ललित गर्ग
पांच राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। उनकी तारीखों का भी ऐलान हो गया है, अब चुनावी बिगुल बज चुका है, राजनीतिक दल एवं उम्मीदावार मतदाताओं को रिझाने, लुभाने एवं अपने पक्ष में मतदान कराने के लिये तरह-तरह के दांवपेंच चलायेंगे, इन लुभावनी छटाओं के बीच एक दिन के राजा यानी मतदाता को सतर्क एवं सावधान होकर अपने मत का उपयोग करना होगा। चुनाव मतदाताओं के हाथ में एकमात्र लेकिन बहुत ही कारगर संवैधानिक अधिकार होता है, जिसके सहारे वे जनप्रतिनिधियों का ही नहीं राष्ट्र का भविष्य निर्धारित-निर्मित करते हैं। इसलिये वक्त की नजाकत को देखते हुए मतदाता किसी प्रलोभन में न आये और देश-हित में सृजन करें। गरीब देश की टूटती सांसों को जीने की उम्मीद दें। भ्रष्टाचार में आकंठ लिप्त धमनियों में ईमानदारी एवं पारदर्शिता का संचार करें। इस वक्त सब-कुछ बाद में, पहले देश-हित की रक्षा और उसकी अस्मिता है, राष्ट्रीय एकता का लक्ष्य है। मतदाता इसी लक्ष्य से पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को निर्णायक मोड़ दे सकेगा।
मतदाता को जागरूक होकर चुनाव प्रक्रिया को निष्पक्ष एवं पारदर्शी बनाने में सहयोग करना होगा। भारतीय लोकतंत्र दुनिया का विशालतम लोकतंत्र है और समय के साथ परिपक्व भी हुआ है। बावजूद इसके लोकतंत्र अनेक विसंगतियों एवं विषमताओं का भी शिकार है। मुख्यतः चुनाव प्रक्रिया में अनेक छिद्र हैं, सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा छिद्र चुनावों की निष्पक्षता एवं पारदर्शिता को लेकर है। खरीद-फरोख्त, नशा एवं मतदाताओं को लुभाने एवं आकर्षित करने का आरोप भी लोकतंत्र पर बड़े दाग हैं। चुनाव सुधारों की तरफ हम चाह कर भी बहुत तेजी से नहीं चल पा रहे हैं। चुनाव आयोग जैसी बड़ी और मजबूत संस्था की उपस्थिति के बाद भी चुनाव में धनबल, बाहूबल एवं सत्ताबल का प्रभाव कम होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है। ये तीनों ही हमारे प्रजातंत्र के सामने सबसे बड़ा संकट है। इसलिये पांच राज्यों में राजनीतिक दलों और मतदाताओं की ही नही, चुनाव आयोग की भी परीक्षा होगी।
मतदाता की बड़ी जिम्मेदारी का यह एक दिन नये भारत-सशक्त भारत को निर्मित करने का आधार है। लेकिन विडम्बना ही है कि मतदाता अपने अमूल्य वोट को चंद चांदी के टुकडों में बेच देता हो, सम्प्रदाय-जाति के उन्माद में योग्य-अयोग्य की पहचान हो खो देता हो, वह मतदाता भला योग्य उम्मीदवार को कैसे विधायी सदनों में भेज पाएंगा? नये-नये नेतृत्व उभर रहे हैं लेकिन सभी ने देश-सेवा के स्थान पर स्व-सेवा में ही एक सुख मान रखा है। आधुनिक युग में नैतिकता जितनी जरूरी मूल्य हो गई है उसके चरितार्थ होने की सम्भावनाओं को उतना ही कठिन कर दिया गया है। ऐसा लगता है मानो ऐसे तत्व पूरी तरह छा गए हैं। खाओ, पीओ, मौज करो। सब कुछ हमारा है। हम ही सभी चीजों के मापदण्ड हैं एवं निर्णायक हैं। हमें लूटपाट करने का पूरा अधिकार है। हम समाज में, राष्ट्र में, संतुलन व संयम नहीं रहने देंगे। यही आधुनिक सभ्यता का घोषणा पत्र है, जिस पर लगता है कि हम सभी ने हस्ताक्षर किये हैं। भला इन स्थितियों के बीच पांच राज्यों के चुनावों में हमें वास्तविक जीत कैसे हासिल हो सकेगी?
