हम भाषाई गुलाम हैं…

We are language slaves…

डॉ. संतोष पटेल

हमें आजादी मिली जरूर है पर साथ में भाषाई गुलामी भी मिली। जिस तरह से हमारी भाषाओं का दमन कर एक भाषा को ओढ़ा दिया गया उसी इंपोजिशन का विरोध तमिलनाडु भी आज कर रहा है।

बेशक राष्ट्रीयता का दंभ भरने वाले लोग तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन को भला बुरा कहें लेकिन सच झूठ नहीं हो जाएगा। उनका कहना गलत नहीं कि भोजपुरी और अन्य भाषाओं को हिंदी ने उसके क्षेत्र से ही क्षेत्र निकाला दे दिया। दमित कर दिया। उसको सप्रेस कर दिया। क्या गलत कहा उन्होंने?

आज़ादी के बाद से और अब तक भोजपुरी क्षेत्र के नेताओं को यह समझ नहीं आई। चुनाव के समय सिम्बोलिक रूप से भोजपुरी का खूब प्रयोग करते हैं पर जब उसके हक की बात हो तो मुंह में दही जम जाता है कारण एक ही उसके अंदर भाषाई अस्मिता की कमी।

स्टालिन को बोलने से पहले बिहार के मुख्यमंत्री हों या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वे इस बात का ज़बाब देंगे कि भोजपुरी इन राजयों की दूसरी राजभाषा अब तक क्यों नहीं बनाई गई? क्यों नहीं अकादमिक रूप से उसको बढ़ाया गया? उसकी अकादमियां आज जर्जर हाल में क्यों हैं या बनी ही नहीं तब जब गाहे बगाहे यूपी सरकार उसको बनाने की बात करती है? कई सवाल एक साथ उठ खड़े होते हैं?

राष्ट्रीयता के नाम पर आखिर कब तक यह भाषाई गुलामी झेली जाए? महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने बहुत कोशिश की कि हमारी आंखे खुले, हम नींद से उठे और 1947 में एक साथ दो प्रांतीय भोजपुरी सम्मेलन करा कर सबको यह संदेश दिया कि संविधान सभा में भाषाओं पर बहस हो रही है तो भोजपुरी को उचित स्थान मिले। प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने खुला विरोध किया।उनका मानना था कि भोजपुरी गीत गंवनई तक ठीक है आठवीं अनुसूची में नहीं आनी चाहिए। भोजपुरी की यह हालत और कोई नहीं हमारे भाग्य विधाता लोगों ने की है। बुरा लगता है पर सच कहना पड़ता है।

बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भाषाई राज्यों के मुद्दे पर अपने विचार अपनी पुस्तक “Thoughts on Linguistic States” (1955) में व्यक्त किए। बाबासाहेब का मानना था कि भाषा लोगों की सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग है। उन्होंने तर्क दिया कि भाषाई समूहों को अपनी भाषा और संस्कृति के विकास के लिए उचित अवसर मिलना चाहिए। इसलिए, भाषा के आधार पर राज्यों का गठन एक स्वाभाविक और लोकतांत्रिक कदम हो सकता है।

लेकिन भोजपुरी भाषा के क्षेत्रों के जनप्रतिनिधियों को ना तब होश था ना अब। इस क्षेत्र को अब भी गोबर पट्टी बना रखा है। बेरोजगारी, अशिक्षा, सामंतवाद और अब तो घोर रेडिकल इस क्षेत्र के भाषा और संस्कृति पर भयानक हमला हो रहा है। भोजपुरी भाषा को अश्लीलता का पर्याय बना देने का कुत्सित प्रयास कहीं ना कहीं भाषाई गुलामी के कारण है। वहां भाषाई अस्मितावाद को समाप्त ही कर दिया गया नतीजतन भोजपुरी भाषा और संस्कृति को दोयम दर्जे को घोषित कर दिया जाता है।

एक ऐसी भाषा जिसकी तुलना फ्रांस की एक्सियन भाषा से की जा सकती है जिसमें हाशिए के समाज का आर्टिजन गुण है, किसानों का ज्ञान है तो पर्यावरण को संरक्षित करने की प्रेरणा है। जो समाज उगते सूरज के साथ साथ डूबते सूरज को भी पूजता है मसलन निर्बल को भी सम्मान देता रहा है जिस मिट्टी में बुद्ध और महावीर के कदम पड़े हो। जहां कबीर और रैदास हुए, जहां गांधी महात्मा बने और जहां माता सीता को अंतिम आश्रय मिला। जहां अंग्रेजों को सबसे अधिक विरोध सहना पड़ा और बलिया से आरा तक पहले ही अपने को आज़ाद घोषित कर दिए उस क्षेत्र की भाषा आज राष्ट्रीयता के उन्माद में कहां दबी पड़ी है। आज उस भाषा के राज्य उसको उचित अधिकार से क्यों वंचित रखे हुए हैं? प्रो गणेश देवी की बात तभी तो सच लगती है कि दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली भाषा भोजपुरी अपने राज्य में मान्यता के लिए तरस रही है फिर कैसे होगा उसका संवर्धन??

परिणामत: हम आज भी भाषाई गुलाम है…।