पुण्य श्लोक लोकमाता अहिल्याबाई होलकर

Virtuous Shloka Lokmata Ahilyabai Holkar

अरविन्द भाई ओझा

आज देश अहिल्याबाई होल्कर की 300 वीं जन्म शताब्दी वर्ष मना रहा है ऐसे में आज उनकी जयंती पर हम उनका स्मरण कर रहे हैं। व्यक्ति संसार में कितना समय जिया यह महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि उसने अपने जीवन काल में क्या-क्या कार्य किया यह अधिक महत्वपूर्ण होता है अहिल्याबाई होलकर के द्वारा जो कार्य समाज , राष्ट्र, धर्म व आध्यात्म के क्षेत्र में किए गए थे उन कार्यों के कारण ही उनको पुण्य श्लोक कहा जाता है ।

अहिल्याबाई प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होलकर के पुत्र खंडेराव की पत्नी थीं इनका जन्म 31 मई सन् 1725 में हुआ था। अहिल्याबाई किसी बड़े भारी राज्य की रानी नहीं थीं। उनका कार्यक्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित था। फिर भी उन्होंने जो कुछ किया, उससे आश्चर्य होता है।

महारानी अहिल्याबाई होलकर भारत के मालवा साम्राज्य की मराठा होलकर महारानी थी इनका जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर के छौंड़ी ग्राम में हुआ। उनके पिता मंकोजी राव शिंदे, अपने गाव के पाटिल थे। उस समय महिलाये स्कूल नहीं जाती थी, लेकिन अहिल्याबाई के पिता ने उन्हें लिखने-पढ़ने लायक पढ़ाया।

एक बार पेशवा महाराज ने मालवा से पुणे की ओर जाते हुए चंडी गांव में अपनी सेना का पड़ाव डाला। प्रातः काल पेशवा महाराज और मल्हार राव टहल रहे थे तभी मल्हार राव की दृष्टि एक बालिका पर पड़ी जो भगवान शिव की पूजा में लीन थी बाल्यावस्था में जब बच्चे का मन चंचल होता है ऐसे समय में जब उन्होंने देखा कि इतने बड़े सेना का पड़ाव घोड़े सैनिक इन सबको देखकर भी बच्ची का मन उनकी ओर आकर्षित नहीं हुआ और बालिका इन सब आकर्षणों से दूर केवल पूजा में तल्लीन थी उसके इस लक्षणों को देखकर मल्लाहर राव को लगा कि यह बालिका मेरे घर की पुत्रवधू बने तो अति उत्तम होग। मल्लाहर राव ने पेशवा महाराज को अपने मन की बात बताई तो पेशवा महाराज ने अहिल्याबाई के पिताजी को बुलाकर मल्लाहर राव के पुत्र खण्डेराव से अहिल्या के विवाह का प्रस्ताव रखा और उस प्रस्ताव को सुनकर मनकोजी मना न कर सके और इस प्रकार अहिल्याबाई इन्दौर राज्य के संस्थापक महाराज मल्हार राव होल्कर के परिवार की वधू बनाकर उनके घर में आई । उन्होंने बड़ी कुशलता से अपने पति खण्डेराव के गौरव को जगाया और कुछ ही दिनों में अपने पिता के मार्गदर्शन में खण्डेराव एक अच्छे योद्धा बन गए । मल्हारराव को ये सब देखकर संतोष होने लगा और वे आपनी पुत्र-वधू अहिल्याबाई को भी राजकाज की शिक्षा देते रहते थे। वहीं इनकी सास भी समय समय पर अहिल्याबाई को प्रोत्साहन देती रहती थी। मल्हार राव ने अपनी बहू के सद्गुणों को जानकर पुत्र की भांति उसका ध्यान रखा और जब कभी मल्हार राव लड़ाई पर जाते तो अहिल्याबाई पर राज्य की पूरी जिम्मेदारी सौंप कर जाते थे । इस प्रकार अहिल्याबाई राजकाज में भी निपुण होने लगी थी उनकी बुद्धि और चतुराई से मल्हार राव बहुत प्रसन्न थे। कुछ समय में अहिल्याबाई ने पुत्र मालेराव और कन्या मुक्ताबाई को जन्म दिया। सबकुछ ठीक चल रहा था पर नियति को कुछ और ही मंजूर था।

