
प्रियंका सौरभ
जब कोई स्त्री कलम उठाती है, तो वह केवल शब्द नहीं रचती—वह एक युग को चुनौती देती है। पत्रकारिता के रणक्षेत्र में जब महिलाएं उतरती हैं, तो उनके पास केवल पत्रकारिता की दक्षता नहीं होती, बल्कि उस समाज से भी लड़ने का हौसला होता है जो हर सवाल करने वाली स्त्री को अपराधी समझता है। महिला पत्रकारों की यह लड़ाई दोहरी होती है — एक सच के लिए, और दूसरी अपने अस्तित्व के लिए।
पत्रकारिता में महिलाओं की भूमिका: बढ़ता लेकिन अस्वीकारा गया कद
स्वतंत्र भारत की पत्रकारिता की कहानी में महिलाओं ने अपने पैर जमाए हैं, लेकिन इस क्षेत्र में उनके संघर्ष और योगदान को अक्सर वह सम्मान और स्थान नहीं मिला जो उनके पुरुष समकक्षों को सहजता से मिलता है।
हर मुल्क की पत्रकारिता का इतिहास महिला पत्रकारों की साहसिक कहानियों से भरा हुआ है। भारत में हर्षा भोगले, राणा अय्यूब, मृणाल पांडे, और न केवल नामचीन बल्कि अनगिनत अनसुनी आवाज़ों ने जमीनी स्तर से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंच तक अपनी पहचान बनाई है।
लेकिन इन सफलताओं के पीछे छिपा है एक कठोर सच — मीडिया हाउसों में महिला पत्रकारों की हिस्सेदारी कम है, उन्हें निर्णायक पदों तक पहुँचने से रोका जाता है, और उनकी रिपोर्टिंग को भावनात्मक या ‘कमजोर’ बताकर अक्सर नजरअंदाज किया जाता है।
दोहरी चुनौतियाँ: पेशेगत और लैंगिक
पत्रकारिता एक चुनौतीपूर्ण पेशा है। खबर के लिए चौकसी, सत्यापन, त्वरित संपादन, और कभी-कभी खतरनाक परिस्थितियों में जाकर रिपोर्टिंग करना होता है। महिलाओं के लिए यह चुनौती दोगुनी हो जाती है।
मीडिया के पुरुष वर्चस्व वाले माहौल में महिला पत्रकारों को अक्सर ‘ग्लैमर’ या ‘लाइफस्टाइल’ रिपोर्टिंग तक सीमित कर दिया जाता है। फील्ड रिपोर्टिंग से दूर रखना, नेतृत्व वाली भूमिकाओं से वंचित करना, और ‘जोखिम उनके लिए नहीं है’ जैसी पितृसत्तात्मक धारणा उनकी योग्यता को कमतर आंकती है।
कई बार उन्हें अपने परिवार और पेशे के बीच भी संतुलन बनाना पड़ता है, जो पुरुष पत्रकारों की अपेक्षा महिलाओं के लिए एक अतिरिक्त बोझ बन जाता है।
डिजिटल पत्रकारिता में भयावहता की पराकाष्ठा
तकनीकी प्रगति ने पत्रकारिता के स्वरूप को बदल दिया है। डिजिटल प्लेटफॉर्म ने खबरें और आवाज़ें तेजी से पहुँचाने का अवसर दिया, लेकिन साथ ही इसने ऑनलाइन उत्पीड़न के नए रूप भी जन्म दिए हैं।
महिला पत्रकारों को व्यक्तिगत हमलों, घृणास्पद टिप्पणियों, ट्रोलिंग, और रेप की धमकियों का सामना करना पड़ता है। उनके चरित्र पर लगातार सवाल उठाए जाते हैं, उन्हें ‘देशद्रोही’, ‘रंडी’, या ‘बिकी हुई’ कहकर अपमानित किया जाता है।
यह केवल व्यक्तिगत हमले नहीं हैं — यह लोकतंत्र की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले हैं। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर महिलाओं को निशाना बनाना उनके सच बोलने के अधिकार को दबाने का एक माध्यम बन गया है।
व्यक्तिगत संघर्ष और उदाहरण
राणा अय्यूब की कहानी इस जद्दोजहद की सबसे खतरनाक मिसाल है। उनकी खोजी पत्रकारिता ने सत्ता के कई काले पक्षों को उजागर किया, लेकिन इसके एवज में उन्हें बलात्कार और हत्या की धमकियाँ मिलीं।
गौरी लंकेश की निर्भीक लेखनी ने भी सत्ता की पोल खोल दी, लेकिन इसी के कारण उनकी हत्या कर दी गई। यह घटनाएं संकेत देती हैं कि यदि कोई महिला पत्रकार सत्ता के खिलाफ आवाज़ उठाए, तो उसकी जिंदगी खतरे में पड़ सकती है।
