वाह से आह तक – प्रमोद ताम्‍बट के व्‍यंग्‍य

सुनील सक्‍सेना

किताबें पढ़ने का भी चस्‍का होता है । वे जो अपनी फिजिक के अलावा दिमागी कसरत पर भी विशेष ध्‍यान देते हैं उनके लिए तो किताबें “डम्‍बल” का काम करती हैं । मस्तिष्‍क तंदरूस्‍त रहता है । किताबों से मोहब्‍बत करनेवालों के सिरहाने अक्‍सर कोई न कोई किताब रखी होती है । ऐसे प्रेमी पाठकों के लिए न्‍यू वर्ल्‍ड पब्लिकेशन, दिल्‍ली वतर्मान समय में देश के लोकप्रिय और चर्चित एक नहीं दो नहीं बत्‍तीस व्‍यंग्‍यकारों के चयनित व्‍यंग्‍य रचनाओं के संकलन लेकर आया है । इन्‍हीं मक़बूल, नामचीन व्‍यंग्‍यकारों में से एक हैं प्रमोद ताम्‍बट, जिनका ये पहला व्‍यंग्‍य संग्रह है ।

प्रमोद पिछले चालीस वर्षों से व्‍यंग्‍य लिख रहे हैं । छपने का मोह कम ही रहा है उनका । बावजूद इसके पत्र पत्रिकाओं में उनके व्‍यंग्‍य छपते रहते हैं । साझा व्‍यंग्‍य संकलनों में उनकी रचनाएं शामिल होती रही हैं । लेकिन ये उनकी पहली किताब है । पुस्‍तक में उनके आत्‍मकथ्‍य के अनुसार “जब भी उन्‍होंने व्‍यंग्‍य संकलन तैयार कर छपवाने के बारे में सोचा एक भारी गलती वे कर बैठे । उन्‍होंने अपनी रचनाएं उनके अंदर बैठे आलोचक को थमा दीं ।” परिणाम ये हुआ कि खुद ही लेखक और खुद ही आलोचक के इस “डेडली कॉम्‍बीनेशन” के कारण उनकी चार किताबें जो अब तक छप सकती थीं, उनके ही घर की धूल फांक रही है । प्रमोद की इस बेबाक स्‍वीकार्यता पर कौन निसार न हो जाए ?

सोशल मीडिया पर इन दिनों प्रकाशकों के किताबें छापने के लुभावने ऑफर वाले इश्‍तहार थोक में पोस्‍ट हो रहे हैं । अगर प्रमोद चाहते तो उनकी गोद तो अब तक तो न जाने कितनी बार हरी हो चुकी होती । लेकिन वे किताब छपवाने की लालसा को दर किनार कर, सृजनरत रहे, धैर्य से इंतजार किया । सब्र का फल मीठा होता है । न्‍यू वर्ल्‍ड पबिल्‍केशन दिल्‍ली ने पुस्‍तक योजना के अंतर्गत उनकी तीस व्‍यंग्‍य रचनाओं को प्रकाशित किया, वो भी नि:शुल्‍क ।

कहानी, कविता, उपन्‍यास, मोटीवेशनल बुक्‍स, बायोग्राफी पढ़नेवाला पाठक जब व्‍यंग्‍य के रास्‍ते पर चलता है तो शरद जोशी और हरिशंकर परसाई के दो राहे पर आकर ठिठक जाता है । प्रमोद का ये व्‍यंग्‍य संग्रह व्‍यंग्‍य की परम्‍परा को बड़ी जिम्‍मेदारी के साथ आगे बढ़ाता है । उनके व्‍यंग्‍य आश्‍वस्‍त करते हैं कि व्‍यंग्‍य की वंशबेल न सिर्फ और ऊंचाइयों पर चढ़ेगी बल्कि फलती फूलती भी रहेगी ।

अब एक नजर उन व्‍यंग्‍यों पर जो इस संग्रह की जान हैं । संग्रह की पहली रचना है “व्‍यंग्‍य आखिर है क्‍या” । आम पाठक को चुटीले अंदाज में व्‍यंग्‍य क्‍या है वे बताते हैं । व्‍यंग्‍य सर्वत्र व्‍याप्‍त है । कविता में, कहानी में, निबंध में । व्‍यंग्‍य एक चटपटी भेल है जिसमें विट है, आयरनी, सटायर, सरकास्‍म, ह्यूमर फार्स के मसाले मौजूद हैं । ये रचना पाठक को व्‍यंग्‍य समझने, जानने के लिए अनूठे अंदाज में मानसिक रूप से तैयार करती है, ताकि आनेवाली रचनाओं का रस वो मजे से ले सके ।

राजनीति और राजनेता व्‍यंग्‍यकारों के हमेशा से चहेते विषय रहे हैं । जनता जनार्दन के व्‍यवस्‍था से मोहभंग को प्रमोद ने बखूबी उकेरा है । प्रमोद के इन व्‍यंग्‍यों में तीखी मिर्ची का जोरदार झन्‍नाटा है, जो रचना को पढ़ते-पढ़ते वाह…वाह से आह…आह में कब तब्‍दील हो जाता है पता नहीं चलता । “प्रजातंत्र और लठबाजी” रचना में वे कहते हैं कि “जिस देश की प्रजा लठ्ठ खाने में जितनी अभ्‍यस्‍त होती है उस देश का प्रजातंत्र उतना ही मजबूत माना जाता है ।” बिना किसी लफ्फाज़ी जुमलेबाजी के निडर होकर सटीक मारक प्रहार करते हैं वे ।