मल्हारराव के जीवन काल में ही उनके पुत्र खंडेराव होलकर 1754 के कुम्भेर युद्ध में शहीद हुए। अहिल्या बाई अपने पति के साथ सती होना चाहती थी पर उसके ससुर ने ऐसा करने से मना किया और कहा कि मेरा बेटा तो चला गया अब तू ही मेरा बेटा है अब मेरे बेटे के सारे काम तुझे ही करने हैं। राजा राममोहन राय से पहले सती प्रथा के विरुद्ध बोलने वाले मल्हार राव थे। इस प्रकार मल्हार राव ने अहिल्याबाई को सती होने से रोका।अहिल्याबाई सती प्रथा को तो नहीं रोक सकी पर विधवाओं के संरक्षण की जिम्मेदारी उन्होंने राज्य को सोंपी। कुछ वर्ष बाद उनके ससुर मल्हार राव का भी निधन हो गया उनके निधन के बाद अहिल्याबाई ने पुत्र मालेराव को मालवा की गद्दी पर बैठाया और सारा प्रशासन अहिल्याबाई स्वयं देखती थी। अहिल्याबाई की न्याय प्रियता प्रसिद्ध थी एकबार उन्होंने अपनें पुत्र को भी अपराध होने पर सजा दी थी क्योंकि उनके लिए अपने पुत्र की भांति ही प्रजा भी पुत्रवत थी यही कारण था कि लोग उनको राजमाता कहकर सम्बोधित करते थे।

दुर्भाग्य रानी अहिल्याबाई का पीछा नहीं छोड़ रहा था। उनके इकलौते पुत्र मालेराव का भी 1766 में स्वर्गवास हो गया तब महारानी पर दत्तक पुत्र लेने का भी दबाव बढ़ने लगा, लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे प्रजा को ही अपना सबकुछ मानती थीं। उनके इस फैसले के बाद राजपूतों ने उनके खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया, लेकिन रानी ने कुशलतापूर्वक उस विद्रोह का दमन कर दिया। अहिल्याबाई को मालवा साम्राज्य की महारानी बनाया गया। अपने राज्य का शासन-भार सम्भालते ही उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि से मालवा के खजाने को फिर भर दिया और अपने साम्राज्य को मुस्लिम आक्रमणकारियो से बचाने के लिए विश्वासपात्र तुकोजीराव होलकर को अपनी सेना के सेनापति के रूप में नियुक्त किया। रानी अपनी सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए युद्ध के दौरान वह खुद अपनी सेना में शामिल होकर युद्ध करती थी। उन्होंने स्त्रियों को भी शस्त्र चलाना सीखा कर महिलाओं की सेना बनाई।

मालवा के राज्य को एक महिला के हाथ में देखकर पुणे पेशवा के चाचा राधोबा दादा ने मालवा पर आक्रमण करने की ठानी और सेना लेकर मालवा पर आक्रमण करने चला आया ऐसे समय में अहिल्याबाई ने तीन मोर्चों पर एक साथ लड़ाई लड़कर अपनी राजनीतिक कूटनीति के कौशल का परिचय दिया । उन्होंने पुणे पेशवा को पत्र लिखकर पूछा कि क्या आपके चाचा राधोबा आपकी सहमति से इंदौर पर आक्रमण करने आए हैं जिसके जवाब में पूना पेशवा ने कहा कि मालवा को अपनी सुरक्षा करने का स्वतंत्र अधिकार है अर्थात पूना से सैन्य सहायता रुकवा दी। दूसरा पत्र अहिल्याबाई होलकर ने मालवा के मित्र राजाओं को भेजा और सहायता की मांग की उन्होंने लिखा कि मेरे ससुर मल्हार राव ने आपके राज्यों की सदा सहायता की है आज हमारे राज्य पर संकट है ऐसे समय में आपको हमारी सहायता करनी चाहिए जिस पर ग्वालियर और भरतपुर की ओर से तुरंत सहमति का पत्र भेजा गया । इसके बाद तीसरा पत्र पेशवा के चाचा राधोबा को भेज कर कहा की होलकर साम्राज्य को एक अबला के हाथों मानकर कब्जा करने की नीयत से आप आये होंगे पर मैं कौन हूँ इसका परिचय तो आपको युद्ध भूमि में ही होगा। महिला सेना से युद्ध में जीतकर आपकी कीर्ति और यश में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होगी और न ही प्रशंसा के पात्र बनोगे और अगर आप महिला सेना से युद्ध हार गए तो कितनी जग हंसाई होगी आप इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते। कहीं आप मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगे यह सोचकर ही आगे बढ़ें ।अहिल्या बाई की यह बुद्धिमानी और कूटनीति काम कर गई और राधोबा ने आक्रमण करने का विचार बदल दिया इस पत्र को पढ़कर राधोबा ने लिखा की मैं युद्ध करने नहीं आया आपके पुत्र की मृत्यु पर शोक व्यक्त करने आया हूँ । इसके बाद जब पेशवा ने मालवा में रहकर मालवा के प्रशासन, उद्योग और वैभव को देखा तो कहा “मालवा पूना के दुर्ग का अभेद द्वार है”।