आखिर जीत तो हमेशा सत्य की ही होती है और सत्य इन तथाकथित राजनीतिक दलों एवं उनके दागी उम्मीदवारों के पास नहीं है। किसी लोकतंत्र और उनके नुमाइंदों को देखकर इसका भान किया जा सकता है कि वहां के नागरिक, मौजूदा स्थिति में मतदाता, कितने समझदार और जिम्मेदार हैं। इसी समझदारी का परिचय मतदाताओं को देना है। आधार उनके पास है ही। उन्होंने शासन देखा है, माहौल भोगा है, नीति एवं नियमों की अनदेखी देखी है, अपने जनप्रतिनिधियों को परखा भी है और विपक्षियों को करीब से जाना भी है। वे भलीभांति महसूस कर सकते हैं कि संवेदनशीलता एवं राष्ट्रहित की उम्मीद वे किन से कर सकते हैं, कौन उनका खुद का, उनके परिवार, समाज और राज्य का भला करने वाला है, किसके हाथ में शासन की बागडोर सौंपकर वे निश्चिंत हो सकते हैं। जैसाकि हम जानते हैं कि लोग शीघ्र ही अच्छा देखने के लिए बेताब हैं, उनके सब्र का प्याला भर चुका है। लोकतंत्र को दागदार बनानेवाले अपराध और अपराधियों की संख्या बढ़ रही है। जो कोई सुधार की चुनौती स्वीकार कर सामने आता है, उसे रास्ते से हटा दिया जाता है। लेकिन इस बार प्रधानमंत्री स्वयं एक नया रास्ता बनाने, लोकतंत्र को सुदृढ़ बनाने एवं चुनाव की खामियों को दूर करने की ठानी है, इसलिये एक नया सूरज तो उदित होगा। लेकिन यह नया सूरज उगाने में मतदाता ही योगभूत है।
मतदाता को दूरगामी एवं परिपक्व होना होगा, प्रशिक्षित होना होगा, तभी लोकतंत्र सुदृढ़ हो पायेगा एवं चुनाव के महासंग्राम के नीर-क्षीर से सक्षम एवं ईमानदार जनप्रतिनिधि चुने जा सकेंगे। जबकि अनेक मतदाताओं को अपने हिताहित का ज्ञान नहीं है, इसलिये हित-साधक एवं जिम्मेदार जनप्रतिनिधि एवं दल का चुनाव नहीं कर पाते। मतदाता की यह गलती एवं गैर-जिम्मेदारी आजादी के अमृतकाल में विश्राम पाये, इसके लिये इन पांच राज्यों के चुनाव कसौटी के हैं। ये चुनाव इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि इनको अगले लोकसभा चुनाव की पूर्वपीठिका के तौर पर देखा जा रहा है। इन पांच प्रदेशों से लोकसभा में 83 एवं राज्यसभा में 34 सांसद चुनकर आते हैं, ऐसे में कोई भी राजनीतिक दल इन चुनावों को हल्के में नहीं ले सकता। इन चुनावों के नतीजे आम-चुनाव के लिये हवा बनाने-बिगाड़ने का आधार होंगे, इसलिये राष्ट्रीय पार्टियां अपने तरकश सजाने लगी है। लेकिन मतदाता इस सजावटी माहौल में अपने विवेक एवं समझ को नये पंख एवं परिवेश दे, स्वयं की जिम्मेदारी को महसूस करें। खुद के होने का भान कराये।
जान-बूझकर से तो कोई भी मतदाता गलती नहीं करता, पर बहकावे, प्रलोभन, जात-पात, मोहमुग्धता एवं अभाव में तो कभी-कभी अज्ञानतावश जनप्रतिनिधि चयन में उनसे गलती हो जाती है और गलत, अपराधी एवं अपरिपक्व जनप्रतिनिधि चुन लिये जाते हैं। यह गलती न हो, इसके लिए उन्हें अच्छी तरह सोच-विचार कर फैसला करना चाहिए। ऐसा करते समय यह जरूर ध्यान रखना चाहिए कि फिर पांच साल उन्हें यह कहने का नैतिक हक नहीं रहेगा कि उनका जनप्रतिनिधि या सरकार अच्छा नहीं कर रहे हैं। जनप्रतिनिधि और सरकार को कोसने वाले 35-40 प्रतिशत मतदाता हमारे बीच ऐसे भी हैं, जो मतदान ही नहीं करते। मतदान न करने की उनकी यह प्रवृत्ति भी लोकतंत्र की एक बड़ी विसंगति एवं कमजोरी का कारण है। पांच राज्यों की सरकारें चुनावों के चलते तमाम जनहित के फैसलों को टालती हैं या लोक-लुभावन फैसले लेती हैं। इससे सुशासन का स्वप्न धरा रह जाता है। भारतीय राजनीति के लिए यह एक गहरा संकट और चुनौती दोनों है। राष्ट्र में आज ईमानदारी एवं निष्पक्षता हर क्षेत्र में चाहिए, पर चूँकि अनेक गलत बातों की जड़ चुनाव है इसलिए पांच राज्यां के चुनावी कुंभ में व्याप्त विरोधाभासों एवं विसंगतियों को दूर किया जाना और इसके लिये मतदाता का जागरूक होना, नितांत अपेक्षित है।
चुनाव लोकतंत्र प्रणाली का सबसे मजबूत पैर होता है, यह एक यज्ञ होता है। राष्ट्र के प्रत्येक वयस्क के संविधान प्रदत्त पवित्र मताधिकार प्रयोग का दुर्लभ अवसर है। सत्ता के सिंहासन पर अब कोई राजपुरोहित या राजगुरु नहीं बैठता अपितु जनता अपने हाथों से तिलक लगाकर नायक चुनती है। लेकिन पांच राज्यों में जनता तिलक किसको लगाये, इसके लिये सब तरह के साम-दाम-दंड अपनाये जायेंगे। हर राजनीतिक दल अपने लोकलुभावन वायदों एवं घोषणाओं को ही गीता का सार व नीम की पत्ती बतायेगा, जो सब समस्याएं मिटा देगी तथा सब रोगों की दवा है। लेकिन ऐसा होता तो आजादी के अमृतकाल तक पहुंच जाने के बाद भी देश एवं प्रदेश एवं उसके नागरिक गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार, अफसरशाही, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य समस्याओं से नहीं जुझते दिखाई देते। ऐसी स्थिति में मतदाता अगर बिना विवेक के आंख मूंदकर मत देगा तो परिणाम उस उक्ति को चरितार्थ करेगा कि ”अगर अंधा अंधे को नेतृत्व देगा तो दोनों खाई में गिरेंगे।“ इन पांच राज्यों के चुनावों में मतदाता चाहे तो खुद को और अपने जनप्रतिनिधि को खाई में गिरने से बचाकर राष्ट्र को स्वस्थ एवं आदर्श लोकतंत्र दे सकता है।