“एक टिकिटार्थी का पत्र” व्‍यंग्‍य में एक टिकिट का अभिलाषी कहता है – मांबदौलत इस दफे पार्टी का सबसे योग्‍य उम्‍मीदवार है । इस बात को आप चाहे तो क्षेत्र के किसी थाने से पता कर सकते हैं… । राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ पर ऐसी सीधी चोट करते हैं कि बंदा तिलमिला जाए । ये साहस इन दिनों कम ही रचनाकारों में देखने को मिलता है । “वोटों की फसल” शीर्षक वाला व्‍यंग्‍य मजेदार है । वे लिखते हैं – “वोटों की फसल को ठीक समय पर साम्‍प्रदायिक जातीय उन्‍माद का फर्टीलाइजर मिल जाए तो पूछिए मत फसल इस कदर लहलहा उठती है कि बस देखते ही बनती है ।” राजनीति में वोटों के खेल की बड़ी निर्ममता से चीर फाड़ की है उन्‍होंने ।

घरेलू हिंसा को लेकर भी व्‍यंग्‍य है – अबला लुगाइयां खामोश देवता । सभ्‍य सुस्‍ंकृत समाज में नारी के स्‍थान के लिए कहा गया है “यत्र नार्यस्‍तु पुज्‍यंते तत्र रमन्‍ते देवता” । हमने बचपन में मां के मुंह से डांट के दौरान कई बार सुना है कि बहुत दिनों से तुम्‍हारी “पूजा” नहीं हुई है इसलिए दिमाग सड़ गया है तुम्‍हारा । ये विडंबना है कि घर की लुगाई की धुनाई पिटाई (पूजा) आज भी सामाजिक रोग के रूप में परिवारों में मौजूद है । सभ्‍य-आदर्श परिवार के स्‍थापित मूल्‍यों के क्षरण पर जबरदस्‍त प्रहार किया है प्रमोद ने । व्‍यंग्‍य में कहन की शैली ऐसी है कि रचना पढ़ते वक्‍त हम अपनी बगलें झांकने पर विवश हो जाते हैं ।

कभी-कभी किसी रचना का शीर्षक इतना कैची होता है कि रचना के गर्भ में क्‍या है पाठक सहजता से अनुमान लगा लेता है । “सारे नंगे बाहर तो हमाम में कौन है” रोचक रचना है । सुधि पाठक व्‍यंग्‍य के उनवान को पढ़ते ही रचना के साथ हो लेता है । तालमेल बिठा लेता है । ज्‍यादा माथापच्‍ची करने की जरूरत महसूस नहीं होती है उसे । अच्‍छे लेखक रचनाओं के शीर्षक चुनने पर भी कितने सजग होते हैं ये इस व्‍यंग्‍य से पता चलता है ।

“मस्तिष्‍क का स्‍थानांतर” गुदगुदाता व्‍यंग्‍य है । वे घुटने में दिमाग रखनेवालों का मस्तिष्‍क दिल में ट्रांसफर करना चाहते हैं ताकि हम इंसानियत प्‍यार मोहब्‍बत को जाने समझें । विवेकहीन लोगों के जमघट पर तंज करते हुए लिखते हैं कि वैसे भी भूसे और गोबर से भरे दिमाग मानव समाज को कब राख कर दें पता नहीं । बाजारवाद पर करारी चोट करता हुआ व्‍यंग्‍य है “मुफ्त का माल”। फ्री फंड के चक्‍कर में हम दुनिया का कचरा घर उठाकर ले आते हैं । प्रमोद का वाक्‍य संयोजन कई जगहों पर पाठक को चमत्‍कृत कर देता है ।

अनुभव लेखन को समृद्ध करता है । प्रमोद जल्‍दबाजी में नहीं दिखते हैं । एक अच्‍छे कलमनवीस की तरह विषय और विचार को पकने का पूरा समय देते हैं ता‍कि रचना में कहीं कच्‍चापन न रह जाए । बिना दाएं बाएं जाते हुए अपनी बात सीधे-सीधे कहते हैं, जो पाठक के दिल में उतरती चली जाती है ।

अगर आप हास्‍य व्‍यंग्‍य पढ़ने में रूचि रखते हैं तो प्रमोद का यह संग्रह निराश नहीं करेगा । एक बार पढ़ना शुरू करेंगे तो और पढ़ने की दिली ख्‍वाहशि जागेगी, यह कहने में मुझे कोई शुबहा नहीं । प्रमोद का यह संग्रह व्‍यंग्‍य के संसार में “चार्टबस्‍टर” हो मेरी शुभकामनाएं हैं ।

पुस्‍तक – समकालीन व्‍यंग्‍य प्रमोद ताम्‍बट

(चयनित व्‍यंग्‍य रचनाएं )

लेखक – प्रमोद ताम्‍बट

प्रकाशक – न्‍यू वर्ल्‍ड पब्लिकेशन

मूल्‍य – रू 225/-