रानी अहिल्याबाई ने इंदौर से अपने साम्राज्य की राजधानी महेश्वर को बनाया वहां उन्होंने 18वीं सदी का सुन्दर कलाकृति से अलंकृत अहिल्या महल बनवाया। पवित्र नर्मदा नदी के किनारे काफी मंदिरो का निर्माण करवाया। नई बनी राजधानी की पहचान कपड़ा उद्योग की बनी, जिसके कारण व्यापारी महेश्वर आने लगे लेकिन रास्ते में भील उन्हें लूट लेते थे। ऐसे लोगों से रक्षा करने के लिए रानी ने भीलों की एक सेना बनाई और उनके व जंगल के लोगों के जीवन यापन व गांव के विकास के लिए जंगल से निकलने वाले व्यापारियों पर एक नया टैक्स लगाया जिसको “भील कोड़ी” कहा गया और आदेश दिया कि अब कोई लूट अगर जंगल में होती है तो उसके लिए ग्राम सभा को दंड दिया जाएगा। उस दौरान महेश्वर साहित्य, मूर्तिकला, संगीत और कला के क्षेत्र में एक गढ़ बन चुका था। मराठी कवि मोरोपंत, शाहिर अनंतफंडी और संस्कृत विद्वान खुलासी राम उनके कालखंड के महान व्यक्तित्व थे।

एक बुद्धिमान, तीक्ष्ण बुद्धि और स्वस्फूर्त शासक के तौर पर अहिल्याबाई को याद किया जाता है। हर दिन वह अपनी प्रजा से बात करती थी उनकी समस्याएं सुनती थी। उनके कालखंड (1767- 1795) में रानी अहिल्याबाई ने ऐसे कई काम किए कि लोग आज भी उनका नाम लेते हैं। अपने साम्राज्य को उन्होंने समृद्ध बनाया। उन्होंने सरकारी धन को बुद्धिमत्ता से कई किले, विश्राम गृह, कुएं और सड़कें बनवाने पर खर्च किया। वह लोगों के साथ त्योहार मनाती और दान देती थी। उन्होंने अनंत फन्दी जैसे विद्वान, श्रेष्ठ श्रृंगारिककवि, नृत्यकार व संगीतकार को एक ईश्वरीय उपदेश से आध्यायात्मिक्ता की ओर मोड़ दिया।

अहिल्याबाई के राज्य में प्रजा पूरी तरह सुखी व संतुष्ट थी क्योंकि उनका मानना था कि धन, प्रजा व ईश्वर की दी हुई वह धरोहर स्वरूप निधि है, जिसकी मैं मालिक नहीं बल्कि उसके प्रजाहित में उपयोग की जिम्मेदार संरक्षक हूँ। प्रजा का संरक्षण राज्य का मुख्य कार्य होता है। उनका मानना था प्रजा का पालन संतान की तरह करना ही राजधर्म है। प्रजा के सुख दुख की जानकारी वे स्वयं प्रत्यक्ष रूप से प्रजा से मिलकर लेतीं तथा न्याय-पूर्वक निर्णय देती थीं। उनके राज्य में जाति भेद को कोई मान्यता नहीं थी व सारी प्रजा समान रूप से आदर की हकदार थी। उन्होंने किसी के उत्तराधिकारी न होने की स्थिति में प्रजा को दत्तक लेने का व स्वाभिमान पूर्वक जीने का अधिकार दिया।