सामाजिक संरचना और पितृसत्ता की साज़िश
जब कोई महिला पत्रकार सत्ताधारियों या सामाजिक अन्याय पर सवाल करती है, तो उसे ‘विद्रोही’ या ‘चरित्रहीन’ कहकर तिरस्कृत किया जाता है। इसके विपरीत, पुरुष पत्रकारों को उनकी निडरता और साहस के लिए सराहा जाता है।
यह दोहरा मापदंड महिला पत्रकारों के मनोबल को तोड़ने और उन्हें चुप कराने की रणनीति का हिस्सा है। समाज को यह समझना होगा कि सवाल करना स्त्री की स्वतंत्रता का भी अधिकार है, और महिला पत्रकार केवल ‘सूचनाएं देने वाली’ नहीं, बल्कि ‘सच्चाई की खोज करने वाली’ हैं।
संगठनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएँ
पत्रकार संगठनों और मीडिया हाउसों में महिला पत्रकारों की सुरक्षा और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति गंभीर रवैया दुर्लभ है।
जब कोई महिला उत्पीड़न की शिकायत करती है, तो उसे ‘टीम की खराब सदस्य’ या ‘अनुशासनहीन’ कहा जाता है। उसे आलोचना और बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। इससे कई महिला पत्रकार आवाज़ दबाने को मजबूर होती हैं।
यह एक गम्भीर समस्या है, क्योंकि मीडिया का आधार ही सच और निष्पक्षता है, लेकिन जब महिला पत्रकारों की आवाज़ दबाई जाती है, तो लोकतंत्र की जड़े कमजोर पड़ती हैं।
बदलाव की मशाल: उम्मीद की किरणें
फिर भी, इस अंधेरे के बीच कई महिला पत्रकार डटी हुई हैं। वे हार नहीं मानतीं, बल्कि और ज़ोर से सत्ता से सवाल करती हैं।
मृणाल पांडे, बरखा दत्त, सुप्रिया शर्मा जैसी नामी महिला पत्रकारों ने साबित किया है कि कलम की ताकत जेंडर से नहीं मापी जाती। वे युवा पत्रकाराओं के लिए प्रेरणा बन रही हैं।
कई संगठन और मंच अब महिला पत्रकारों के अधिकारों, सुरक्षा, और सम्मान के लिए काम कर रहे हैं। यह बदलाव धीरे-धीरे मीडिया जगत को समावेशी और सुरक्षित बनाने की दिशा में एक सकारात्मक संकेत है।
समाधान और आवश्यक पहल
- न्यूज़रूम में लैंगिक समानता: संपादकीय स्तर पर महिलाओं की भागीदारी बढ़ानी होगी। नेतृत्व के पदों पर महिला पत्रकारों को अधिक मौका दिया जाए।
- सख्त साइबर सुरक्षा कानून: डिजिटल प्लेटफॉर्म पर महिला पत्रकारों के खिलाफ हमलों को रोकने के लिए कड़े कानून लागू किए जाएं और उनका प्रभावी पालन सुनिश्चित किया जाए।
- मानसिक स्वास्थ्य और सुरक्षा: महिला पत्रकारों के लिए अलग हेल्पलाइन, कानूनी सहायता और काउंसलिंग सेवाएं उपलब्ध कराई जाएं। उत्पीड़न के खिलाफ शिकायतों को गंभीरता से लिया जाए।
- सामाजिक जागरूकता: महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह और पितृसत्तात्मक सोच को दूर करने के लिए समाज में शिक्षा और जागरूकता अभियान चलाए जाएं।
- लोकतंत्र की परिभाषा में विस्तार: अभिव्यक्ति की आज़ादी को स्त्री के संदर्भ में पुनः परिभाषित किया जाए, ताकि महिला पत्रकारों को बिना भय के अपना काम करने की स्वतंत्रता मिले।
महिला पत्रकार केवल खबर नहीं देतीं, वे एक नई चेतना लिखती हैं — वह चेतना जो सत्ता की आँखों में आँखें डालती है, जो समाज की खामोशी को तोड़ती है, और जो लोकतंत्र की सच्ची प्रहरी बनती है।
उनकी अनदेखी, उत्पीड़न और चरित्रहनन केवल महिला विरोधी मानसिकता का प्रतीक नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर हमला है।
अब समय आ गया है कि हम उनके संघर्ष को देखें, सराहें और उसके लिए खड़े हों। क्योंकि जब स्त्रियाँ कलम उठाती हैं, तो सिर्फ स्याही नहीं बहती — एक युग बदलने की शुरुआत होती है।