहा है उसे देखते हुए लगता है कि डा नायला कादरी की बात सही थी। हालांकि भारत में यह विमर्श पहले से चल रहा है कि 71 में लाहौर और बंगलादेश को मिला लिया जाना चाहिए था। पाकिस्तान के 93 हजार सैनिकों को हमने शिमला समझौते में यूं ही क्यों छोड दिया। वे युद्ध बंदी थे उनपर अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में युद्ध अपराध का मुकदमा दर्ज होना चाहिए था। या फिर हम उनके बदले कुछ और हासिल करते।
अब भारतीय उपमहाद्वीप में नया खतरा जो सामने है वह यह है कि हमारी सीमाएँ एक बार फिर तनावग्रस्त हैं। हम अब यह भी नहीं कह सकते कि हम पूर्वी सीमा पर निश्चिन्त हैं। लेकिन एक अवसर अभी भी है वह यह कि बंगलादेश की निर्वाचित प्रधानमंत्री शेख हसीना भारत में हैं। वे आज भी तकनीकी रूप से बंगलादेश की प्रधानमंत्री हैं उन्होंने त्यागपत्र नही दिया है। बंगलादेश के राष्ट्रपति कह भी चुके हैं कि उनके पास हसीना कोई त्यागपत्र नहीं है। इसलिए हसीना ही बंगलादेश की संवैधानिक सरकार की प्रमुख हैं। उनसे वार्ता और समझौता करके 71 की चूक को सुधार लेना चाहिए। समझौते को मूर्त देने में भारतीय सेना सक्षम है।
(लेखक परिचयः स्वतंत्र पत्रकार, उत्तर प्रदेश राज्य मुख्यालय लखनऊ)