अहिल्याबाई किसी बड़े राज्य की रानी नहीं थीं, बल्कि एक छोटे भू-भाग पर उनका साम्राज्य था और सीमित कार्यक्षेत्र था, इसके बावजूद जनकल्याण के लिए उन्होंने जो कुछ किया, वह आश्चर्यचकित करने वाला है, वह चिरस्मरणीय है। राज्य की सत्ता पर बैठने के पूर्व ही उन्होंने अपने पति-पुत्र सहित अपने सभी परिजनों को खो दिया था इसके बाद भी प्रजा हितार्थ किये गए उनके जनकल्याण के कार्य प्रशंसनीय हैं। उन्होंने दिखाया कि राजसत्ता को लोकसत्ता की तरह कैसे चलाया जाता है। जो लोग कहते हैं लोकतंत्र भरत में अंग्रेज लाये उन्हें अहिल्याबाई के शासन को देखना चाहिए।

मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा तोड़े हुए मंदिरों को देखकर ही उन्होंने विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर व सोमनाथ में शिव मंदिर का निर्माण कराया जहां शिवभक्तों के द्वारा आज भी पूजा की जाती है। बनारस में अन्नपूर्णा का मन्दिर, गया में विष्णु मन्दिर कलकत्ता से बनारस तक की सड़क,उनके द्वारा बनवाये हुए हैं। शिव भक्त अहिल्याबाई शिवपूजन के बिना मुंह में पानी की एक बूंद नहीं लेती थी। सारा राज्य उन्होंने शंकर को अर्पित कर रखा था । वे शिव की सेविका बनकर शासन चलाती थी। उनका सारा जीवन वैराग्य, कर्त्तव्य- पालन और परमार्थ की साधना का बन गया। शिव के प्रति उनके समर्पण भाव का पता इस बात से चलता है कि अहिल्याबाई राजाज्ञाओं पर हस्ताक्षर करते समय अपना नाम नहीं लिखती थी, बल्कि पत्र के नीचे केवल श्री शंकर लिख देती थी। उनके रुपयों पर शिवलिंग और बिल्व पत्र का चित्र ओर पैसों पर नंदी का चित्र अंकित है। कहा जाता है कि तब से लेकर भारतीय स्वराज्य की प्राप्ति तक अहिल्याबाई बाद में जितने नरेश इंदौर के सिंहासन पर आये सबकी राजाज्ञाऐं जब तक श्रीशंकर की नाम से जारी नहीं होती, तब तक वह राजाज्ञा नहीं मानी जाती थी और उस पर अमल भी नहीं होता था।

रानी अहिल्याबाई ने अपनी मृत्यु पर्यन्त बड़ी कुशलता से राज्य का शासन चलाया और अपनी मृत्यु से पूर्व अहिल्याबाई ने पूना पेशवा को पत्र लिखकर अपने सेनापति तुकोजीराव होलकर को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर मालवा का राज सौंप दिया वास्तव में यही सच्चा लोकतंत्र है। उनकी उदारता, प्रजावत्सलता और व्यवहार कुशलता ही थी कि अहिल्याबाई ने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर राजाओं को एक सांस्कृतिक राष्ट्र भाव जाग्रत कर राष्ट्रीय और धार्मिक कार्यों के लिए भारत-भर के प्रसिद्ध तीर्थों, मंदिरों व राष्ट्रीय धरोहरों में अपने धन का दूसरे राजाओं के क्षेत्र में प्रयोग करने के लिए सहमत किया अपने इसी गुण के कारण अहिल्याबाई न केवल मालवा में बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र में वे वंदनीय हो गई और आज भी उनकी गणना आदर्श शासकों में की जाती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उनके सम्मान में सरकार ने डाक टिकट जारी किया परन्तु उनको वो सम्मान नहीं मिल सका जिसकी वो अधिकारी थीं। अहिल्याबाई के जीवन के गुण व पुण्य कर्म उन्हें पुण्य श्लोक बनाते हैं।